बच्चों में सिंथेटिक ड्रग्स की लत …!
ड्रग्स के खिलाफ अमित शाह का अभियान …….
5 इशारों से समझें बच्चे इसकी चपेट में ….
7 स्टेप में लगती है नशे की लत ……
“मम्मी-पापा से जो मांगा, हमेशा सब मिला। नहीं मिला तो उनका वक्त। पापा बिजनेस ट्रिप पर तो मम्मी ऑफिस में बिजी। घर में कोई बात तक करने वाला न मिलता। धीरे-धीरे यह अकेलापन परेशान करने लगा। मैं डिप्रेशन में रहने लगा।
जो दोस्त बनाए, उन्होंने पहले सिगरेट का कश खींचना सिखाया, फिर ड्रग्स की लत लगा दी। अब बिना इसके जीना मुश्किल हो गया है। ड्रग्स न मिले तो पूरी बॉडी में इतना दर्द होता है कि जैसे जान चली जाएगी। मम्मी-पापा के सामने तक जाने की हिम्मत नहीं होती।”
साइकेट्रिस्ट से अपनी कहानी बताते 16 साल के राहुल (बदला हुआ नाम) का दर्द उसकी आंखों से छलक जाता है। जब एक दिन वह अपने कमरे में बेसुध मिला, तो पेरेंट्स उसे लेकर अस्पताल भागे। जहां उसके ड्रग्स के शिकंजे में फंसने की बात पता चली और उसका इलाज शुरू हुआ।
यह कहानी सिर्फ राहुल की नहीं है। देश में 8 से 12 साल की उम्र के करोड़ों बच्चे हेरोइन, गांजा, अफीम और सिंथेटिक ड्रग्स जैसे नशे की चपेट में हैं। पंजाब के साथ ही UP, MP, हरियाणा जैसे राज्यों मे यह संख्या तेजी से बढ़ रही है। सिंथेटिक ड्रग्स टीनेजर्स के बीच स्टेटस सिंबल बनता जा रहा है।
ड्रग्स की लत कितनी खतरनाक और जानलेवा हो सकती है, UP के उन्नाव की यह घटना इसका सबूत है…
कोरोना काल में UP के उन्नाव में 17 साल के संजय (बदला नाम) ने अपनी मां के कुल्हाड़ी से टुकड़े-टुकड़े कर दिए। वजह, संजय शराब और सिंथेटिक ड्रग्स की लत का शिकार था। मां उसे नशा करने से रोकती थी। एक दिन नशा करने के लिए उसने मां से पैसे मांगे। उन्होंने उसे रोका तो वह आपा खो बैठा और मां की जान ले ली।
‘गुंजन ऑर्गेनाइजेशन’ के फाउंडर संदीप परमार कहते हैं कि छोटे नशे से शुरुआत के बाद बच्चा धीरे-धीरे बड़े नशे की तरफ बढ़ता जाता है। खैनी, गुटखा, सिगरेट, शराब, जैसी चीजें ड्रग्स के गेटवे के तौर पर काम करती हैं।
बच्चों में ड्रग्स की लत की 7 स्टेज होती हैं। समय रहते इन पर ध्यान दिया जाए तो उन्हें बचाया जा सकता है…
बच्चों और युवाओं में नशे की गंभीरता को देखते हुए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह अमृतसर से नशा मुक्ति यात्रा शुरू करने वाले हैं। दूसरी पार्टियां भी लंबे समय से पंजाब में नशे को मुद्दा बनाती रही हैं। अब खलिस्तान समर्थक अमृतपाल भी इस मुद्दे को उठा रहे हैं और राज्य को ड्रग्स फ्री बनाने का दावा कर रहे हैं।
10 साल में 50% बढ़ी नशे के शिकार बच्चों की संख्या, पेन किलर, गांजा, अफीम, हेरोइन और सिंथेटिक कॉमन ड्रग्स
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के मुताबिक बीते एक दशक में नशे के शिकार बच्चों की संख्या 50 फीसदी तक बढ़ गई है। जहां सड़क पर रहने वाले और गरीब बच्चे बाम, फेविकोल, पेंट, पेट्रोल जैसी चीजों से नशा कर रहे हैं, वहीं परिवारों में रहने वाले बच्चों को हेरोइन, अफीम, गांजा, पेन किलर से लेकर सिंथेटिक ड्रग्स तक आसानी से मिल रही हैं।
