कवियों और कविताओं को गढ़ने वाली है मां, पढ़ें कविताएं के ज़रिए कैसे मां के रूपों को कवियों ने उद्घाटित किया है
कविता के माध्यम से कितने ही कवियों ने अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त किया है लेकिन मां तो अपने आप में एक कविता है, अभिव्यक्ति है…
मां कह एक कहानी
–मैथिलीशरण गुप्त
मां कह एक कहानी बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी? कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी। कह मां कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी? मां कह एक कहानी।
तू है हठी, मानधन मेरे, सुन उपवन में बड़े सवेरे, तात भ्रमण करते थे तेरे, जहां सुरभि मनमानी। जहां सुरभि मनमानी! हां मां, यही कहानी।
वर्ण-वर्ण के फूल खिले थे, झलमल कर हिमबिंदु झिले थे, हलके झोंके हिले-मिले थे, लहराता था पानी। लहराता था पानी, हां-हांं यही कहानी।
गाते थे खग कल-कल स्वर से, सहसा एक हंस ऊपर से, गिरा बिद्ध होकर खग शर से, हुई पक्ष की हानी। हुई पक्ष की हानी? करुणा भरी कहानी!
चौंक उन्होंने उसे उठाया, नया जन्म-सा उसने पाया, इतने में आखेटक आया, लक्ष सिद्धि का मानी। लक्ष सिद्धि का मानी! कोमल कठिन कहानी।
मांगा उसने आहत पक्षी, तेरे तात किंतु थे रक्षी, तब उसने जो था खगभक्षी, हठ करने की ठानी। हठ करने की ठानी! अब बढ़ चली कहानी।
हुआ विवाद सदय निर्दय में, उभय आग्रही थे स्वविषय में, गई बात तब न्यायालय में, सुनी सभी ने जानी। सुनी सभी ने जानी! व्यापक हुई कहानी।
राहुल तू निर्णय कर इसका, न्याय पक्ष लेता है किसका? कह दे निर्भय जय हो जिसका, सुन लूं तेरी बानी। मां मेरी क्या बानी? मैं सुन रहा कहानी।
कोई निरपराध को मारे तो क्यों अन्य उसे न उबारे?
रक्षक पर भक्षक को वारे, न्याय दया का दानी।
न्याय दया का दानी! तूने गुनी कहानी।
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जन्मकथा
-अशोक वाजपेयी
तुम्हारी आंखों में नई आंखों के छोटे-छोटे दृश्य हैं, तुम्हारे कंधों पर नए कंधों का, हल्का-सा-दबाव है। तुम्हारे होंठों पर नई बोली की पहली चुप्पी है और तुम्हारी उंगलियों के पास कुछ नए स्पर्श हैं। मां, मेरी मां, तुम कितनी बार स्वयं से ही उग आती हो और मां, मेरी जन्मकथा कितनी ताज़ी और अभी-अभी की है!
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मां का नमस्कार
–मंगलेश डबराल
जब मां की काफ़ी उम्र हो गई तो वह सभी मेहमानों को नमस्कार किया करती जैसे वह एक बच्ची हो और बाक़ी लोग उससे बड़े।
वह हरेक से कहती- बैठो कुछ खाओ। ज़्यादातर लोग उसका दिल रखने के लिए, खाने की कोई चीज़ लेकर उसके पास कुछ देर बैठ जाते। मां ख़ुश होकर उनकी तरफ़ देखती और जाते हुए भी उन्हें नमस्कार करती हालांकि वह उम्र में सभी लोगों से बड़ी थी।
वह धरती को भी नमस्कार करती कभी अकेले में भी। आख़िर में जब मृत्यु आई तो उसने उसे भी नमस्कार किया होगा और अपना जीवन उसे देते हुए कहा होगा- बैठो कुछ खाओ।
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मां की तस्वीर
–इला कुमार
मम्मी मा मम्मा अम्मा मइया माई, जब जैसे पुकारा, मां अवश्य आई। कहा सब ने मां ऐसी होती है, मां वैसी होती है, पर सच में, मां कैसी होती है?
सुबह सवेरे, नहा धोकर, ठाकुर को दिया जलाती। हमारी शरारतों पर भी थोड़ा मुस्काती। फिर से झुककर पाठ के श्लोक उच्चारती। मां की यह तस्वीर कितनी पवित्र होती है।
शाम ढले, चूल्हा की लपकती कौंध से जगमगाता मुखड़ा। सने हाथों से अगली रोटी के, आटे का टुकड़ा। गीली हथेली की पीठ से, उलझे बालों की लट को सरकाती मां की यह भंगिमा क्या ग़रीब होती है?
रोज़-रोज़, पहले मिनट में पराठा सेंकती, दूसरे क्षण, नाश्ते की तश्तरी भरती। तेज क़दमों से, सारे घर में, फिरकनी-सी घूमती। साथ-साथ, अधखाई रोटी, जल्दी-जल्दी अपने मुंह में ठंूसती। मां की यह तस्वीर क्या इतनी व्यस्त होती है?
इन सब से परे, हमारे मानस में रची बसी, सभी संवेदनाओं के कण-कण में घुली-मिली, हमारे व्यक्तित्व के रेशे से हर पल झांकती, हम सब की मां, कुछ-कुछ ऐसी ही होती है।
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मैं सबसे छोटी होऊं
-सुमित्रानंदन पंत
मैं सबसे छोटी होऊं, तेरा अंचल पकड़-पकड़कर फिरूं सदा मां! तेरे साथ, कभी न छोड़ूं तेरा हाथ! बड़ा बनाकर पहले हमको तू पीछे छलती है मात! हाथ पकड़ फिर सदा हमारे साथ नहीं फिरती दिन-रात! अपने कर से खिला, धुला मुख, धूल पोंछ, सज्जित कर गात, थमा खिलौने, नहीं सुनाती हमें सुखद परियों की बात! ऐसी बड़ी न होऊं मैं तेरा स्नेह न खोऊं मैं, तेरे अंचल की छाया में छिपी रहूं निस्पृह, निर्भय, कहूं- दिखा दे चंद्रोदय! —
अम्मा
–योगेश छिब्बर आनंद
लेती नहीं दवाई अम्मा, जोड़े पाई-पाई अम्मा। दुःख थे पर्वत, राई अम्मा। हारी नहीं लड़ाई अम्मा। दुनिया के सब रिश्ते ठंडे गरमागरम रजाई अम्मा। जब भी कोई रिश्ता उधड़े करती है तुरपाई अम्मा। बाबूजी तनख़ा लाए बस लेकिन बरक़त लाई अम्मा। बाबूजी थे छड़ी बेंत की माखन और मलाई अम्मा। बाबूजी के पांव दबाकर सब तीरथ हो आई अम्मा। सभी साड़ियां छीज गई थीं मगर नहीं कह पाई अम्मा। अम्मा में से थोड़ी-थोड़ी सबने रोज़ चुराई अम्मा। अम्मा से घर, घर लगता है घर में घुली, समाई अम्मा। बेटे की कुर्सी है ऊंची पर उसकी ऊंचाई अम्मा। दर्द बड़ा हो या छोटा हो याद हमेशा आई अम्मा। घर के शगुन सभी अम्मा से है घर की शहनाई अम्मा। सभी पराए हो जाते हैं होती नहीं पराई अम्मा। —
मां के अनगिन रूप
–त्रिलोक सिंह ठकुरेला
मां के अनगिन रूप जग में परिलक्षित होते हैं मां के अनगिन रूप।
मां जीवन की भोर सुहानी मां जाड़े की धूप।
लाड़-प्यार से मां बच्चों की झोली भर देती, झाड़-फूंक करके सारी बाधाएं हर लेती, पा सान्निध्य प्यास मिट जाती, मां वह सुख का कूप।
मां जीवन का मधुर गीत मां गंगा-सी निर्मल, आशाओं के द्वार खोलता माता का आंचल, समय-समय पर ढल जाती मां, बच्चों के अनुरूप।
जग में परिलक्षित होते हैं मां के अनगिन रूप।। —
मां
–कुंअर बेचैन
मां! तुम्हारे सजल आंचल ने, धूप से हमको बचाया है। चांदनी का घर बनाया है। तुम अमृत की धार प्यासों को, ज्योति-रेखा सूरदासों को, संधि को आशीष की कविता, अस्मिता, मन के समासों को।
मां! तुम्हारे तरल दृगजल ने, तीर्थ-जल का मान पाया है, सो गए मन को जगाया है। तुम थके मन को अथक लोरी, प्यार से मनुहार की चोरी। नित्य ढुलकाती रहीं हम पर दूध की दो गागरें कोरी।
मां! तुम्हारे प्रीति के पल ने आंसुओं को भी हंसाया है। बोलना मन को सिखाया है। —
माशो की मां
–अशोक चक्रधर
नुक्कड़ पर माशो की मां, बेचती है टमाटर।
चेहरे पर जितनी झुर्रियां हैं, झल्ली में उतने ही टमाटर हैं। टमाटर नहीं हैं, वो सेब हैं, सेब भी नहीं, हीरे-मोती हैं।
फटी मैली धोती से एक-एक पोंछती है टमाटर, नुक्कड़ पर माशो की मां।
ग्राहक को मेहमान-सा देखती है। एकाएक हो जाती है काइयां -आठाने पाउ लेना होय लेउ नहीं जाउ।
मोतियाबिंद आंखों से अठन्नी का खरा-खोटा देखती है और सुतली की तराज़ू पर बेटी के दहेज-सा एक-एक चढ़ाती है टमाटर नुक्कड़ पर माशो की मां।
-ग्राहक की तुष्टि होय एक-एक चढ़ाती ही जाती है टमाटर। इतने चढ़ाती है टमाटर कि टमाटर का पल्ला ज़मीन छूता है, उसका ही बूता है।
सूर्य उगा-आती है सूर्य ढला-जाती है लाती है झल्ली में भरे हुए टमाटर नुक्कड़ पर माशो की मां। —
ठाकुर जी
-महादेवी वर्मा
ठंडे पानी से नहलातीं, ठंडा चंदन इन्हें लगातीं, इनका भोग हमें दे जातीं, फिर भी कभी नहीं बोले हैं। मां के ठाकुर जी भोले हैं।