विकास और पर्यटन के मोह में बर्बाद होते तीर्थ …?

खतरे में जोशीमठ: पहाड़ पर बसे हुए लोगों की अमूल्य संपत्ति जमीन के अंदर धीरे-धीरे समाती नजर आ रही है …

प्रकृति की अनदेखी करके किए गए विकास कार्यों और तीर्थ स्थलों को पर्यटन स्थल बनाने के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। जोशीमठ इसका ताजा उदाहरण है। क्या सरकारें इससे कोई सबक लेंगी?

केंद्र सरकार सीमांत क्षेत्र में रहने वालों की सुविधा के लिए आधुनिक विकास का मॉडल लाना चाहती है। वहां चौड़ी सड़कें, सुरंग आधारित बांध जैसी अनेक योजनाएं क्रियान्वित करना चाहती हैं। चिंताजनक बात यह है कि इस तरह की कथित विकास योजनाओं ने ही हिमालय क्षेत्र को हिला कर रख दिया है। इस तरह के विकास मॉडल के कारण ही आजकल मध्य हिमालय क्षेत्र में स्थित चमोली जिले की प्रसिद्ध धार्मिक नगरी और शंकराचार्य की तपस्थली ज्योतिर्मठ, जिसे जोशीमठ भी कहते हैं, भारी भू-धसाव के कारण अलकनंदा की ओर फिसलता नजर आ रही है। जोशीमठ चीन की सीमा पर भारत का अंतिम शहर है। इसी स्थान से होकर हर वर्ष लाखों तीर्थयात्री एवं पर्यटक औली, बद्रीनाथ, हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी की यात्रा करते हैं। नीति-माना तक पहुंचने का रास्ता भी यहीं से है। सीमांत क्षेत्र होने के कारण यह सैनिकों का इलाका भी है। बद्रीनाथ से आ रही अलकनंदा, धौलीगंगा, ऋषि गंगा की गोद में बसा हुआ जोशीमठ ढालदार पहाड़ के टॉप पर बसा हुआ है, जहां पर पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए बड़े निर्माण कार्यों को तवज्जो दी गई।

वर्ष 1970 में धौलीगंगा में आई बाढ़ के प्रभाव के कारण पाताल गंगा से लेकर हेलंग और ढाक नाला तक अपार जनधन की हानि हुई थी। उस समय भी यहां पर वनों का अंधाधुंध दोहन हो रहा था। इस क्षेत्र का उस समय वैज्ञानिकों ने अध्ययन किया था। इसके बाद 1975 में मिश्रा कमेटी ने सरकार को सुझाव दिया था की जोशीमठ में किसी भी तरह का भारी निर्माण कार्य न करवाएं, लेकिन हिमालय की प्राकृतिक खूबसूरती को नजरअंदाज करते हुए पर्यटन के नाम पर बहुमंजिला इमारतों का निर्माण और भारी खनन कार्य जारी रखा। अधिक से अधिक कमाई के लालच में इस तरह की गतिविधियां बेरोकटोक जारी रहीं। इसका परिणाम यह रहा की जोशीमठ में पिछले 50 सालों के दौरान लोगों का आवागमन बहुत तेजी से बढ़ा। इस वजह से अनियंत्रित तरीके से भवनों का निर्माण हुआ। विशेषज्ञों का मानना है कि भू-धसाव का कारण बेतरतीब भवन निर्माण, घरों से निकलने वाले बेकार पानी का रिसाव, ऊपरी मिट्टी का कटाव, मानव जनित विकास के कारण जलधारा के प्राकृतिक प्रभाव में आ रही है रुकावट है। जल निकासी का कोई रास्ता न मिलने की वजह से संकट बढ़ा। पहाड़ पर बसे हुए लोगों की अमूल्य संपत्ति जमीन के अंदर धीरे-धीरे समाती नजर आ रही है। यहां जोशीमठ की तलहटी से गुजरने वाली अलकनंदा नदी के बगल के किनारे से तपोवन विष्णु गाड़ परियोजना ( 520 मेगावाट) का निर्माण किया जा रहा है। इसकी सुरंग में हो रहे विस्फोटों ने जोशीमठ शहर की धरती को बुरी तरह से हिला कर रख दिया है। वर्तमान में जोशीमठ के अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडराने लगे, तो गैर सरकारी वैज्ञानिकों की तरह सरकारी वैज्ञानिक भी कहने लगे हैं कि जोशीमठ के भू-धसाव का बड़ा कारण जल विद्युत परियोजना के सुरंग निर्माण भी है। जनवरी के प्रथम सप्ताह में इस परियोजना की सुरंग के निर्माण का कार्य रोक दिया गया है। यहां पर लंबे समय से काम कर रहे जोशीमठ- औली रोपवे का संचालन भी नहीं हो पा रहा है, क्योंकि इसके चारों ओर जगह-जगह भूस्खलन और भू-धसाव हो रहा है। यहां पर 700 से अधिक घरों में चौड़ी दरारें पड़ने के कारण लोग घर छोड़ने को मजबूर हो गए हैं। राज्य की सरकार ने एनटीपीसी और एनएचपीसी के माध्यम से लगभग 4000 फैब्रिकेटेड घरों के निर्माण के लिए स्थान चयन करने के लिए कहा है, जहां पर प्रभावित लोग भविष्य में सुरक्षित तरीके से निवास कर सकें।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में गठित समिति ने इस क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों को बचाने व हिमालय की संवेदनशीलता जैसे- बाढ़, भूस्खलन, भूकंप को ध्यान में रखकर संयमित निर्माण करने की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया था। इसके बावजूद उत्तराखंड जैसे हिमालयी राज्य में बड़े निर्माण कार्य लगातार जारी रहे। उत्तराखंड समेत पूरे हिमालय क्षेत्र में सैकड़ों ऐसी जगह हैं, जहां धरती के नीचे रेल, बांध और अन्य तरह की सुरंगों के निर्माण के कारण गांव के गांव जमींदोज होने लगे हैं। लोग रो रहे हैं, चिल्ला रहे हैं, लेकिन कोई सुनने के लिए तैयार नहीं है। जोशीमठ के लिए भी सरकार तब जागी, जब जोशीमठ नगर अपना अस्तित्व खोने लगा है। प्रकृति की अनदेखी करके किए गए विकास कार्यों और तीर्थ स्थलों को पर्यटन स्थल बनाने के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। जोशीमठ इसका ताजा उदाहरण है।

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