शहरों में रहने वाली न्यूक्लियर फैमिली के बच्चों पर नशे का खतरा तेजी से बढ़ रहा है…
अमृतसर के गर्वनमेंट मेडिकल कॉलेज (GMC) की रिपोर्ट बताती है कि बड़ों की तुलना में ड्रग एब्यूज के मामले बच्चों और किशोरों में ज्यादा देखने को मिलते हैं, जिसमें पेन किलर, गांजा से लेकर सिंथेटिक ड्रग्स तक शामिल हैं।
आखिर यह सिंथेटिक ड्रग्स क्या हैं, आगे बढ़ने से पहले यह भी जान लें…
मेट्रो हॉस्पिटल, नोएडा की वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. अवनि तिवारी बताती हैं कि ड्रग्स मुख्य तौर पर 2 तरह के होती हैं- नेचुरल और सिंथेटिक। पौधों से सीधे हासिल होने वाली ड्रग्स- भांग, अफीम, चरस नेचुरल ड्रग्स कहलाती हैं। जबकि, सिंथेटिक ड्रग्स फैक्ट्री या लैब में बनती हैं, जिनमें अलग-अलग केमिकल मिलाकर, उसे प्रोसेस किया जाता है।
100 फीसदी शुद्ध गांजे या अफीम जैसी नेचुरल ड्रग्स से एक लिमिट तक ही नशा होगा। जबकि, सिंथेटिक ड्रग्स में नशे की ताकत को बढ़ा-घटा सकते हैं। उसका असर कैसा होगा, यह भी कंट्रोल हो सकता है। ‘म्याऊं-म्याऊं’ और ‘MD’ जैसे नामों से टीनेजर्स के बीच पॉपुलर मेफेड्रोन के साथ ही केटामाइन और मेफेड्रोन जैसी सिंथेटिक ड्रग्स का पार्टियों में इस्तेमाल होता है।
ड्रग्स बच्चे के दिमाग को नुकसान पहुंचाती हैं, नशीली दवाओं और सिंथेटिक ड्रग्स का असर अलग-अलग
डॉ. राजीव मेहता के मुताबिक ड्रग्स दिमाग पर जहरीला असर छोड़ती हैं, जो फेफड़ों और ब्रेन को नुकसान पहुंचाता है। अमेरिकी स्वास्थ्य विभाग की समिति CDC के मुताबिक 25 साल की उम्र तक दिमाग का विकास होता है। ड्रग्स और निकोटिन ब्रेन के सेल्स को जोड़ने वाले साइनेप्स को डैमेज करते हैं।
डॉ. अवनि के मुताबिक जिन दवाओं को नशे के लिए इस्तेमाल किया जाता है, उनमें और सिंथेटिक ड्रग्स में भी अंतर है। दवा रिसर्च के बाद बनती है, जिसमें देखा जाता है कि इलाज के दौरान उसका कितना और कैसा असर होगा, शरीर और दिमाग कितनी देर तक प्रभावित होकर शिथिल रहेगा, कहीं दवा की लत तो नहीं पड़ेगी। अगर नशे के लिए उसके गलत इस्तेमाल का खतरा लगता है, तो उस दवा को सरकार से मंजूरी नहीं मिलती।
महंगे सिंथेटिक ड्रग्स खरीदने के लिए बच्चे धीरे-धीरे अपराध की दलदल में फंसते जाते हैं…
सिंथेटिक ड्रग्स की ओवरडोज के आगे डॉक्टर भी लाचार
दवाओं से आमतौर पर ज्यादा नींद आती है, नशा नहीं होता। लेकिन, इनके गलत इस्तेमाल के खतरनाक साइड इफेक्ट्स जरूर होते हैं। नींद की हर गोली पर क्वॉलिटी कंट्रोल होता है, लेकिन गैरकानूनी तरीके से बनने वाली सिंथेटिक ड्रग्स जहरीली हो सकती हैं।
सिंथेटिक ड्रग्स बनाते समय ये नहीं देखा जाता कि ड्रग्स की ओवरडोज का असर कैसा होगा। इसलिए कई बार जब कोई ओवरडोज का शिकार होता है, तो डॉक्टर्स को भी पता ही नहीं चल पाता कि उसका इलाज कैसे किया जाए।
पंजाब में 75 फीसदी बच्चे ड्रग्स की चपेट में, यूपी-एमपी में भी समस्या
