धर्म और राजनीति का घालमेल चिंताजनक .!
हो सकता है मैं आपके विचारों से सहमत न हो पाऊं फिर भी विचार प्रकट करने के आपके अधिकारों की रक्षा करूंगा। द्गवाल्तेयर …
धर्म और राजनीति का मेल होना चाहिए या नहीं, इस पर पहले भी व्यापक बहस होती रही है। एक वर्ग यह मानता है कि धर्मविहीन राजनीति अपना उद्देश्य कभी पूरा नहीं कर पाती। धर्म के बिना राजनीति मधु के बिना मधुमक्खियों के छत्ते की तरह है, जो सिर्फ लोगों को काट ही सकती है। इस तर्क में भी तभी तक दम है जब तक धर्म को उसके सच्चे अर्थों में स्वीकार किया जाए। ऐसे उदाहरण मौजूद हैं जब शासनाध्यक्षों ने अपने समय के मूर्धन्य धर्माचार्यों की शरण में रह उनके दिग्दर्शन में राजकाज चलाया। लेकिन समय के साथ-साथ धर्म और राजनीति दोनों में विद्रूपता भी आई है। रही-सही कसर गुलामी के सैकड़ों वर्षों ने पूरी कर दी। आज तो राजनीति कथित धर्माचार्यों के सिर चढ़कर बोल रही है। देश की शीर्ष अदालत ने नफरत फैलाने वाले बयानों (हेट स्पीच) को रोकने में नाकाम रहने पर सत्ता को फटकारते हुए यहां तक कह दिया कि वह नपुंसक की तरह व्यवहार कर रही है। कानून-व्यवस्था बनाए रखना मूल रूप से राज्यों का काम है, इसलिए हेट स्पीच पर रोक लगाने की जिम्मेदारी भी मुख्य रूप से राज्यों की बनती है। लेकिन राज्य सरकारें इसके लिए कोई प्रभावी कदम उठाती नजर नहीं आ रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाया कि आखिर राज्य होता ही क्यों है?
आजादी के दीवानों को भी धर्म और राजनीति के अनैतिक घालमेल की आशंका रही होगी, इसीलिए उस दौरान यह विचार तेजी से आगे बढ़ा कि धर्म और राजनीति को अलग-अलग रहना चाहिए। महात्मा गांधी ने इस विचार को बखूबी आगे बढ़ाया। वे व्यवहार में पूरे धार्मिक थे, लेकिन राजनीति में इससे दूर रहे। भारतीय पुनर्जागरण के दौरान भी धर्म और राजनीति से ऊपर देशहित को रखा गया और विभिन्न धर्मावलंबी कंधे से कंधा मिलाकर लड़ते रहे। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की यह चिंता जायज ही कही जाएगी।