ब्रिटिश यूनिवर्सिटी में लड़के-लड़कियों का टॉयलेट एक ..!

बनने लगे जेंडर न्यूट्रल पासपोर्ट; फूड, फैशन, स्पोर्ट्स और एंटरटेनमेंट की दुनिया में आता बदलाव …

कभी गलती से वुमन वॉशरूम में घुसे हैं? अगर ‘हां’ तो इस गलती पर पड़ने वाली डांट भी आपको याद होगी। इसी तरह की हड़बड़ाहट में मेल वॉशरूम में पहुंची महिला को इस तरह घूर कर देखा जाता है मानो वो बॉर्डर पारकर पाकिस्तान या चीन पहुंच गई हो।

अगर हम कहें कि आने वाले वक्त में ऐसा करना गलत नहीं माना जाएगा तो आप जरूर चौंक पड़ेंगे।

लेकिन हम ये बात आज इसलिए बता रहे हैं क्योंकि एक सर्वे के मुताबिक 1997 के बाद जन्मा हर तीसरा अमेरिकी युवा खुद को जेंडर न्यूट्रल मानता है। यानी वो खुद को लड़का या लड़की की कैटेगरी से बाहर देखता है। वे उन नियम-कायदों को मानने से इनकार करते हैं, जिन्हें खास तौर से लड़के या लड़की के लिए बनाया गया हो।

मसलन, खुद को जेंडर न्यूट्रल कहने वाला लड़का कभी स्कर्ट में तो कभी जींस-शर्ट में दिख जाएगा। अमेरिकी ट्रेंड को देखें तो हमारे यहां भी लिपस्टिक लगाए हुए लड़के और लुंगी-कुर्ते में घूमती लड़कियों का दिखना कॉमन हो जाएगा।

दुनिया भर में ऐसा सोचने वाले लोगों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ी है। हॉर्वर्ड के एक प्रसिद्ध कॉलेज में हुई वोटिंग में वहां के 80% छात्र-छात्राओं ने अपने लिए कॉमन वॉशरूम की मांग की।

सवाल उठ सकता है कि लड़की और लड़के में फर्क करने वाले समाज में यह सब कैसे मुमकिन होगा? क्योंकि घरों में बेटे को दूध, अच्छा स्कूल और अच्छे कपड़े दिए जाते रहे हैं, अब इन्हीं कपड़ों परबहस छिड़ गई है। सबसे पहले अमेरिका में हुई रिसर्च के चौंकाने वाले नतीजे से वाकिफ हो लीजिए…

अमेरिका का 35% यूथ, लड़के-लड़की के बीच फर्क से बेपरवाह

प्यू रिसर्च सेंटर की एक रिसर्च के मुताबिक अमेरिका में 1997 के बाद पैदा हुई 35% युवा आबादी लड़के-लड़की के बीच फर्क को तवज्जो नहीं देती। इस उम्र के 60% युवाओं का यह भी मानना था कि ऑनलाइन और ऑफलाइन शॉपिंग प्लेटफॉर्म्स पर मेल-फीमेल सेक्शन अलग-अलग नहीं होने चाहिए।

ये रुझान बताते हैं कि लड़का किसी दिन स्कर्ट पहने और अगले दिन जींस-शर्ट। कभी बाल बढ़ाए तो कभी मूंछें। वह कभी कोट तो कभी स्कर्ट भी पहन सकता है। लड़कियों के मामले में यह बदलाव तेजी से देखने को मिल रहा है।

‘He’ या ‘She’ नहीं, इनको ‘They’ कहलाना पसंद; बनाया वर्ड ऑफ द ईयर

खुद को जेंडर न्यूट्रल मानने वाले युवाओं को अंग्रेजी में ‘He’ या ‘She’ कहलाना भी गवारा नहीं है। बल्कि इसकी जगह वे खुद को ‘They’ कहलाना पसंद करते हैं। इसे हिंदी में ऐसे समझें, ‘जाता है’ या ‘जाती है’ कि जगह सभी के लिए ‘जाते हैं’ जैसे शब्द इस्तेमाल होने लगे हैं।

खुद को ‘लड़का’ या ‘लड़की’ के खांचे से अलग देखने वाले युवाओं का प्रभाव इतना बढ़ा कि साल 2019 में ‘They’ शब्द ‘मरियम-वेबस्टर’ का वर्ड ऑफ द ईयर’ यानी साल का सबसे चर्चित शब्द बन गया।

जबकि अंग्रेजी का ‘They’ सैकड़ों साल से एक से अधिक लोगों के संबोधन के लिए इस्तेमाल होता है। लेकिन युवाओं ने इस शब्द को जेंडर के जाल से निकलने का साधन बनाया और बड़े पैमाने पर इसका नया इस्तेमाल करने लगे।

आखिर ये सोच क्या है?

ह्यूमन बिहेवियर एक्सपर्ट प्रोफेसर डॉ. बीर सिंह निगम कहते हैं कि ऐसे युवा जो मेल और फीमेल के लेबल को हटकर सोचते हैं, उन्हें ‘नॉन बाइनरी जेंडर’ कहा जाता है। जेंडर में ‘बाइनरी’ का मतलब है- मेल और फीमेल। अमेरिका-यूरोप जैसे विकसित समाजों में ज्यादातर युवा ऐसा ही सोचते हैं।

जाति, पंथ, रंग, भाषा, नस्ल की पहचान वक्त के साथ कम हुई है। अब युवा जेंडर के बीच बंटवारे की लकीरें नहीं खींचना चाहते। धीरे-धीरे यह भेद भी कम हो रहा है। इसके साथ ही ‘नॉन बाइनरी जेंडर’ को मानने वाले युवाओं की संख्या बढ़ती जा रही है।

ऐसी सोच रखने वाले युवा लड़के-लड़कियां अपने फैशन, एंटरटेनमेंट, खानपान और व्यवहार से जेंडर के भेदभाव को दूर रखते हैं।

जेंडर न्यूट्रल नाम रखने का ट्रेंड बढ़ा

कहीं ‘आलिया’ नाम लिखा दिखे तो हम मान लेते हैं कि किसी लड़की की बात की जा रही है। इसी तरह रणवीर, अक्षय, विक्टर लड़कों के नाम माने जाते हैं। हमारे देश में नाम के बाद ‘कुमार’, ‘कुमारी’, ‘देवी’ या नाम के पहले श्री, सुश्री, श्रीमती जैसे शब्द लगाकर जेंडर स्पष्ट किया जाता है।

लेकिन ‘नॉन बाइनरी जेंडर’ की सोच रखने वाले युवाओं में ‘जेंडर न्यूट्रल’ नाम रखने का चलन बढ़ा है। इस सोच से ताल्लुक रखने वाले लोग अपने बच्चों का नाम ऐसा रखते हैं कि उसके जेंडर का पता न चले।

यूनिवर्सिटी और ऑफ मैरीलैंड के एक सर्वे के मुताबिक साल 2021 में अमेरिका में जन्मे 6% बच्चों के जेंडर न्यूट्रल नाम रखे गए। जबकि कुछ दशकों पहले तक ऐसे गिने-चुने नाम ही मिलते थे।

पश्चिमी देशों में जेशी, मैरियन, जैकी, आल्वा, ऑलिव, जॉडी, केयो, कैरी जैसे जेंडर न्यूट्रल नाम रखे जाने लगे हैं। वहां आपको इस नाम के लड़के-लड़कियां दोनों मिलेंगे।

वैसे हमारे यहां पंजाब में भी लड़के और लड़कियों के कॉमन नाम देखने को मिलते हैं जाते हैं; जैसे- नवजोत, कमलजोत, हनी, दिलजोत। लेकिन यहां नाम के बाद सिंह या कौर लगाकर जेंडर स्पष्ट कर दिया जाता है।

अमेरिका के 23 राज्यों में मिली जेंडर X को मान्यता, बन चुका है पासपोर्ट

खुद को पुरुष या महिला की कैटेगरी से अलग रखने वाले लोगों के लिए अक्सर ‘जेंडर X’ का इस्तेमाल किया जाता है। बता दें कि 50 में से 23 अमेरिकी राज्यों में ‘जेंडर X’ को कानूनी मान्यता मिली हुई है। यानी वहां के लोग कानूनी रूप से खुद को मर्द या औरत मानने से इनकार कर सकते हैं। साल 2021 में अमेरिका में एक नागरिक को पहला जेंडर न्यूट्रल पासपोर्ट इश्यू किया गया।

दरअसल, अमेरिकी नौसेना के एक जवान डेना जेम ने रिटायरमेंट के बाद खुद को ‘जेंडर न्यूट्रल’ मानना शुरू किया। जब उसे पासपोर्ट लेने की जरूरत हुई तो वहां कॉलम में उसे मेल, फीमेल या ट्रांसजेंडर में से किसी एक को चुनने के लिए कहा गया। लेकिन उसने ऐसा करने से इनकार कर दिया। क्योंकि वह खुद को इनमें से कुछ नहीं मानता था। मामला कोर्ट में गया। कोर्ट ने डेना जेम के पक्ष में फैसला सुनाया। जिसके बाद पहला जेंडर न्यूट्रल पासपोर्ट बना।

बतौर जेंडर न्यूट्रल पहला अमेरिकी पासपोर्ट लेने वाले डेना जेम नॉन-बाइनरी जेंडर के अधिकारों के एक्टिविस्ट बन गए।

दुनिया भर में जेंडर न्यूट्रल टॉयलेट की मांग, यहां कोई भी फ़ारिग हो सकता है

पूरी दुनिया में जेंडर न्यूट्रल टॉयलेट्स की मांग भी तेजी से बढ़ रही है। पांच साल पहले ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रतिष्ठित समरविले कॉलेज में इस मसले पर वोटिंग कराई गई; जिसमें 80% छात्र-छात्राओं ने अपने लिए कॉमन टॉयलेट की मांग की। जिसके बाद कॉलेज के मेल और फीमेल टॉयलेट को मिला दिया गया।

मौजूदा वक्त में दुनिया भर में इस तरह के प्रयास किए जा रहे हैं। जेंडर न्यूट्रल टॉयलेट को जेंडर के आधार पर होने वाले भेदभाव के विरोध से जोड़कर देखा जाता है।

जेंडर न्यूट्रल टॉयलेट्स की बढ़ती संख्या के साथ कुछ खास नियम कायदे भी बनाए गए हैं। मसलन, जर्मनी में नियम है कि पब्लिक टॉयलेट में पुरुष भी बैठकर ही यूरिन पास करेंगे। ताकि टॉयलेट सीट गंदी ना हों और महिलाओं को उस पर बैठने में दिक्कत न हो।

अरबों का है जेंडर न्यूट्रल फैशन का कारोबार, रणवीर सिंह आइकॉन

भारतीय शहरों में महिला और पुरुषों के कपड़े का सेक्शन अलग-अलग होना नॉर्मल माना जाता है। कई मॉल या शॉपिंग कॉम्प्लेक्स में तो सुविधा के लिए ये सेक्शन अलग-अलग फ्लोर पर बनाए जाते हैं। लेकिन अब ट्रेंड जेंडर न्यूट्रल फैशन का है। एक ही तरह के कपड़े और जूतों में से महिलाएं और पुरुष अपनी-अपनी पसंद की चीजें चुन सकते हैं।

बॉलीवुड एक्टर रणवीर सिंह अक्सर स्कर्ट जैसी ड्रेस में नजर आते हैं। कई दूसरे एक्टर्स भी इसी तरह के कपड़े पहनना पसंद करते हैं। उनका यह ड्रेसिंग स्टाइल ‘जेंडर फ्री फैशन’ कहलाता है। इन कपड़ों को पति-पत्नी आपस में शेयर करके भी पहन सकते हैं।

मार्केट ने युवाओं की इस बदलती सोच को समझा और अपने बिजनेस का तरीका भी बदल दिया। आजकल बड़े-बड़े ब्रैंड्स में महिलाओं और पुरुषों के ट्राउजर एक जैसे आते हैं। खासकर खादी और कॉटन के। इन ट्राउजर्स को कुर्ते और कुर्ती दोनों के साथ पहना जा सकता है।

टी-शर्ट का जेंडर गैप लगभग खत्म हो चुका है। ऑनलाइन मिलने वाली टी-शर्ट्स में मेल-फीमेल का जिक्र नहीं होता। आज के वक्त में भाई-बहनों, पति-पत्नी का आपस में टी-शर्ट शेयर करना आम बात है। मेल-फीमेल हूडी (कैप वाली जैकेट) का कॉन्सेप्ट खत्म हो रहा है।

इसी तरह डिजिटल वॉच ने मेल और फीमेल घड़ियों का भेद भी मिटा दिया है। कई कॉर्पोरेट ऑफिस में मेल और फीमेल ड्रेस कोड एक जैसे हैं। आमतौर पर ऐसे थ्री पीस सूट के मामले में होता है। जेंडर न्यूट्रल परफ्यूम, साबुन, शैंपू, फेस क्रीम, हेयर ऑयल भी बाजार में आ गए हैं।

बेस्ट मेल, फीमेल एक्टर जैसे अवॉर्ड पर उठे सवाल, कॉमन अवॉर्ड की मांग

27 साल की एम्मा कोरीन ब्रिटेन की फिल्म स्टार हैं। फिल्मों में वो महिलाओं का किरदार निभाती हैं, उनका जन्म भी एक लड़की के रूप में हुआ। लेकिन आगे चल कर एम्मा ने अपनी जेंडर न्यूट्रल पहचान को तवज्जो दी। वो खुद को ‘एक्ट्रेस’ की जगह ‘आर्टिस्ट’ कहती हैं।

कुछ साल पहले एम्मा को नामी गोल्डन ग्लोब अवॉर्ड के लिए नॉमिनेट किया गया। लेकिन एम्मा इससे खुश होने के बदले भड़क ही गईं। कारण कि उन्हें ‘बेस्ट फीमेल एक्टर’ की कैटेगरी में नामित किया गया था। एम्मा ने मांग की कि अवॉर्ड उसको मिले जिसने सबसे अच्छी एक्टिंग की हो, चाहे वो मेल हो या फीमेल।

इस हंगामे के बाद ऑस्कर जूरी ने भी इस मांग पर विचार करने का वादा किया था। दुनिया के कई हिस्सों में इस तरह के जेंडर न्यूट्रल अवॉर्ड दिए भी जा रहे हैं। जिसमें उस क्षेत्र में सबसे बेहतर काम करने वाले शख्स को दिया जाता है। चाहे वो मेल हो या फीमेल।

नोबेल, बुकर, रैमन मैग्सेसे से लेकर भारत के पद्म अवॉर्ड भी जेंडर न्यूट्रल ही हैं। जहां स्त्री-पुरुष में कोई भेद नहीं किया जाता।

महिला और पुरुष दिवस के बिल्कुल बीच में मनाते हैं ‘नॉन बाइनरी डे’

हर साल 14 जुलाई को ‘इंटरनेशनल नॉन बाइनरी डे’ मनाया जाता है। वैसे इस दिन को कोई अंतरराष्ट्रीय मान्यता तो नहीं मिली है, मगर फिर भी यह दुनिया भर के न्यूट्रल जेंडर सोच रखने वाले युवाओं का सबसे बड़ा दिन है।

इसके लिए 14 जुलाई की ही तारीख का चुनाव क्यों किया गया, इसका कारण भी रोचक है। दरअसल, हर साल 19 नवंबर को ‘पुरुष दिवस’ और 8 मार्च को ‘महिला दिवस’ मनाते हैं। 14 जुलाई इन दोनों तारीखों के बिल्कुल बीच में पड़ती है। यही वजह है कि खुद को महिलाओं-पुरुषों से अलग मानने वाले लोगों ने दोनों तारीखों से समान दूरी बनाकर इस दिन का चुनाव किया है।

भेदभाव मिटाने के लिए क्रिकेट को बदलनी पड़ी अपनी शब्दावली

क्रिकेट में लंबे समय से ‘बैट्समैन’, ‘मैन ऑफ द मैच’ जैसे शब्द चलन में थे। क्रिकेट को ‘जेंटल मैन’ गेम कहा जाता था। लेकिन आगे चलकर महिलाओं ने भी इस खेल में रुचि ली। जिसके बाद ‘मैन’ शब्द पर सवाल उठे। आखिरकार ICC को ये पुरुषप्रधान शब्द बदलने पड़े और इनकी जगह जेंडर न्यूट्रल शब्दों ने ली। मसलन, ‘बैट्समैन’ की जगह ‘बैटर’ और ‘मैन ऑफ द मैच’ की जगह ‘प्लेयर ऑफ द मैच’ जैसे शब्द चलन में आए।

यूरोप में एंड्रोजिनी और भारत में अर्धनारीश्वर का कॉन्सेप्ट हजारों साल पुराना

‘जेंडर न्यूट्रल’ सोच नई उम्र के युवाओं से इतर हमारे समाज में हजारों सालों से रही है। यूरोप में ‘एंड्रोजिनी’ शब्द का प्रयोग उनके लिए किया जाता है; जिनमें पुरुष और महिला दोनों के गुण हों।

‘एंड्रोजिनी’ ग्रीक भाषा के दो शब्द ‘एंड्रो’ और ‘जिनी’ से मिलकर बना है; जिसका मतलब मेल और फीमेल होता है। यानी जो इंसान मेल-फीमेल के भेद में न पड़कर मिलाजुला व्यवहार करे, वो ‘एंड्रजिनस’ कहलाता है। इसी तरह भारत में भी भगवान शिव को अर्धनारीश्वर कहा गया है। क्योंकि उनके शरीर का आधा हिस्सा शक्ति रूपी देवी हैं।

कुछ लोगों को स्त्री और पुरुष के रंगों के बिना दुनिया फीकी नजर आती है। लेकिन क्या उस नजरिए से दुनिया की खूबसूरती छिप नहीं जाती? लेकिन कुछ युवा हैं जो दुनिया को जेंडर का चश्मा पहनकर देखना नहीं चाहते। युवाओं की सोच यह कहती है कि चश्मा उतारो, फिर देखो यारो… कहीं यह भेदभाव हमारी आज की मुश्किलों और परेशानियों की जड़ तो नहीं? अगर हम जेंडर न्यूट्रल समाज बना पाए तो इनमें से कई उलझनों को सुलझा सकेंगे। तभी दुनिया असल खूबसूरत दिखाई देगी और ये सभी कोशिशें किसी बेहतर समाज की संरचना करने में मदद करेंगी।

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