पंजाब के करीब 75 फीसदी बच्चे ड्रग्स की चपेट में आ चुके हैं। यूपी, एमपी, हरियाणा जैसे राज्यों के 8 से 17 साल के बच्चे भी गांजा, भांग, अफीम से लेकर शराब और ड्रग्स तक का नशा कर रहे हैं। देश में हर साल 2 करोड़ से ज्यादा बच्चे तो सिर्फ तंबाकू और सिगरेट की लत के शिकार हो जाते हैं। GMC ने अपनी एक रिसर्च में बताया कि पंजाब में 9वीं क्लास में पहुंचने तक देश के 50 फीसदी स्टूडेंट्स कोई न कोई नशा आजमा चुके होते हैं।
देशभर में सूंघकर किए जाने वाले नशे से बुरी तरह जकड़े 10 से 17 साल के 4.6 लाख बच्चों को तुरंत इलाज की दरकार है। यानी ये गंभीर स्टेज में पहुंच चुके हैं…
पेरेंट्स के जींस भी जिम्मेदार, शोषण, हिंसा और तनाव बच्चों में नशे की वजह
जर्नल लीगल सर्विस इंडिया के मुताबिक, भारत के 75 फीसदी परिवारों में कम से कम कोई एक व्यक्ति किसी न किसी तरह का नशा करता है। अमेरिका की साइकेट्रिस्ट केनेथ केंडलर ने अपनी रिसर्च में पाया कि नशे की लत की वजह अनुवांशिक भी हो सकती है। पेरेंट्स से मिले DRD2 जैसे जींस के साथ ही अगर आसपास नशा करने वाले लोग हों और पेरेंट्स ध्यान न दें तो बच्चों के ड्रग्स की चपेट में आने का खतरा बढ़ जाता है।
केनेथ केंडलर के मुताबिक अगर मां-बाप ड्रग्स लेते हैं, तो बच्चों के ड्रग एडिक्ट बनने की आशंका 8 गुना ज्यादा होती है। नेशनल ड्रग्स डिपेंडेंस ट्रीटमेंट सेंटर के मुताबिक 60 फीसदी से ज्यादा बच्चों ने तनाव और एंग्जाइटी से राहत पाने के लिए और 30 फीसदी ने दोस्तों के दबाव में नशा करना शुरू किया, फिर उन्हें इसकी लत पड़ गई।
कम्यूनिकेशन गैप और पेरेंट्स-स्कूल का बिहेवियर बच्चों को ले जाता है गलत रास्ते पर
‘गुंजन ऑर्गेनाइजेशन’ के फाउंडर संदीप परमार बताते हैं कि अगर बच्चा स्कूल में सिगरेट पीता पकड़ा जाए तो उसे समझाने की जगह सख्त सजा और स्कूल से निकालने की धमकी दी जाती है। ऐसी सख्ती उसे नशे की तरफ धकेलती है। जब बच्चा शराब या ड्रग्स के बारे में घर में पूछता है तो पेरेंट्स बच्चे की उत्सुकता को शांत करने की बजाए उसे डांटकर चुप करा देते हैं।
यह बर्ताव बच्चे को जवाब तलाशने के लिए खुद एक्सपेरिमेंट करने, दोस्तों की तरफ या इंटरनेट की ओर ले जाता है। परिवार में बिखराव, घर में कलह, हिंसा और तनाव का माहौल, फैमिली में अटेंशन और प्यार की कमी भी बच्चों को ड्रग एब्यूज की तरफ धकेलती है।
अगर पेरेंट्स ड्रग्स की लत के लक्षणों पर ध्यान दें तो शुरुआती फेज में ही बच्चों को इसके शिकंजे से बचाया जा सकता है…
इन जगहों पर बच्चे छिपाते हैं ड्रग्स
डॉ. राजीव कहते हैं कि अगर लगे कि बच्चा नशा कर रहा है तो सबसे पहले उसके साथ बैठकर बात करें। वह न बताए तो उसके सामान को चेक करें और यूरिन टेस्ट करवाएं।
आमतौर पर बच्चे बैग, पर्स, मार्कर, पेन, किताबों, किताब और मोबाइल कवर, गेमिंग कंसोल, शर्ट की आस्तीन, मोजे, जूते और उनके डिब्बे, सोडा और कोल्ड ड्रिंक कैन, स्नैक्स के डिब्बे, कैंडी रैपर, डियोडरेंट स्टिक, लिप बॉम और लिप्स्टिक जैसे मेकअप के सामान, पोस्टर और फोटो फ्रेम के पीछे, डेकोरेटिव आइटम्स, कमोड के वॉटर टैंक और पाइप, एयर वेंट और दवाओं के बॉक्स में ड्रग्स छिपाकर रखते हैं।
