अब हॉर्स ट्रेडिंग में भ्रष्टाचार के साथ संगठित आपराधिक तंत्र का भी संगम हो गया है
दल -बदल विरोधी कानून के अनुसार दो-तिहाई विधायकों वाले शिंदे गुट को अन्य पार्टी में विलय के बाद ही मान्यता मिल सकती थी। लेकिन स्पीकर, राज्यपाल, सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग के त्वरित आदेशों के बाद शिंदे ने सरकार बनाने के 9 महीने के भीतर ही शिवसेना पर कब्जा कर लिया। मामले में यू-टर्न के बाद अब ठाकरे गुट के विधायकों और सांसदों पर अयोग्यता की तलवार लटकने लगी है। इस मामले से जुड़े चार अहम बातों को समझना जरूरी है-
1. पार्टियों में तानाशाही
कागजों में दर्ज करोड़ों सदस्यों और कार्यकारिणी का विवरण पेश नहीं करने के बावजूद चुनाव आयोग पार्टियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करता। सुप्रीम कोर्ट के सादिक अली के 50 साल पुराने फैसले के अनुसार विधायक और सांसदों को मिले वोटों के आधार पर शिंदे गुट को शिवसेना का तीर-कमान सौंप दिया गया। शिंदे गुट ने पार्टी के 55 में से 40 विधायकों और 18 में से 13 सांसदों के समर्थन का दावा किया था।
आयोग की गणना के अनुसार उन्हें लगभग 75 फीसदी वोट मिले। चुनाव चिह्न कब्जाने के लिए विधायक व सांसदों के विधायी दल को ही राजनीतिक पार्टी का पर्याय मानने पर आयोग की मुहर लगना गलत है। आयोग ने शिवसेना के 2018 के संविधान को मानने से इंकार कर दिया, जिसमें उद्धव ठाकरे को सर्वाधिकार हासिल थे। लेकिन कब्जा मिलने के बाद शिंदे ने भी प्रस्ताव के माध्यम से पार्टी पर एकाधिकार हासिल करके, कानून और आयोग दोनों को ठेंगा दिखा दिया है।
2. अप्रासंगिक दल-बदल विरोधी कानून
आयाराम-गयाराम युग में माननीय कहे जाने वाले विधायक छोटे स्तर पर दल-बदल करते थे। दल-बदल कानून के बाद अब हॉर्स ट्रेडिंग में भ्रष्टाचार के साथ संगठित आपराधिक तंत्र का भी संगम हो गया है। शिंदे गुट के दो-तिहाई विधायकों को अयोग्यता की अग्निपरीक्षा में खरे उतरने के बावजूद दूसरे दल में विलय के बाद ही मान्यता मिल सकती थी।
इन सभी कानूनी पहलुओं को दरकिनार करके शिंदे गुट को सरकार बनाने, नए स्पीकर की नियुक्ति करने और अब पार्टी पर कब्जा करने की इजाजत मिल गई है। संगठित दल-बदल को सियासी और कानूनी मान्यता मिलने के बाद अब संविधान की दसवीं अनुसूची में कैद दल-बदल विरोधी कानून अप्रासंगिक-सा लगता है।
3. संवैधानिक नैतिकता का आलाप
चुनाव आयोग में लगभग 3000 पार्टियां रजिस्टर्ड हैं, जिनमें से 92 फीसदी ने पिछली आमदनी का विवरण फाइल नहीं किया। ऐसी पार्टियां हवाला व आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हैं। कोई भी मान्यता प्राप्त पार्टी अपने सदस्यों का पूरा विवरण वेबसाइट में अपडेट नहीं करती। विवाद बढ़ने के बाद ठाकरे गुट ने चुनाव आयोग के सामने कई ट्रकों में 20 लाख से ज्यादा पार्टी सदस्यों का शपथ-पत्र पेश किया था।
शिंदे गुट ने 10 लाख सदस्यों का विवरण देने के बाद 10 लाख सदस्यों का ऑनलाइन ब्यौरा देने की बात कही है। लेकिन अब उन बातों पर शायद ही कोई पारदर्शी बहस होगी। मिल-जुलकर सरकार चलाने वाले दोनों गुट परस्पर भ्रष्टाचार और संगठित अपराधों में लिप्त होने का आरोप लगा रहे हैं।
चुनाव चिह्न पर आयोग के फैसले के बाद 2000 करोड़ की डील की बात की जा रही है। अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में अदालती हस्तक्षेप के बाद सरकारों की बहाली हो गई थी। लेकिन ठाकरे गुट को अब संवैधानिक नैतिकता की आड़ में सुप्रीम कोर्ट से बड़ी राहत मिलना मुश्किल है। इंदिरा गांधी के समय कांग्रेस की तर्ज पर अब अगले चुनावों में नए सिरे से असली शिवसेना का निर्धारण होगा।
4. स्पीकर की घटती साख
अविश्वास प्रस्ताव लम्बित होने पर स्पीकर द्वारा विधायकों की अयोग्यता का निर्धारण नहीं हो सकता। इस बारे में नबाम रेबिया के 2016 के फैसले की संवैधानिकता की सुप्रीम कोर्ट नए सिरे से जांच कर रहा है। संविधान की दसवीं अनुसूची के अनुसार अयोग्यता के निर्धारण के लिए स्पीकर को न्यायाधिकरण का दर्जा दिया गया है।
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा है कि सत्ता में रहने वाली हर पार्टी स्पीकर का सियासी इस्तेमाल करती है। राज्यपाल, चुनाव आयोग और स्पीकर की विफलता के फलस्वरूप सुप्रीम कोर्ट में मुकदमेबाजी बढ़ना ठीक नहीं है। पार्टियों में शिकायत निवारण तंत्र की कमी के बारे में चुनाव आयोग की टिप्पणी पर सुप्रीम कोर्ट ठोस आदेश पारित करे।
चुनाव चिह्न को सर्वोपरि मानकर उसके आधार पर पार्टी, सरकार, बैंक खातों, भवन और सम्पत्तियों पर बाहुबल के आधार पर कब्जे के समाचार आना 21वीं सदी के भारतीय लोकतंत्र में शर्मनाक है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)