अटल यानी संघ के चटख रंग की अमिट छाप ..!

बटेश्वर से ग्वालियर तक पारिवारिक और सामाजिक परिवेश से लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आने के कारण वाजपेयी पर संघ के रंग की छाप ऐसी पड़ी कि उम्र भर कोई भी रंगरेज उनके सामने सफल नहीं हो पाया, हालांकि वह खुले दिमाग के शख्स थे …

अटल यानी संघ के चटख रंग की अमिट छाप, विराट व्यक्तित्व के कुछ और पहलू …

संघ परिवार से निकलने वाले प्रथम प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अपने अन्य सहयोगियों से कितना भिन्न थे? तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने क्या वास्तव में उन्हें भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखा था और वह नेहरूवादी थे? बांग्लादेश की स्थापना के बाद वाजपेयी ने इंदिरा गांधी को दुर्गा बताया था? एक अनुदार इको सिस्टम की निर्मिति वाजपेयी उदार थे? संघ की पत्रिका राष्ट्रधर्म और उसके बाद पांचजन्य  एवं स्वदेश के संपादक के नाते वाजपेयी ने जो लिखा, उससे बाद में कितना हटे? कई प्रश्नों के उत्तर उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन के अंतिम चरण में ही दे दिए थे : ‘मैं आज प्रधानमंत्री हूं, कल नहीं रहूंगा, लेकिन संघ का स्वयंसेवक तो सदैव रहूंगा।’ वाजपेयी की हाल में प्रकाशित जीवनी वाजपेयी : द असेंट ऑफ द हिंदू राइट 1924-1977 में … चौधरी ने अनेक अज्ञात और कम ज्ञात तथ्यों को प्रस्तुत कर वाजपेयी के व्यक्तित्व का विस्तृत भाष्य विश्लेषकों और सजग पाठकों पर छोड़ दिया है।

एक असंदिग्ध निष्कर्ष यह है कि बटेश्वर से ग्वालियर तक पारिवारिक और सामाजिक परिवेश से लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आने के कारण वाजपेयी पर संघ के रंग की छाप ऐसी पड़ी कि उम्र भर कोई भी रंगरेज उनके सामने सफल नहीं हो पाया, हालांकि वह खुले दिमाग के शख्स थे। 1938 में ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में 14 वर्ष के छात्र वाजपेयी के सामने ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन की स्थापना हुई। बाद में उन्होंने स्वीकार किया, ‘आर्यसमाजी विद्वानों के साथ ही मैं कम्युनिस्ट विचारों और सर्वहारा क्रांति से प्रभावित होने लगा था।’ यह प्रभाव अस्थायी था, क्योंकि तीन साल बाद नागपुर में प्रथम वर्षीय ओटीसी के बाद उन्हें ग्वालियर का बौद्धिक कार्यवाह बना दिया गया था।

अगले साल मई-जून, 1942 में लखनऊ में दूसरे साल के ओटीसी में वाजपेयी ने अपनी प्रसिद्ध कविता, हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन, रग-रग हिंदू मेरा परिचय सुनाई थी। 18 दिसंबर, 1949 के पांचजन्य में छपे लंबे लेख में कहा गया, ‘भारतीय मुसलमान और उनके राजनेता भारत के प्रति निष्ठा का वचन देते हैं; निष्ठा का वास्तविक परीक्षण अयोध्या, काशी, मथुरा और बहराइच है। अगर वे राम जन्मभूमि की पवित्रता पुनर्स्थापित नहीं करना चाहते, तो उन्हें भारत प्रेमी कहना संभव न होगा।’

… चौधरी एक घटना का उल्लेख करते हैं, जिससे संघ परिवार के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता की वैचारिक यात्रा को समझने में मदद मिलती है। सितंबर, 1960 में वाजपेयी ने दो महीने के स्टडी टूर पर कई अमेरिकी शहरों का दौरा किया। वह उनकी पहली विदेश यात्रा थी। क्लीवलैंड प्रवास में विविधताओं ने वाजपेयी को चकित किया। उन्होंने अपने मेजबान से पूछा, ‘इतने मूल के लोगों के साथ अमेरिका की राष्ट्रीय एकता कैसे टिकी हुई है?’ मेजबान प्रोफेसर का जवाब था, ‘एक नई जिंदगी शुरू करने की सशक्त सामूहिक आकांक्षा और हमेशा इसे बनाए रखने की इच्छा सबको बांधे रहती है।’ अत्यंत विविधतापूर्ण भारत के युवा सांसद को इस घटना ने कितना प्रभावित किया?

तब तक इंसान और दुनिया को अनगिनत रंगों में देखने का जो अवसर वाजपेयी को मिला, उतना संघ परिवार के किसी नेता को नहीं। वाजपेयी के सोचने का व्यापक परिप्रेक्ष्य और अन्य विपक्षी नेताओं का संकुचित दायरा चीन के हमले के बाद संसद में दिखाई पड़ा। आचार्य कृपलानी व अन्य नेहरू के इस्तीफे की मांग कर रहे थे, तो वाजपेयी ने कहा, ‘आज देश दृढ़ता से प्रधानमंत्री के साथ खड़ा है। वह हमारे स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी और शांतिदूत हैं। हम सभी को वर्तमान नेतृत्व के हाथ मजबूत करने चाहिए।’ इस पर कृपलानी ने स्वतंत्र पार्टी के नेता मीनू मसानी से कहा था, ‘इस व्यक्ति पर भरोसा मत करो, वह हमारे बीच के नहीं हैं, वह नेहरूवादी हैं।’ चौधरी लिखते हैं, ‘वाजपेयी महसूस कर रहे थे कि छह महीने पहले दो तिहाई बहुमत से बनी सरकार के मुखिया से युद्ध के बीच इस्तीफा मांगना व्यावहारिक नहीं है।’

वाजपेयी का अंदाज-ए-बयां बदला, पर उनका ‘हिंदू मन’ कभी सुषुप्तावस्था में नहीं पहुंचा। मई, 1970 में भिवंडी दंगे के बाद उन्होंने संसद में कहा,  ‘पिछले 700-800 वर्षों में हमने बहुत मार खाई है। अब हिंदू मार नहीं खाएगा।’ जनसंघ ने इस भाषण की दस लाख प्रतियां वितरित की थीं, जिसका शीर्षक था, अब हिंदू मार नहीं खाएगा। वाजपेयी के व्यक्तित्व में विरोधाभास थे? सतही तौर पर यह लगेगा, पर यह वास्तविकता नहीं है। देश, काल, परिस्थिति के अनुसार वह बोलते थे।

नेहरू के निधन पर उनका भाषण सारगर्भित था, ‘रामायण में महर्षि वाल्मीकि लिखते हैं कि राम ने असंभाव्य को संभाव्य बना दिया। पंडित जी के जीवन में हम इसकी झलक देखते हैं। वह शांति प्रेमी थे और क्रांति के संवाहक भी। उन्होंने जिस लोकतंत्र की स्थापना की और जिसे सफल बनाया, उसका भविष्य संदिग्ध है। भारत माता ने अपने चहेते पुत्र को खो दिया है, वह शोकग्रस्त है। मतभेदों के बावजूद हम उनके आदर्शों का आदर करते हैं।’ अपनी विचारधारा को अक्षुण्ण रखते हुए भाषा का यह राग और लालित्य केवल वाजपेयी के पास था।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *