वयस्क बच्चों को अपने माता-पिता के घर में रहने का कोई कानूनी अधिकार नहीं होता है
वयस्क बच्चों को अपने माता-पिता के घर में रहने का कोई कानूनी अधिकार नहीं होता है
क्या आपके पैरेंट्स आपको घर से निकाल बाहर कर सकते हैं? वे बिलकुल वैसा कर सकते हैं, खासतौर पर तब, जब आप अठारह साल से अधिक उम्र के हों। उसमें भी विशेषकर तब, जब आप कुंआरी लड़की न हों। इसके लिए उन्हें डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट या डिप्टी कमिश्नर को एक साधारण-सा पत्र लिखना होगा।
इतने भर से एक पिता हिंसक या बुरा व्यवहार करने वाले बेटे, बेटी या बहू, नाती-पोतों को अपनी विरासत से बेदखल कर सकता है। हर दिन भारतीय अदालतें वरिष्ठजनों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के मामलों का सामना करती हैं। वर्तमान में इस तरह के लम्बित मामलों की संख्या दो करोड़ 20 लाख से भी अधिक हो चुकी है।
हेल्पएज इंडिया के एक सर्वेक्षण के मुताबिक यहां पर परिवार ही दुर्व्यवहार के लिए प्रमुखतया जिम्मेदार होता है। इसके अनुसार आज 33 प्रतिशत वरिष्ठजनों को अपने बेटों और 21 प्रतिशत को बहुओं की प्रताड़ना का शिकार होना पड़ रहा है। यह सर्वेक्षण केवल देश के मध्यवर्ग पर केंद्रित था। इसमें यह भी पाया गया कि 2 प्रतिशत ऐसे वरिष्ठजन थे, जिनके साथ घर में काम करने वाले सहायकों के द्वारा बुरा बर्ताव किया जाता है।
आज भारत में बुजुर्गों की संख्या तेजी से बढ़ रही है और कुल आबादी के 8.5 प्रतिशत लोग 60 से अधिक आयु वाले हो गए हैं। लेकिन अधिकतर बुजुर्गों को सीनियर सिटीजन्स को प्राप्त अधिकारों के बारे में जानकारी नहीं है। उन्हें यह पता नहीं होता है कि अगर उनके साथ घर में अनुचित व्यवहार किया जाता है तो इसके विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए उचित मंच कौन-सा है, कौन-से विधायी विकल्प अपनाए जा सकते हैं और एक अभिभावक के रूप में संविधान ने उन्हें कौन-कौन-से अधिकार दिए हैं।
कानून के मुताबिक एक पिता केवल अपने नाबालिग बच्चों के भरण-पोषण के लिए जिम्मेदार है। अगर उसकी बेटी वयस्क होने के बावजूद अविवाहित है और वह उसके भरण-पोषण का बंदोबस्त नहीं कर पाता है तो उसके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई की जा सकती है।
हालांकि बालिग हो चुके बेटे या विवाहित बेटी के परिवार की उस पर कोई भी जिम्मेदारी नहीं होती है। लेकिन अगर बेटा यह साबित कर देता है कि उसके पैसों या फंड्स का पिता के द्वारा अपनी सम्पत्ति बनाने के लिए उपयोग किया गया है तो ऐसे में पिता अपने बेटे के हिस्से से उसे वंचित नहीं कर सकता।
पिता बेटे के पैतृक सम्पत्ति सम्बंधी अधिकारों में भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता। जहां माता-पिता अपने बेटे के कर्जों को चुकाने के लिए बाध्य नहीं हैं, वहीं सरकार ने यह कानून जरूर बनाया है कि बच्चे उनके रखरखाव और देखभाल की जिम्मेदारी लें।
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 का अनुच्छेद 125 यह सुनिश्चित करवाता है कि अगर विशेषकर वरिष्ठ नागरिक मां-पिता अपना रखरखाव खुद करने में अक्षम हों तो बच्चे उनका ध्यान रखें। लेकिन बच्चों के प्रति प्यार और लगाव के चलते पैरेंट्स विरले ही कभी उनके खिलाफ मामला दर्ज कराते हैं। उन्हें कानूनी प्रक्रियाओं में होने वाले खर्चों की भी चिंता रहती है।
भारतीय सामाजिक प्रणाली ही कुछ ऐसी है कि बच्चों को लगता है वे जीवन में कुछ करें या न करें, मां-पिता की सम्पत्ति एक सुरक्षा-कवच की तरह उनकी रक्षा करेगी। लेकिन अगर कोई अभिभावक अपने बच्चे की विरासत को समाप्त करते हैं तो अदालतें अमूमन इसके कारणों की समीक्षा करती हैं। अभिनेत्री सारिका हासन को उनकी मां के द्वारा अपनी विरासत से बेदखल कर दिया गया था।
गुजरात में पीपला के प्रिंस मानवेंद्र को समलैंगिक सम्बंधों के कारण सम्पत्ति से बेदखल कर दिया गया था। वे नैतिक आधार पर इसे चुनौती दे सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। 2002 में एक पिता ने अपने पुत्र के विरुद्ध मामला दर्ज कराया, क्योंकि उसने उनकी मर्जी के बिना अंतर्जातीय विवाह कर लिया था।
अदालत ने तुरंत इस अर्जी को अनुचित बताते हुए निरस्त कर दिया था। पर मोटे तौर पर अदालत का यही मानना रहता है कि वयस्क बच्चे अपने माता-पिता के घर में लाइसेंसी की तरह होते हैं, लेकिन उन्हें वहां रहने का कोई कानूनी अधिकार नहीं होता।
अधिकतर बुजुर्गों को सीनियर सिटीजन्स के अधिकारों के बारे में जानकारी नहीं होती है। उन्हें पता नहीं होता कि घर में उनके साथ अनुचित व्यवहार किए जाने पर कार्रवाई करने के लिए उचित मंच कौन-सा है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं।)