आज देश के मतदाताओं पर सबसे ज्यादा प्रभाव राष्ट्रवाद के मसले का पड़ रहा है

हम भारतीय राजनीति में एक दुर्लभ क्षण के गवाह बन रहे हैं, जिसमें सत्तारूढ़ पार्टी ने संसद में गतिरोध उत्पन्न कर रखा है। वह राहुल गांधी से मांग कर रही है कि वे लंदन में कहे गए अपने कथित आपत्तिजनक कथनों के लिए क्षमायाचना करें।

जब तक राहुल माफी नहीं मांगेंगे, संसद नहीं चलने दी जाएगी। दूसरी तरफ विपक्षी दल संसद के बाहर आंदोलन कर रहे हैं और अदाणी मामले पर संयुक्त संसदीय समिति के गठन की मांग कर रहे हैं। उनका आरोप है कि प्रधानमंत्री के द्वारा गौतम अदाणी को अत्यधिक लाभ पहुंचाए गए, जिनके चलते एलआईसी जैसी कम्पनियों को खासा नुकसान हुआ है।

वहीं केंद्रीय एजेंसियां विभिन्न विपक्षी पार्टियों के नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर उनसे तफ्तीश कर रही हैं और उन्हें गिरफ्तार कर रही हैं। एजेंसियों के द्वारा जितने नेताओं से सवाल पूछे गए हैं, उन पर छापे मारे गए हैं या उन्हें जेल भेजा गया है, उनकी सूची बहुत लम्बी है। इसमें नवीनतम नाम दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया का है।

विपक्षी दल लोगों को यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि मौजूदा सरकार के द्वारा खासा भ्रष्टाचार किया जा रहा है, जिस पर अच्छी तरह से जांच-पड़ताल के लिए संयुक्त संसदीय समिति या जेपीसी का गठन करना जरूरी हो गया है।

केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल करके सरकार भी उलटे यह दिखाना चाह रही है कि खुद विपक्षी नेता भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं। लब्बोलुआब यह है कि आज भ्रष्टाचार का मुद्दा राजनीति में गर्म बना हुआ है, इसके बावजूद क्या यह 2024 के चुनाव परिणामों को प्रभावित करने वाला मसला बन सकता है? और अगर ऐसा होता है तो इसका सबसे ज्यादा फायदा किसे मिलेगा?

अतीत में कम से कम दो बार ऐसा हुआ है कि भ्रष्टाचार के मसले पर केंद्र में सरकार बदल गई है। लेकिन बीते एक दशक में देश में राजनीति का जो रंग-ढंग रहा है, उसमें अब विश्वास करना मुश्किल लगता है कि भ्रष्टाचार एक ऐसा केंद्रीय महत्व का मुद्दा हो सकता है, जो 2024 में नरेंद्र मोदी को सत्ता से बेदखल कर सकता है।

इसके तीन कारण मुझे सूझते हैं। पहला तो यह कि राजनीति अब बदल गई है। मतदाता अब राष्ट्रवाद और नेतृत्वशीलता के मुद्दे पर ज्यादा लामबंद होते हैं और यह बात नरेंद्र मोदी के पक्ष में जाती है। दूसरे, अगर लोगों में भाजपा के कथित भ्रष्टाचार या अदाणी से कथित सांठगांठ को लेकर बेचैनी की स्थिति निर्मित हुई भी तो उनमें विपक्षी पार्टियों का ट्रैक रिकॉर्ड देखकर उनसे बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद नहीं जगती।

उन्हें नरेंद्र मोदी ही किसी भी विपक्षी नेता की तुलना में ज्यादा भरोसेमंद लगते हैं। लोग मानते हैं कि प्रधानमंत्री भले हमेशा सही कदम नहीं उठाते हों, लेकिन उनकी मंशा सही रहती है और वे निजी हित के बजाय देश के कल्याण के लिए परिश्रम करते हैं।

तीसरे, लोकनीति-सीएसडीएस सर्वेक्षण के परिणाम बताते हैं कि लोगों में बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार को लेकर बेचैनी जरूर है, लेकिन हाल ही में हुए विभिन्न विधानसभा चुनावों में इन मुद्दों का कोई प्रभाव नहीं नजर आया है। इसके बजाय वोटरों पर सबसे ज्यादा प्रभाव राष्ट्रवाद के मसले का पड़ा है।

वास्तव में हाल में जितने विपक्षी नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं और उन्हें जेल भेजा गया है, उसमें अगर नरेंद्र मोदी के अदाणी से मेलजोल के आरोप प्रमाणित भी होते हैं, तो भी वे स्वयं को दूसरों की तुलना में बेहतर स्थिति में ही पाएंगे। अगर विपक्षी दल 2024 में भ्रष्टाचार को एक अहम मसला बनाने जा रहे हैं तो इससे भाजपा को चिंतित होने की कोई जरूरत नहीं मालूम होती है।

जिन 13 राज्यों में हुए चुनावों के आधार पर सर्वेक्षण के निष्कर्ष निकाले गए हैं, उनमें से 12 ऐसे थे, जिनके मतदाताओं ने कहा कि उनके राज्य में भ्रष्टाचार पहले की तुलना में बढ़ा है। इनमें से छह राज्यों में सत्तारूढ़ पार्टी ने फिर जीत दर्ज की।

इनमें उन राज्यों के वोटर शामिल थे, जिनका मानना था कि भ्रष्टाचार पहले की तुलना में बढ़ा है। अधिकतर मतदाताओं की चिंता विकास सम्बंधी कार्यों को लेकर थी। लेकिन भ्रष्टाचार और विकास के बिंदु पर चिंता जताने के बावजूद वोटरों ने सत्तारूढ़ दल के विरुद्ध वोट नहीं दिया।

1989 में बोफोर्स घोटाले की सुई राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी थी और 2014 में ऐसी धारणा निर्मित हो गई थी कि यूपीए सरकार गले-गले तक भ्रष्टाचार में डूबी हुई है। इन दोनों ही अवसरों पर वोटरों ने केंद्र में सरकार बदल दी। लेकिन आज दूर-दूर तक वैसे हालात नजर नहीं आ रहे हैं।

अतीत में दो बार ऐसा हुआ कि भ्रष्टाचार के मसले पर केंद्र में सरकार बदल गई। लेकिन बीते दशक में राजनीति का जो रंग-ढंग रहा, उसमें विश्वास करना मुश्किल लगता है कि अब ऐसा होगा।

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