जाँच एजेंसीयो की साख का सबाल ..?
प्रधानमंत्री ही क्या, देश का कोई भी नागरिक भ्रष्टाचारियों को उनकी सही जगह पहुंचाने के पक्ष में ही नजर आता है। बीते कुछ सालों में सीबीआइ ने भ्रष्टाचार में लिप्त ताकतवर नेता-अधिकारियों पर छापेमारी के बाद उन्हें गिरफ्तार कर यह जताने का प्रयास भी किया है कि वाकई कानून के हाथ बहुत लंबे हैं। हालांकि केन्द्र सरकार यह दावा करती है कि पिछले नौ साल के कार्यकाल में उसके खिलाफ भ्रष्टाचार का कोई बड़ा मामला सामने नहीं आया। लेकिन, इस हकीकत से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि पिछले 9 साल में भ्रष्टाचार के खिलाफ चली मुहिम मेें 90 फीसदी से अधिक छापे विपक्षी नेताओं पर ही पड़े। इसका मतलब यह है कि या तो केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी के नेता भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं हैं या फिर जांच एजेंसियों की नजर उन पर नहीं पड़ रही। विपक्ष की शिकायत रहती है कि जिन राज्यों में भाजपा सत्ता में है, वहां भी भ्रष्टाचार के आरोप तो खूब लगते हैं, लेकिन जांच एजेंसियां सक्रिय होती नहीं दिखतीं। पिछले दिनों नौ प्रमुख विपक्षी नेताओं ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर यह मुद्दा उठाया भी। पत्र में कहा गया कि कैसे जांच एजेंसियां सिर्फ विपक्षी नेताओं को ही निशाना बना रही हैं। कांग्रेस में रहे हिमंत बिस्वा शर्मा के खिलाफ सीबीआइ और ईडी ने 2014 और 2015 में शारदा चिट फंड घोटाले में जांच शुरू की थी, लेकिन उनके भाजपा में आने के बाद जांच ठंडे बस्ते में चली गई। वहीं तृणमूल कांग्रेस में रहे सुवेंदु अधिकारी भी नारद स्टिंग ऑपरेशन मामले में जांच एजेंसियों के निशाने पर थे, लेकिन भाजपा में आते ही जांच की गति धीमी पड़ गई।
भ्रष्टाचारियों पर सख्ती के प्रयास केन्द्र व राज्य दोनों को ही करने होंगे। कोई सरकार भ्रष्टाचारियों को नहीं छोड़ने का दावा करती है, तो उसे प्रतिपक्ष के सवालों का जवाब भी देना चाहिए। यहां सवाल किसी राजनीतिक दल या नेता का नहीं, बल्कि जांच एजेंसियों की विश्वसनीयता का है।