सरकारी योजनाओं के लिए बाध्य क्यों किए जा रहे निजी अस्पताल

इमरजेंसी एवं सामान्य चिकित्सा सेवाओं से जुड़े हुए निजी चिकित्सालय चिकित्सा क्षेत्र की रीढ़ की हड्डी के रूप में कार्य कर रहे हैं। इसके बावजूद चिकित्सा संगठनों एवं निजी अस्पताल संचालकों को विश्वास में लिए बिना जल्दबाजी में राइट टु हेल्थ बिल विधानसभा में पारित करवाने के प्रयास हो रहे हैं। इससे आम जनता को परेशानी होगी। साथ ही रोगी और चिकित्सक के संबंध कमजोर होंगे एवं युवा चिकित्सकों का राज्य से पलायन होने से चिकित्सा व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। बेहतर तो यह है कि सरकार राइट टु हेल्थ बिल अथवा अन्य विषयों पर विशेषज्ञ चिकित्सकों की सहायता लेकर महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं की गहन समीक्षा करे ।

राइट टु हेल्थ बिल में आपातकाल यानी कि मेडिकल इमरजेंसी के दौरान निजी अस्पतालों को मुफ्त इलाज करने के लिए बाध्य किया गया है। निजी अस्पताल के चिकित्सकों के अनुसार मेडिकल इमरजेंसी की परिभाषा और इसके दायरे को तय नहीं किया गया है। राइट टु हेल्थ बिल में प्राधिकरण का गठन प्रस्तावित है। प्राधिकरण में विषय के चिकित्सा विशेषज्ञों को सम्मिलित करना चाहिए। राइट टु हेल्थ बिल में यह भी प्रावधान है कि यदि मरीज को किसी अन्य अस्पताल में रेफर करना है, तो एम्बुलेंस की व्यवस्था करना अनिवार्य है। सवाल यह है कि एम्बुलेंस का खर्र्च कौन वहन करेगा? खर्च का सरकार भुगतान करेगी, तो क्या प्रावधान हैं, यह स्पष्ट किया जाना आवश्यक है।

बिल में निजी अस्पतालों को भी सरकारी योजना के अनुसार सभी बीमारियों का इलाज नि:शुल्क करना है। सरकार अपनी योजनाओं को सरकारी अस्पतालों के जरिये लागू कर सकती है। इसके लिए प्राइवेट अस्पतालों को बाध्य क्यों किया जा रहा है? असल में योजनाओं के पैकेज अस्पताल में इलाज और सुविधाओं के खर्च के मुताबिक नहीं हैं। ऐसी स्थिति में निजी अस्पताल इलाज और ऑपरेशन के खर्च कैसे निकालेंगे? इससे निजी अस्पतालों के ट्रीटमेंट, मेडिकेशन, ऑपरेशन आदि की गुणवत्ता पर गंभीर असर पड़ेगा। बैंक लोन की ईएमआइ, स्टाफ की तनख्वाह, एनओसी की नवीनीकरण फीस और निजी अस्पताल के रख-रखाव पर लाखों रुपए का खर्च होता है। इसके कारण निजी अस्पताल के संचालक अनेक आर्थिक चुनौतियों का सामना करते हैं। ऐसी स्थिति में अगर राइट टु हेल्थ बिल को निजी अस्पतालों पर जबरन लागू किया गया, तो प्रदेश के अनेक निजी अस्पताल बंद होने की कगार पर पहुंच सकते हैं। ध्यान देने बात यह है कि सभी तरह के गंभीर रोगियों का इलाज हर निजी अस्पताल में संभव नहीं है। ऐसे में निजी अस्पताल इन गंभीर रोगियों का उपचार कैसे कर सकेंगे? इसके लिए सरकार को स्पष्ट नियम बनाने चाहिए। दुर्घटना में घायल मरीज को अस्पताल पहुंचाने वालों को 5 हजार रुपए प्रोत्साहन राशि देने का प्रावधान है। दूसरी तरफ प्राइवेट अस्पताल वालों को इमरजेंसी में आए रोगी का संपूर्ण इलाज नि:शुल्क करना होगा। ऐसा कैसे संभव होगा?

निस्संदेह नागरिकों को स्वास्थ्य का अधिकार देना एक प्रशंसनीय पहल है। बेहतर तो यह है कि इसके लिए समस्या की जड़ तक पहुंचते हुए एक नया राइट टु हेल्थ बिल इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन एवं अन्य चिकित्सा विशेषज्ञों से परामर्श लेकर ड्राफ्ट किया जाए। राज्य सरकार अपने संसाधनों से नागरिकों को स्वास्थ्य का अधिकार दे। राज्य के प्रत्येक नागरिक को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवाना सरकार का नैतिक दायित्व है। देश की जनता सरकार को टैक्स देती है। इसलिए सरकार इस टैक्स के पैसों से सभी नागरिकों के लिए गुणवत्तापूर्ण एवं त्वरित स्वास्थ्य सेवा की व्यवस्था करे। इसके लिए सरकार को स्वास्थ्य क्षेत्र का बजट बढ़ाना चाहिए। भारत सरकार कुल जीडीपी का लगभग 2 प्रतिशत स्वास्थ्य के लिए खर्च करती है। यह स्वास्थ्य बजट श्रीलंका, भूटान, नेपाल जैसे गरीब देशों से भी कम है। विकसित देशों जैसे अमरीका में सरकार अपने नागरिकों के स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष नौ लाख रुपए खर्च करती है, जबकि भारत की सरकार मात्र 5300 रुपए खर्च करती है। यदि सरकार अपने नागरिकों को विकसित देशों जैसी स्वास्थ्य सेवाएं देना चाहती है, तो सबसे पहले उसे बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए आवंटित की गई धनराशि को बढ़ाना होगा। बेहतर तो यह है कि राज्य सरकार राइट टु हेल्थ बिल और चिकित्सा से जुड़े अन्य विषयों पर विशेषज्ञ चिकित्सकों की मदद लेकर महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं की गहन समीक्षा करे जिससे निजी अस्पतालों एवं चिकित्सा संस्थाओं को विश्वास में लिया जा सके।

