लोक पर तंत्र की मार …! सत्ता नीति से चलती है- साम, दाम, दण्ड, भेद …!

त्ता नीति से चलती है- साम, दाम, दण्ड, भेद। सत्ता शासन है दूसरों पर। इसमें संवेदना का लेशमात्र भी अंश नहीं रहता। सत्ता में अहंकार तो है ही, क्रूरता भी रहती है। स्वार्थ यदि बढ़ जाए तो आसुरी भाव भी समाहित हो जाता है। फिर सत्ता चाहे राजनीति की हो, धर्म की हो अथवा परिवार की। ईश्वर की सृष्टि में सब स्वतंत्र आत्मा है, किन्तु समाज व्यवस्था में कर्म के नियोजन एवं फल भोगने के हेतु रूप सम्बन्ध बना लिए गए हैं। समान स्वार्थ के कारण संगठन बनते- बिगड़ते हैं। सत्ता का एक ही परिणाम है- ‘समरथ को नहीं दोष गोसाईं’। यह प्रमाणित करता है कि निर्बल को जीने का अधिकार ही नहीं है। सम्पूर्ण विश्व आज भी संगठित शक्तियों से आतंकित है। चीन-रूस को देखें, मध्य-पूर्व को देखें, यूरोप को देखें, सर्वत्र सत्ता का संघर्ष दिखाई दे रहा है।

सत्ता यानी कि भोग और रोग। यही लक्ष्मी और उल्लू का मूल योग है। कृष्ण (विष्णु) योगेश्वर है। भारत में कितने ही आक्रमण हुए, राज्य स्थापित हुए और नष्ट हो गए। भोग कंचन कामिनी जैसी मिट्टी से निर्मित निर्जीव -जड़- पदार्थों का होता है। जो अन्तत: मिट्टी में ही मिल जाते हैं। पार्थिव जगत सारा पंच महाभूत से ही बनता है। इनका भोग भी जीवन को जड़ता ही प्रदान करता है। तब समृद्धि तो आ सकती है, नि:श्रेयस संभव नहीं है। हमारे पुरातन ग्रन्थ और सनातन जीवन शैली इसका प्रमाण है। इसके आधार पर गरीब, आदिवासी बेसहारा भी सुख से जीता था। धैर्य था, जीने का (विषम परिस्थितियों में भी) साहस था। ईश्वर के प्रति आस्था थी। यही मर्यादा जीवन की संजीवनी है, पर का सम्मान है, धैर्य की कुंजी है। जीवन को दिव्यता का वरदान है।

आज जीवन पर दोहरी मार पड़ रही है। शिक्षा में स्वार्थ है, संवेदना नहीं है। यही व्यक्ति सत्ता में बैठकर आसुरी स्वरूप तक ले लेता है। मानव की त्राहि-त्राहि, मृत्यु का आर्तनाद कुछ भी असर नहीं करता। अपने भोग के लिए किसी की भी आहुति दे सकता है। वह सभ्य कहलाता है। हमारे देश में लोकतंत्र जैसी पवित्र संस्था की आड़ में भी सभ्य लोगों की नृशंसता जारी है, क्योंकि वे सुसंस्कृत नहीं हैं। आज भी इन्हीं की कृपा से आधा देश (48 प्रतिशत गरीबी की रेखा से नीचे) अमृत महोत्सव मना रहा है। इनमें भी जो आदिवासी हैं, पिछडे़ हैं, विषम भू-भागों में रहने वाले हैं, वे सत्ताधीशों की मौज-मस्ती, ऐशो-आराम का माध्यम बने हुए हैं। उन्हीं के लोग, उन्हीं के नाम पर, कानून का सहारा लेकर, उन्हीं का उत्पीड़न कर रहे हैं। जबकि आदिवासियों में इस देश की निर्मल शुद्ध आत्मा बसती है। ये शबरी के वंशज हैं। हमारे आदिवासी भारत की मूल संस्कृति के वाहक हैं। कभी रजवाड़ों की सुरक्षा का जिम्मा था इनके पास। आज स्वयं की जान के लाले पड़े हैं। सरकारें तो सभी इनको निर्दयता से प्रताड़ित करती रहती हैं। इनकी सुनने के कान लोकतंत्र में नहीं बचे।

