हम पंजाब में पुरानी गलतियों को दोहरा रहे हैं,
हम पंजाब में पुरानी गलतियों को दोहरा रहे हैं, उग्रवाद का दौर भिंडरांवाले के पदार्पण से नहीं शुरू हुआ
पिछले कुछ दिनों में अमृतपाल सिंह के समर्थकों द्वारा पंजाब के अजनाला पुलिस थाने पर हमले के जो दृश्य सामने आए हैं, वे अगर हमें झटका नहीं पहुंचाते तो साफ है कि हम देशहित से जुड़े महत्वपूर्ण मसलों के प्रति कितने उदासीन और आलसी हो गए हैं। उन लोगों ने पाकिस्तान की सीमा से सटे उस क्षेत्र के पुलिस थाने को तहस-नहस कर दिया, जिसे आप संवेदनशील क्षेत्र कह सकते हैं।
भीड़ ने अपने एक आदमी को रिहा करने पर सरकार को मजबूर कर दिया, जिसे अपहरण के मामले में गिरफ्तार किया गया था। अमृतसर के पुलिस प्रमुख के उस वीडियो को देखिए, जिसमें वे कह रहे हैं कि प्रदर्शन करने वालों ने साबित कर दिया कि गिरफ्तार आदमी के खिलाफ आरोप फर्जी हैं, इसलिए पुलिस एफआईआर वापस ले रही है।
1978 के बाद के उग्रवाद के दौर में हम पंजाब पुलिस को इस तरह आत्मसमर्पण करते देख चुके हैं। लेकिन तब वह परेशान और लाचार दिखती थी। आज तो वह बड़ी राहत महसूस करती, बेबाक लहजे से पेश आती दिख रही है। यह उस राज्य में हो रहा है, जिसमें कभी साइकिल चोरी के फर्जी आरोप के साथ दायर एफआईआर को आरोपित व्यक्ति की मौत होने तक खारिज करवाना असंभव था।
तीन दशकों तक तो नहीं ही संभव था, जब तक किसी सरकार ने दिहाड़ी पर चल रही वीपी सिंह सरकार की तरह अपने गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की अपहृत बेटी रुबैया सईद को छुड़ाने के एवज में गिरफ्तार आतंकवादियों को रिहा करके घुटने टेकने का प्रदर्शन नहीं किया था।
जरा सोचिए, तलवारों और बंदूकों से लैस एक भीड़ देश की सीमा पर स्थित बड़े पुलिस थाने पर हमला बोल देती है, गिरफ्तार संदिग्ध शख्स को रिहा कर दिया जाता है, और इसके बाद सरकार कहती है कि ‘खेद है, हमने गलती की’। इस सबके बाद भी अगर आप सोचते हैं कि इसका कोई नतीजा सामने नहीं आएगा, तो आप बड़े नादान हैं।
आगे चलकर कुछ न हो और मैं गलत साबित हो जाऊं तो मुझे बड़ी खुशी होगी। लेकिन क्रूर सच्चाई यह है कि हम पंजाब के बीते बुरे दौर की गलतियां दोहरा रहे हैं। सरकार ने, चाहे वह पंजाब की हो या केंद्र की, अभी तक यह नहीं कहा है कि स्थिति नाजुक है। इससे पहले ऐसा हमने 1978 से 1993 के बीच देखा। वह मानो कभी खत्म न होने वाली ‘हॉरर फिल्म’ जैसा था। उसने मुख्यतः हिंदू और सिख समेत सभी समुदायों के हजारों लोगों को लील लिया, अनगिनत हत्याएं हुईं, विवादास्पद फौजी कार्रवाई ऐसे पैमाने पर हुई, जैसी पहले कभी नहीं देखी गई थी।
साम्प्रदायिक तनाव बढ़ा और एक पूरी पीढ़ी ने अलगाव को झेला। सामान्य स्थिति की ओर लौटने में 15 साल लग गए। आज बहुत कुछ वैसी ही स्थिति लग रही है, जैसी 1978 में 13 अप्रैल को बैसाखी वाले दिन थी। उस दिन अमृतसर में निरंकारियों की एक सभा में प्रदर्शन कर रहे भिंडरांवाले के समर्थकों पर गोलियां चलाई गई थीं, काफी खूनखराबा और मौतें हुई थीं।
मैं आपको बता दूं कि तब और अब में फर्क क्या है। भिंडरांवाले ने ‘खालिस्तान’ शब्द का कभी प्रयोग नहीं किया था, कभी नहीं। कई पत्रकारों ने उनका इंटरव्यू लिया, खुद मैंने 1983-84 में बीस से ज्यादा बार बातचीत की लेकिन उन्होंने कभी यह शब्द नहीं बोला।
वास्तव में, अंतिम बार जब मैंने अकाल तख्त में उन्हें उनके प्रमुख साथियों के साथ देखा था, जब सेना ने ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ के तहत मंदिर परिसर को घेरना शुरू किया था तब भी उन्होंने अलग देश की मांग नहीं की थी। अपने अंतिम सप्ताहों में, जब तनाव बढ़ रहा था और फौजी कार्रवाई अपरिहार्य दिख रही थी, तब उन्होंने तेवर बदल लिया था, फिर भी शब्दों का सोच-समझकर इस्तेमाल किया था।
हम अक्सर पूछते थे कि क्या वे खालिस्तान चाहते हैं? या इस मांग के बारे में उनका विचार क्या है? वे शरारत भरी मुस्कान के साथ जवाब देते कि ‘मैंने कभी खालिस्तान की मांग नहीं की लेकिन बीबी (इंदिरा गांधी) ने मुझे यह दे दिया तो मैं ना नहीं कहूंगा।’ लेकिन अमृतपाल सिंह तो पहले दिन से ही खालिस्तान की बात कर रहे हैं।
बेशक वह इसे केवल आत्म निर्णय के अधिकार की मांग के रूप में बोलते हैं और इसे किसी का भी लोकतांत्रिक अधिकार बताते हैं। इसके बाद वे यह भी कहते हैं कि अगर अमित शाह कहते हैं कि वे ‘खालिस्तान मूवमेंट’ को कुचल देंगे तो पहले याद कर लें कि इंदिरा गांधी का क्या हश्र हुआ था।
आजादी के बाद के पंजाब का इतिहास यही बताता है कि जब भी उसे कमजोर नेतृत्व मिला यानी ऐसा नेता जिसकी डोर दिल्ली के हाथ में हो और जो सिख धार्मिकता को अपने राजनीतिक दायरे में नहीं समेट पाया, तब-तब यह राज्य संकट में घिरता रहा। पंजाब में ‘कमजोर’ की परिभाषा कुछ अलग है।
वहां इसे निर्वाचित सरकार के बहुमत से नहीं आंका जाता। ऐसा होता तो आज कोई समस्या नहीं होती। इस राज्य को मुख्यमंत्री के रूप में ताकतवर हस्ती चाहिए। सत्ता किस पार्टी के हाथ में है, इससे खास फर्क नहीं पड़ता। 1965 में जीटी रोड पर सोनीपत के पास पूर्व सीएम प्रताप सिंह कैरों की हत्या कर दी गई, जब वे चंडीगढ़ जा रहे थे।
पंजाबीभाषियों के लिए अलग सूबे की जो मांग दबी हुई थी, वह फिर उभर आई। 1966 में राज्य का विभाजन कर दिया गया। कुछ समय शांति रही, जब तक 1972 में ज्ञानी जैल सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार ने बागडोर नहीं संभाली। वे ऐसे घोर धार्मिक सिख की तलाश करने लगे, जो शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी में अकाली दल को परेशान करे। इस तरह भिंडरांवाले को ढूंढ निकाला गया। इसके बाद की कहानी हम सबको पता है।
उग्रवाद का एक नया उभार
पंजाब को मजबूत नेता चाहिए, जिसकी सियासत सिख धार्मिकता को समेटकर चले। आज हम शांति के उस दौर में हैं, जिसमें अकाली दल भी आनंदपुर साहिब प्रस्ताव की बात नहीं कर रहा है। इस मुकाम पर आकर हम एक ऐसे शख्स को उभरता देख रहे हैं, जो अपनी बात खालिस्तान की मांग से शुरू करता है। क्या हम उग्रवाद के इस नए उभार को स्कूलों और अस्पतालों के बूते रोक सकते हैं?