स्वास्थ्य सेवा को अधिकार बनाने का वादा करने वाला ऐतिहासिक विधेयक राजस्थान में निजी अस्पतालों और चिकित्सकों के भयावह, अनुचित और विचित्र तरह के विरोध का गवाह बन रहा है। चिकित्सकों के समूह को खुश होना चाहिए था कि आखिरकार लोगों को वह अधिकार मिल रहा है जिसे आजादी के 75 साल बाद भी अक्सर नकारा जाता है। राजस्थान में डॉक्टरों का विरोध चरम पर है। निजी अस्पतालों और डॉक्टरों का हैरान कर देने वाला विरोध उस मजबूत सिविल सोसाइटी अभियान के समक्ष तनकर खड़ा है, जो बिल के समर्थन में है। यह बिल अधिकार के रूप में राजस्थान के सभी लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरह मुफ्त उपलब्ध कराने का अवसर प्रदान करता है। यह बिल यूनाइटेड किंगडम की नेशनल हेल्थ सर्विस की तर्ज पर और यूरोप के कई अन्य विकसित समाजों के मॉडल पर आधारित है। इंग्लैंड में 1945 से 1951 तक स्वास्थ्य मंत्री रहे और एनएचएस के आर्किटेक्ट एन वाई ई बेवन ने घोषणा की थी-‘बीमारी न तो खातिरदारी है, जिसके लिए लोगों को भुगतान करना पड़े और न ही अपराध है जिसके लिए उन्हें दंडनीय ठहराया जाए। यह एक दुर्भाग्य है, जिसका खर्च समुदाय को वहन करना चाहिए।’

एशिया हेल्थ कॉन्फ्रेंस 2020 में उल्लेखित आंकड़ों के अनुसार भारत में 5 से 6 करोड़ लोग स्वास्थ्य पर खर्च की वजह से गरीबी के दलदल में डूब जाते हैं। नेशनल हेल्थ एकाउंट्स के आंकड़ों के अनुसार पूरे भारत में 2018-19 में आउट-ऑफ-पॉकेट व्यय 2.89 लाख करोड़ था, जिसमें वर्तमान का 53.23 फीसदी स्वास्थ्य पर व्यय शामिल है। सरकारों की बजाय परिवारों का स्वास्थ्य व्यय ज्यादा है।

राजस्थान ऐसा पहला राज्य होगा, जिसने सभी के स्वास्थ्य के लिए इस तरह का कदम उठाया है। इसे पूरे देश में समान रूप से अपनाए जाने की मांग का रास्ता प्रशस्त होगा। हालांकि निजी डॉक्टरों और निजी अस्पतालों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठनों ने बिल का पुरजोर विरोध किया है। इस विधेयक में एक महत्त्वपूर्ण प्रावधान है कि किसी भी इमरजेंसी की हालत में मरीज का सरकारी या निजी अस्पताल में कैशलेस और मुफ्त इलाज किया जाएगा। निजी अस्पतालों को भय है कि इमरजेंसी केयर पर खर्च का अऩुमान नहीं लगाया जा सकता है और यह बहुत अधिक हो सकता है। कई मायनों में, इस डर को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है। सभी लोग निजी अस्पतालों में नहीं जाएंगे। इमरजेंसी की स्थिति में मरीज को सरकारी अस्पताल में भेजे जाने से पहले उसके प्राथमिक उपचार में ज्यादा खर्च नहीं आएगा। मुख्यमंत्री दुर्घटना बीमा योजना पहले से ही मौजूद है। चिरंजीवी योजना प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएमजेएवाई) का ही प्रारूप है। यह योजना सभी दुर्घटना पीड़ितों को मुफ्त में इलाज प्रदान करती है। सरकार सभी इमरजेंसी केयर के लिए इसे विस्तारित करने पर विचार कर सकती है। कुछ लागत उन अस्पतालों को भी वहन करनी चाहिए, जिन्हें सब्सिडी में जमीन मिली हुई है।

एक मांग जिला और राज्य स्वास्थ्य प्राधिकरणों में डॉक्टरों के संघ के प्रतिनिधित्व को लेकर है। यह उचित मांग हैै। तीसरी महत्वपूर्ण मांग है-उस प्रावधान को हटाया जाए जो शिकायत निवारण तंत्र के समक्ष लंबित किसी भी मामले को दीवानी अदालतों में अपील करने से रोकता है। सरकार को इस तरह के प्रावधान को हटाने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। यह बिल सरकारी स्वास्थ्य प्रणाली की मजबूती और समान स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित करने के लिए कानूनी ढांचा उपलब्ध कराएगा। हम उम्मीद कर सकते है कि अन्य राज्य भी इसी राह का अनुसरण करेंगे। यह बिल परिवारों पर वित्तीय बोझ डाले बिना गुणवत्तापूर्ण, न्यायसंगत, मानवीय और उत्तरदायी स्वास्थ्य सेवा तक मरीजों की पहुंच सुनिश्चित कर सकता है।

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