95 फीसदी से ज्यादा मामलों में दोबारा पड़ जाती है ड्रग्स की लत
संदीप परमार कहते हैं कि पूरी दुनिया में रिलैप्स रेट बहुत हाई है। 95 फीसदी से ज्यादा मामलों में ड्रग्स की तरफ दोबारा लौटने का डर बना रहता है। इसकी वजह है फैमिली का डि-एडिक्शन और काउंसलिंग प्रोसेस में शामिल न होना। घरवाले सेंटर के डॉक्टर्स पर पूरी जिम्मेदारी छोड़ देते हैं और यह ध्यान नहीं देते कि इलाज के दौरान और इलाज के बाद उन्हें बच्चे के साथ कैसा बर्ताव करना है।
अगर बच्चा 10 मिनट के लिए भी नजरों से ओझल होता है, तो उसे खोजने में जुट जाते हैं। ऐसा बर्ताव करते हैं, जैसे वह अपराधी हो। बच्चों के इलाज के दौरान पेरेंट्स को भी बहुत कुछ सीखने और समझने की जरूरत होती है। उन्हें भी बच्चे के प्रति अपना स्वभाव और नजरिया बदलना चाहिए।
बच्चों को नशे की लत से बचाने के लिए एक्सपर्ट इन तरीकों का इस्तेमाल करते हैं…
डॉ. अवनि के मुताबिक इलाज के प्रोसेस में मरीज को थेरेपीज और दवाओं के साथ उसकी काउंसलिंग की जाती है। रिहैबिलिटेशन प्रक्रिया भी की जाती है। सोशल सपोर्ट भी दिया जाता है। नशा करने वालों का एटीट्यूड हमेशा डिफेंसिव होता है। वे खुद को बचाते हैं, बहाने बनाते हैं। बहुत कम गलती मानते हैं। हालांकि वो जानते हैं कि उन्होंने कुछ गलत किया है।
नशे के खिलाफ तिहरी जंग लड़ रहे पुनर्वास केंद्र
संदीप परमार बताते हैं कि ‘नेशनल एक्शन प्लान फॉर ड्रग डिमांड रिडक्शन’ (NAPDDR) के तहत नशे के खिलाफ जंग के तरीके बदले गए हैं। सरकार की पहल पर पुनर्वास केंद्र खोले गए हैं। जहां 3 चीजों पर फोकस है:
1- नशे से बचाव
नशे के खिलाफ सोशल जागरुकता कार्यक्रम चलाए जाते हैं और नेटवर्क तैयार किया जाता है।
2- इलाज
ड्रग एडिक्ट और उसकी फैमिली की फार्माकोथेरेपी और साइकोसोशल काउंसलिंग की जाती है। मेडिकल टीम मरीज का डिटॉक्सिफिकेशन करती है। मरीजों की लाइफस्टाइल को एंटरटेनमेंट, योग, खेल से क्रिएटिव बनाया जाता है, ताकि वे शारीरिक और मानसिक तौर पर एक्टिव रहें।
3- पुनर्वास
मरीज को समाज की मुख्य धारा से जोड़ने और उसकी स्किल्स को निखारने के लिए ट्रेनिंग दी जाती है। नशे की तरफ लौटने से कैसे बचना है, इस पर जोर दिया जाता है। मरीज के सेंटर से डिस्चार्ज होने पर टीम मरीज के घर जाकर फॉलोअप भी करती है।
अगर साइकेट्रिस्ट की बात पर ध्यान न दिया जाए, तो बच्चे को नशे से बचाना मुश्किल हो जाता है…
बच्चा नशे की चपेट में आए तो माता-पिता साइकेट्रिस्ट की इन टिप्स का ध्यान रखें…
- बच्चे के साथ क्वालिटी टाइम बिताएं, जरूरत से ज्यादा टोका-टाकी और परफेक्शन की उम्मीद न करें।
- घर में माहौल मारपीट और गुस्से से भरा न हो।
- खुद नशे से दूर रहकर बच्चों के सामने खुद को रोल मॉडल बनाएं।
- नशे का शिकार बच्चे के साथ शांति से बैठकर बात करें।
- बच्चे को काउंसलर या साइकेट्रिस्ट के पास ले जाएं।
- बच्चे को यह भरोसा दें कि आप हर हाल में उसके साथ हैं।
- सही-गलत का अंतर समझाएं।