इन तमाम परिस्थितियों को नजदीक से देखना हो तो छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश के आदिवासी क्षेत्र में कुछ काल रहकर देखना चाहिए। मध्यप्रदेश में हर पांचवा व्यक्ति आदिवासी है फिर भी विकास से महरूम है। प्रदेश के 52 में से 20 जिले आदिवासी बाहुल्य वाले हैं। सबसे अधिक आबादी भील, गोंड, सहरिया, कोल, बैगा और कोरकू जनजाति की है। इनमें से गोंड और भील आदिवासियों की अच्छी खासी संख्या छत्तीसगढ़ से सटे जिलों में हैं। बजट में करोड़ों रुपए के प्रावधान के बावजूद यहां के आदिवासी रोजगार की तलाश में पलायन को मजबूर हैं। राज्य सरकार ने वर्ष 2022-23 के लिए जनजाति वर्ग के के लिए 26941 करोड़ रुपए का प्रावधान किया था, वहीं केंद्र द्वारा संचालित कई योजनाओं के लिए मप्र के लिए 7584 करोड़ रुपए जारी किए थे। लेकिन इनका फायदा पहुंचाने का काम आदिवासियों तक कछुए की चाल से हो रहा है।

छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में जाएं तो वहां सरकारों के दोहरे चेहरे भी दिखाई देंगे, नक्सली समूहों की फूट-उनकी महत्वाकांक्षा- उनका शोषण एवं इनकी गतिविधियों का सरकारी पोषण भी खूब होता है। यहां जाने पर पता चलता है कि एक असहाय-निरीह समुदाय को सत्ता कैसे बलि का बकरा भी बनाती है, नोचती भी है, वोटों के लिए भ्रमित भी करती है और आदिवासियों की कीमत पर उद्योगपतियों को भी आश्रय देती है। और तो और, खानों के पत्थर की तरह आदिवासियों को मार फैंकती रही है। उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद ही ‘सलवा जुडुम’ जैसा मौत का ताण्डव बन्द हुआ। आज भी मुट्ठी भर नक्सलियों से निपटने के लिए सशस्त्र बलों के 52 शिविरों में एक लाख से ज्यादा जवान ड्यूटी दे रहे हैं। एक तरह से बन्दूक के दम पर शान्ति के प्रयास।

बस्तर इस बात का भी सबसे बड़ा प्रमाण है कि हमारे जन प्रतिनिधि ही कैसे हमारे शत्रु बने बैठे हैं। हमारी सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत सुरक्षा पर खर्च होता है। सेना पर 2.1 प्रतिशत और आन्तरिक सुरक्षा पर 4 प्रतिशत खर्च होता है। स्वास्थ्य पर 2.1 प्रतिशत, शिक्षा पर 3.1 प्रतिशत खर्च होता है। सर्वाधिक खर्च सड़कें बनाने पर होता है। बस्तर में 52 शिविरों के बाद भी पिछले साल सुकमा जिले के सिलगेट गांव में शिविर खोलने के प्रयास का लोगों ने विरोध किया था। सेना की गोलियों से चार लोग मारे गए थे। सरकार ने आज तक न जांच रिपोर्ट ही जारी की, न ही किसी को सजा हुई। संवैधानिक मांगों के लिए शान्तिपूर्ण प्रदर्शन करने का अधिकार भी उनके पास नहीं है। यह गांधी की ही कांग्रेस है! वर्ष 2013 के झीरम घाटी काण्ड की वजह भी कांग्रेस में भीतरी कलह को माना गया था। सत्ता पक्ष के एक बडे़ नेता की इसमें भूमिका बताई गई थी जो इन दिनों उच्च पद पर आसीन है।

यहां यह उल्लेख करना उचित ही होगा कि एक बटालियन पर लगभग ढाई करोड़ रुपए मासिक खर्च आता है। यहां 45 बटालियनें मौजूद हैं जिनमें 47,000 जवान हैं। पुलिस के 25,000 तथा छत्तीसगढ़ सशस्त्र बल के 28,000 जवान भी हैं। इसके बावजूद नक्सल प्रभावित क्षेत्र में कमी नहीं आई। पिछले चुनाव में बस्तर क्षेत्र में कांग्रेस ने भारी जीत दर्ज कराई थी। परिणाम के कारणों में एक बड़ा कारण था ‘कांग्रेस के चुनावी वादे’ और आर्थिक सहायता। इसी माह मुझे जगदलपुर में सांसद, विधायक -पूर्व विधायकों तथा जनसाधारण से चर्चा का अवसर प्राप्त हुआ। चर्चा में शामिल पूर्व विधायक का तो यहां तक आरोप था कि नक्सलियों को सत्ता पक्ष से जुड़े लोग ही फंडिंग कर रहे हैं। सत्ता दल के एक बड़े नेता पर भी आरोप है कि वे सरकारी तंत्र के जरिए नक्सलियों को मदद पहुंचाते रहते हैं। दूसरी ओर माइनिंग -दोहन- के लिए पूंजीपतियों के इशारे पर अन्दरूनी इलाकों में सुरक्षा बलों के कैम्प खुलवाए जा रहे हैं। इनके लिए निर्दोष आदिवासियों को निशाना बनाना भी आम है।

कांग्रेस ने चुनावी घोषणा पत्र में निर्दोष आदिवासियों को जेलों से रिहा करने का वादा किया था- जो अभी पूरा नहीं हुआ है। एक वादा फर्जी मुठभेड़ नहीं करने का भी किया था। लेकिन सिलगेर सहित आधा दर्जन फर्जी मुठभेड़ों के आरोप लगे हैं। इन आरोपों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। मौतों के मामलों में तो आदिवासी दो साल से न्याय के लिए आन्दोलन कर रहे हैं। सबके कान बन्द हैं। ‘पेसा एक्ट’ लागू करने का वादा भी झूठा -मुखौटा- साबित हुआ। एक्ट में उन भावनाओं को शामिल ही नहीं किया जिनको शामिल करना था। अत: एक्ट की भावना की ही हत्या कर दी। इस मुद्दे पर भी सर्व आदिवासी समाज आन्दोलित है। बस्तर में आन्दोलन को कुचलने के लिए पुलिस पर बर्बरता का भी आरोप है। सिलगेर, नारायणपुर, भैरमगढ़ की घटनाएं उदाहरण हैं।

दन्तेवाड़ा पुलिस ने ‘लोन वर्राटू’ अभियान चलाया था। लगभग 600 से अधिक लोगों को नक्सली बताकर समर्पण करवाया था। इन लोगों पर लाखों रुपयों का इनाम घोषित था। इनके समर्पण से पुलिस अफसरों ने वाहवाही तो लूट ली, किन्तु अधिकांश को न तो पैसा ही मिला, न ही पुनर्वास का लाभ। हुआ कुछ विपरीत जब कई लोग गांव वापस लौटे तो नक्सलियों ने प्रताड़ित भी किया। कुछ लोगों की हत्या भी कर दी गई। इसी तरह के डर के चलते सलवा जुडूम के विस्थापित आज तक आन्ध्र प्रदेश/तेलंगाना में ही रह रहे हैं। वे बस्तर की अपनी चल-अचल सम्पत्ति से महरूम हैं।

आज वास्तविकता यह है कि आदिवासी के हाथों आदिवासी मारा जा रहा है। बेरोजगारी की मार से नक्सली संगठनों में भी आदिवासी युवा ही भर्ती होने लगे हैं। सरकारी बलों – डी.आर.जी., बस्तर बटालियन और बस्तर फाइटर में भी आदिवासी भर्ती हुए हैं। अन्दरुनी इलाकों में ग्रामीण ही इन दोनों के निशाने पर हैं। पुलिस ग्रामीणों को नक्सली बताकर मारती है। नक्सली इनको पुलिस का मुखबिर कहकर मारते हैं। पुलिस में भी आदिवासी ही मरता है। नक्सली के पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला (पीएजीए) में भी आदिवासी ही मर रहा हैं। यही लोकतंत्र का जनाजा है।

सलवा जुडूम के घाव अभी भरे नहीं हैं। रोज नए घाव, नई हत्याएं, उद्योगपतियों को किए जाने वाले वादे, सरकार द्वारा अपने आसुरी अहंकार से पुलिस का दुरुपयोग, मानवता पर सीधा प्रहार आदि प्रमाणित कर रहे हैं कि मानव जीवन कागज के टुकड़ों से सस्ता हो गया है। पानी सिर से गुजरने लगा है। छत्तीसगढ़ के समृद्ध परिवारों को आगे आकर एक-एक आदिवासी परिवार को गोद ले लेना चाहिए। वरना, सरकार-पुलिस-सशस्त्र बल मिलकर पूरी जातियों का ही सफाया कर देंगे। कुछ समाजसेवी वकीलों को उच्चतम न्यायालय के द्वार खटखटाने चाहिए। शायद सलवा जुडूम की तरह कोई न्याय मिल जाए। पत्रिका ने जब सलवा जुडूम का मुद्दा उठाया था, तब सरकार-पुलिस में एक प्रकार का रोष भी था। इतने निर्दोष लोगों के खून में सनी रोटी जिस पेट में जाएगी, उसकी तो सात पीढ़ी उजड़ी ही समझो।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *