देश को दरकार है संवेदनशील शिक्षण संस्थानों की …!

शिक्षा: आत्महत्या की घटनाओं की वजह बढ़ती असमानता, समानुभूति के स्तर में गंभीर गिरावट …

भारत में जाति व अन्य भेदभाव जनित समस्याएं इतनी जल्दी दूर होने वाली नहीं हैं, फिर भी कड़े संदेशों और उनकी पुनरावृत्ति इसका समाधान कर सकती है। इस मायने में जस्टिस चंद्रचूड़ का संबोधन महत्त्वपूर्ण है।

प्र धान न्यायाधीश डी.वाइ. चंद्रचूड़ ने दलित व आदिवासी छात्रों के आत्महत्या के मामलों को लेकर उच्च शिक्षा संस्थानों के हालात पर सही समय पर महत्त्वपूर्ण टिप्पणी की है। एक घटना 12 फरवरी की आइआइटी मुंबई की है, जिसमें दलित छात्र ने आत्महत्या कर ली थी तो दूसरी घटना गत वर्ष एनएलयू, उड़ीसा की है, जिसमें एक आदिवासी छात्र ने आत्महत्या कर ली थी। हैदराबाद स्थित नेशनल एकेडमी ऑफ लीगल स्टडीज एंड रिसर्च (नालसार) यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ में 19वें दीक्षांत समारोह को संबोधित करते हुए सीजेआइ ने कहा, ‘वंचित समुदायों के छात्रों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं आम होती जा रही हैं। ये आंकड़े मात्र नहीं हैं, ये सदियों के संघर्ष को बयां करने वाली कहानियां हैं।’

सीजेआइ ने कहा हमें संवेदनशील संस्थानों की जरूरत है बजाय प्रतिष्ठित संस्थानों के। राष्ट्रीय स्तर पर यह बहस होनी चाहिए कि आधुनिक भारत में शिक्षा की भूमिका क्या हो? क्यों भारतीय शिक्षा व्यवस्था ऐसे स्नातक तैयार करने में विफल हो गई जो समता और समानता जैसे सिद्धांतों के बारे में जानने के साथ सेवा, समुदाय एवं मूल्यों से भी भली-भांति अवगत हों। स्पष्टत: कहा जाए तो मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में प्रतिष्ठा तो वैसे भी संदेह के घेरे में है, क्योंकि हर साल खास तौर पर तकनीकी शिक्षा के उच्च संस्थानों से डिग्री लेकर निकलने वाले स्नातक कितने तैयार हैं इस पर कितने ही सवाल उठाए जाते रहे हैं। आइआइटी संस्थानों की बात करें तो ये भारत में विज्ञान शिक्षा के प्रति सकारात्मक माहौल बनाने की जमीन तैयार करने की जिम्मेदारी पर खरे नहीं उतरे हैं और जांच से बचते आ रहे हैं। इन संस्थानों से उत्तीर्ण कई स्नातक सीधे अमरीका की उड़ान पकड़ते नजर आते हैं। इसका उद्देश्य अक्सर तो वहां नौकरी पाना होता है, और उद्यमिता तो कभी-कभार ही।

अर्थशास्त्री अशोक मोदी ने अपनी किताब ‘इंडिया इज ब्रोकन’ में लिखा है कि आइआइटी व अन्य प्रतिष्ठित संस्थान अव्यवस्थाओं के शिकार हो चुके हैं। आइआइटी स्नातक मोदी लिखते हैं: ‘अमीर भारतीय और वरिष्ठ लोक सेवक अपने बच्चों को विशेष निजी उच्च स्कूलों में शिक्षा के लिए भेजते हैं, जहां से वे विश्वविद्यालयी शिक्षा के लिए या तो विदेश चले जाते हैं या फिर किसी कला महाविद्यालय, आइआइटी और सर्वश्रेष्ठ मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश ले लेते हैं। इसके बाद वे लोकसेवाओं में चले जाते हैं, निजी क्षेत्र की उच्च वेतन वाली नौकरियां करते हैं या फिर विदेशों में काम करते हैं।’ इसका अर्थ है कि ‘लाखों भारतीय प्रतिभाएं सामने नहीं आ पातीं और सर्वश्रेष्ठ भारतीय संस्थान व्याख्याताओं व फंड की कमी से जूझ रहे हैं, जैसे इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, जिसे कभी ‘पूर्व का ऑक्सफोर्ड’ कहा जाता था। पिछले कुछ सालों में नौकरियों के और भी अवसर खुले हैं, पर मोदी ने जिस असंतुलन का जिक्र किया है, वह ठीक होने की बजाय बिगड़ा ही है।

सीजेआइ की पीड़ा इसी व्यवस्था को लेकर सामने आई है और उनका यह कथन खास तौर पर उपयोगी है कि समानुभूति वाले संवेदनशील संस्थान चाहिए न कि केवल प्रतिष्ठित। मौजूदा दौर में समानुभूति की अनदेखी कर हम मानवता को मार रहे हैं और वाकई में हर उस प्रगतिशील और मूल्यवान चीज को भी, जो कि कल के भारत की पहचान होनी चाहिए। प्रतिष्ठित वर्ग का विचार समानुभूति की अवधारणा के प्रतिकूल है। समानुभूति सामने वाले के दिल और दिमाग के दरवाजे खोलती है, इससे बेहतर जांच में मदद मिलती है, अधिक खुलापन आता है और मानवता का खोया हुआ तत्व मिलता है और वैज्ञानिक प्रयासों का मूल्य बढ़ता है। इसके अभाव में उन्माद, फोकस की कमी और ऐसे समाधान की प्रवृत्ति बढ़ जाती है जो बीमारी से अधिक खराब है। सेज इनसाइक्लोपीडिया ऑफ एक्शन रिसर्च के अनुसार, ‘जो समाज अतिसंवेदनशील सदस्यों की आवश्यकताएं समानुभूति के साथ पूरी करते हैं, वे सभी के लिए अच्छे हैं। आंकड़े बताते हैं कि जब समाज में समानुभूति का स्तर कम हो जाता है, हिंसा व आर्थिक असमानता बढ़ जाती है, समाज में अस्थिरता आने लगती है, स्वास्थ्य परिदृश्य बिगड़ जाता है व शिक्षा व्यवस्था के मूल्यों में ह्रास होने लगता है।’ दुर्भाग्य की बात है कि आम भारतीय बातचीत के दौरान जिस भाषा का प्रयोग करते हैं, उसमें सत्ता, नियंत्रण, विकास, आत्मविश्वास और ‘कामयाबी’ जैसे शब्द हावी रहते हैं जबकि लोगों की वास्तविकता और उनकी चिंताएं अनदेखी रह जाती हैं।

सीजेआइ चंद्रचूड़ ने अपने संबोधन में ध्यानाकर्षित किया कि कोई ऐसी वजह नहीं है कि छात्रों को उनके प्राप्तांकों के आधार पर छात्रावास आवंटित किए जाएं या रिजल्ट और ग्रेड की गणना इस तरह की जाए कि छात्रों का एक वर्ग स्वयं को कमतर समझे। शिक्षण संस्थानों और कार्यस्थलों पर अनादर झेलने की कोई वजह नहीं है। इन विकृतियों पर लिखित आचार संहिता के माध्यम से अंकुश लगाया जा सकता है। भारत में जाति व अन्य भेदभाव जनित समस्याएं इतनी जल्दी दूर होने वाली नहीं हैं, फिर भी कड़े संदेशों और उनकी पुनरावृत्ति इसका समाधान कर सकती है। इस मायने में जस्टिस चंद्रचूड़ का संबोधन महत्त्वपूर्ण है।

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