चुनाव के इस दौर में महंगाई की किसको पड़ी है?
मौसम:बारिश, चुनाव के इस दौर में महंगाई की किसको पड़ी है?
दूसरी तरफ देश के ज़्यादातर इलाक़े ऐसे भी हैं जहां कम वर्षा से भी ख़ौफ़ है। एक रिपोर्ट का अनुमान यह है कि कम वर्षा के कारण महंगाई और बढ़ने वाली है। पिछले एक साल में ही दालें सैंतीस प्रतिशत और चावल नौ प्रतिशत महँगा हो चुका है। अब सिर पर पांच राज्यों के चुनाव हैं। बेहिसाब पैसा बाज़ार में आने वाला है। महंगाई तो बढ़ेगी ही। लेकिन हम हिंदुस्तानी अब इस महंगाई की चिंता नहीं करते। करें भी क्यों? यूपीआई करो, आगे बढ़ो! भाव पूछने या पता करने की किसको पड़ी है? अब तो वह कहावत भी लोगों को याद नहीं, जो गरीब – मध्यम परिवारों में बार – बार सुनी जाती थी- कि बाहर निकल कर तो देखो- आटे- दाल के भाव पता चल जाएँगे! अब कोई किसी से भाव नहीं पूछता। बारिश और चुनावों के इस मौसम में कोई कवि अगर बारिश पर कुछ कहता तो यही कि “ नहीं पसंद है मुझे ये बारिशें! नमी ख़राब लगती है मुझे। उससे मेरी आग बुझने लगती है!”
वही कवि चुनावों पर भी बहुत कुछ कहता। कुछ इस तरह- “ चीख रही हैं गरारियां अंधेरे की। … और दरवाज़ा खोलने का वक्त आ चुका है। ये गद्य है या पद्य है! कोई नोट नहीं, कि बार- बार कैशियर की तरह गिनता रहूँ! आख़िर रोशनी कब निकलेगी गहरे – काले अंधेरे से? लोकतंत्र का जगमग करता नूर आख़िर कब बहेगा?”
ख़ैर, कोई कवि कुछ भी कहे, चुनाव तो होंगे और अपने ढर्रे से ही होंगे। प्रचार के दौरान चुनावी सभाओं की धूम रहेगी। नेता आएँगे। जाएँगे। कुछ बस भी जाएँगे। ख़म ठोककर यहीं। हम उसी तरह वोट डालेंगे और डालते रहेंगे। पार्टी देखकर वोट देंगे या प्रत्याशी देखकर, हमें खुद ही पता नहीं है। नेता सब यही चाहते हैं कि लोग पार्टी देखकर वोट दें। प्रत्याशी परखकर वोट दिए तो पार्टियों को सीटों का टोटा पड़ने का डर रहता है। फिर राजनीतिक उठा पटक होती है। सरकारें बदल भी जाती हैं। पलट भी जाती हैं।
मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के हाल पर जाएँ तो यहाँ तीनों जगह चुनावी माहौल एक- दूसरे के उलट है। मप्र की बात करें तो यहाँ सरकार को लगता है कि उसे महिला वोटर के रूप में सत्ता की चाभी हाथ लग गई है। नक़द पैसा खातों में और चार सौ पचास रुपए में गैस सिलेंडर हो सकता है एक दिव्य ताले की दिव्य चाभी साबित हो जाए! जहां तक लम्बे समय से विपक्ष में बैठी कांग्रेस का सवाल है, उसका कहना है कि हवा हमारी है। पिछले तीन चुनावों में जैसी भीड़ नहीं दिखी, ऐसा हुजूम इस बार टिकटार्थियों का उमड़ रहा है। दिनभर कांग्रेसी नेता इनकी भीड़ से घिरे रहते हैं।
उधर राजस्थान चलें तो भाजपा अब तक यह तय नहीं कर पाई है कि आख़िर प्रदेश में किसके नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाएगा? वैसे तो मध्यप्रदेश की तरह राजस्थान सरकार ने भी ख़ज़ाना लुटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है फिर भी भाजपा को “इस बार वो, उस बार मैं” यानी हर बार सत्ता बदलने के राजस्थानी रिवाज के सिवाय कोई आसरा नहीं है। यहाँ सरकार इतना फूंक- फूंक कर कदम रख रही है कि एक घड़ियाली प्रेस कान्फ्रेंस के कारण कोटा रिवर फ़्रंट के उद्घाटन में अपना आगमन टाल देती है। वो भी आधी रात को।
छत्तीसगढ़ की हवा एकदम साफ़ है। इस साफ़ शब्द को विस्तार में कहना तो अभी से उचित नहीं होगा लेकिन राजनीतिक जानकार यह अच्छी तरह जानते हैं कि छत्तीसगढ़ में इस बार किसकी की जीत का रास्ता साफ़ है और कौन साफ़ होने वाला है। बहरहाल, चुनाव के एक- दो महीने पहले टिकट बाँटने की परम्परा शुरू हो चुकी है। यही परम्परा आगे भी जारी रहेगी, ऐसी सम्भावना है। टिकट समय रहते जारी होते रहे तो वोटरों को काफ़ी सहूलियत होगी। प्रत्याशियों को अच्छी तरह परखने का लोगों को वक्त मिल सकेगा और बहुत हद तक सही का चुनाव करने में भी सहायता मिलेगी।