शिक्षा की वैश्विक रेकिंग में पीछें क्यों हे ..?

शिक्षा की वैश्विक रेकिंग में पीछें क्यों हे ..?

इसमें  दो राय नहीं हैं कि आजादी के पिचहत्तर वर्षों में हमारे देश में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में संख्यात्मक दृष्टि से काफी तरक्की हुई है लेकिन बात गुणात्मक दृष्टि की करते हैं तो इस दिशा में काफी काम करने की जरूरत महसूस होती है। नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआइआरएफ) 2023 की ओवरऑल रैंकिंग सूची को देखकर भी ऐसा ही लगता है। आइआइटी हो या आइआइएम या फिर कॉलेज और विश्वविद्यालय, रैंकिंग के टॉप टेन में जगह बनाने वाली शिक्षण संस्थाओं में पिछले सालों से एक से नाम ही नजर आते हैं। यह तो लगता है कि ये संस्थाएं अपनी गुणवत्ता बनाए हुए हैं पर यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि दूसरी उच्च शिक्षण संस्थाएं आखिर टॉप सूची में आने से क्यों वंचित रहती हैं?
लोकसभा के पिछले सत्र में ही सरकार की ओर से जानकारी दी गई थी कि वर्ष 2017 से 2022 के दौरान 30 लाख से अधिक भारतीय उच्च शिक्षा के लिए विदेश गए थे। अकेले वर्ष 2022 में ही 7.5 लाख भारतीयों ने विदेश जाने का अपना उद्देश्य अध्ययन करना बताया था। भारत जैसे विशाल देश में यह संख्या भले ही ज्यादा नहीं लगती हो लेकिन एक बात साफ है कि विश्व स्तरीय रैंकिंग में भारतीय उच्च शिक्षण संस्थाओं का काफी नीचे के पायदान पर होना भी इसकी एक महत्त्वपूर्ण वजह है। भारत की रैंकिंग में टॉप टेन पर रहने वाली उच्च शिक्षण संस्थाएं जब वैश्विक रैंकिंग में शीर्ष सौ की सूची में भी नहीं आएं तो चिंता होनी चाहिए। यह चिंता इसलिए भी क्योंकि लगातार ये सवाल उठते रहे हैं कि क्या हमारे उच्च शिक्षण संस्थान इनमें पढ़ने वालों को जीवन दृष्टि देने और बेहतर रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने में सफल हो रहे हैं? युवा पीढ़ी को हमारे देश में अध्ययन की वह गुणवत्ता क्यों नहीं मिले जिसे पाने के लिए वह विदेश जाने को आतुर रहती है। जाहिर है इसके लिए हमें वैश्विक रैंकिंग में सम्मानजनक जगह बनाने वाली शिक्षण संस्थाओं को तैयार करना होगा। वास्तविकता यह भी है कि उच्च शिक्षा का उद्देश्य केवल डिग्री देना ही नहीं है बल्कि चिंतन, मनन और शोध की नई धारा को प्रवाहित करना भी इस उद्देश्य में शामिल है।

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में यह अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2035 तक स्कूल में दाखिला लेने वाले पचास फीसदी छात्र-छात्राएं उच्च शिक्षा का मार्ग भी चुनेंगे। ऐेसे में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की उच्च शिक्षण संस्थाओं को वैश्विक मुकाबले में आने योग्य बनाना होगा। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि नए संस्थान संख्यात्मक नहीं, बल्कि गुणात्मक दृष्टिकोण लिए हों।

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