जाति सर्वे के जवाब में बीजेपी अपना सकती है अलग रणनीति 

क्या इन 2 सियासी हथियारों से नीतीश कुमार के जातीय सर्वे का काउंटर कर पाएगी बीजेपी?
बिहार में जातीय सर्वे होने के बाद से सत्ताधारी पार्टी इसका विरोध कर रही है. साथ ही बीजेपी नेता इसका दूसरा तोड़ निकालने की तैयारी में भी हैं.
बिहार में जातीय सर्वे के आंकड़े सामने आने के बाद राजनीतिक माहौल गर्मा गया है. 3 अक्टूबर को छत्तीसगढ़ के जगदलपुर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नीतीश कुमार सरकार की बिहार जाति जनगणना और “जितनी आबादी उतना हक” की कहानी पर प्रतिक्रिया करते हुए कहा कि भारत के गरीब लोग आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा थे. 

पीएम मोदी ने अपने पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह के दिसंबर 2006 के उस बयान का भी जिक्र किया, जिससे विवाद पैदा हो गया था कि देश के संसाधनों पर पहला दावा अल्पसंख्यकों का होना चाहिए.

पीएम द्वारा किए गए इन दावों से साफ होता है कि बीजेपी ओबीसी को बड़े हिंदुत्व के दायरे में रखने और राजनीति में उनके प्रतिनिधित्व को बढ़ाने की तैयारी कर रही है. साथ ही बीजेपी सामाजिक कल्याण योजनाएं उनमें से सबसे ज्यादा गरीबों तक पहुंचाना चाह रही है. 

ऐसे में सरकार ओबीसी वर्ग के लिए पिछले 9 साल में किए गए अपने कामों को भुनाएगी. साथ ही इस वर्ग से जुड़ी दूसरी जरूरी मांगों को पूरा करने की कोशिशों में भी जुट जाएगी. इसके अलावा बीजेपी सरकार चुनाव से पहले वो तीन साल से अटकी ओबीसी क्रीमीलेयर का दायरा बढ़ाने की तैयारी कर रहा है.

क्या है क्रीमीलेयर?
ये एक आर्थिक और सामाजिक लाइन है, जिसके तहत OBC रिजर्वेशन के लाभ लागू होते हैं. सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में OBC के लिए 27% कोटा रिजर्व रहता है. जो क्रीमी लेयर में आते हैं, उन्हें कोटे के तहत लाभ नहीं मिलते.

पिछड़ा वर्ग आयोग (मंडल आयोग) की सिफारिशों के आधार पर सरकार ने 13 अगस्त 1990 को सामाजिक और आर्थिक तौर पर पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में 27% रिजर्वेशन का प्रावधान किया था. जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट में इसे चुनौती दी गई.

इस पर 16 नवंबर 1992 को सुप्रीम कोर्ट ने (इंदिरा साहनी केस) OBC के लिए 27% आरक्षण कायम रखा और क्रीमी लेयर को रिजर्वेशन के कोटे से बाहर रखा.

पुरानी मांग के आधार पर होगा फैसला
क्रीमीलेयर से जुड़े प्रस्ताव में विवाद का कारण बने कृषि संबंधी आय को दायरे से बाहर रखा गया है. वहीं सरकार की योजना क्रीमीलेयर के दायरे को 8 लाख से बढ़ाकर 12 लाख रुपए करने की है. बता दें क्रीमीलेयर बढ़ाने का मामला 2021 से अटका हुआ है.

इन उपलब्धियों को गिना सकती है बीजेपी सरकार
बिहार में जारी किए गए जातीय सर्वे के आंकड़ों के अनुसार राज्य में पिछड़ा वर्ग 27.12%, अति पिछड़ा वर्ग 36.12%, मुसलमान 17.52%, अनुसूचित जाति 19% और अनुसूचित जनजाति 1.68% हैं.

इस संख्या के आधार पर ये अनुमान लगाया जा रहा है कि आंकड़ों के सामने आने के बाद पिछड़ों की राजनीति करने वाले नेताओं को तो आने वाले चुनाव में फायदा मिल ही सकता है लेकिन दूसरी पार्टियों को इसका नुकसान भी उठाना पड़ सकता है. साथ ही इस सर्वे के जारी होने के बाद देश की राजनीति ‘धर्म बनाम राजनीति’ के दो धड़ों में बंट गई है.

वहीं आने वाले चुनावों में अपनी जीत की उम्मीद लगाई बैठीं धर्म की राजनीति करने वाली पार्टियों के लिए मुसीबत थोड़ी बढ़ गई है. 

हालांकि बीजेपी अब इस जातीय सर्वे के तोड़ के रूप में अपने कार्यकाल में पिछले 9 सालों में ओबीसी के पक्ष में लिए गए अपने फैसलों को आक्रामक प्रचार के लिए व्यापक अभियान छेड़ने की तैयारी कर रही है.

जिसमें ओबीसी आयोग को दिया गया सांविधानिक दर्जा, नीट में ओबीसी कोटा, ओबीसी छात्रों को फेलोशिप, पहली बार ओबीसी के लिए वेंचर कैपिटल फंड की स्थापना, नवोदय, सैनिक स्कूलों में ओबीसी आरक्षण, एसोसिएट प्रोफेसर भर्ती में ओबीसी आरक्षण की व्यवस्था करने संबंधी उपलब्धियां गिनाई जाएंगी. सरकार ये भी बताएगी कि केंद्रीय योजनाओं के कारण ओबीसी को कितना लाभ पहुंचा है.

मोदी सरकार में पिछले 10 सालों में अनुमानित 480 मिलियन लोगों ने जन धन बैंक खाते खोले, जहां सामाजिक क्षेत्र के लाभ सीधे स्थानांतरित किए जा रहे हैं. लाभों में बिजली, पक्के घर, पीने का पानी, शौचालय और रसोई गैस, बीमा और वित्तीय समावेशन के साथ-साथ व्यापार-संबंधित संपार्श्विक-मुक्त वित्त तक पहुंच शामिल है.

ये सभी लाभ बिना किसी ट्रांसमिशन हानि के सीधे लोगों के खातों में स्थानांतरित किए जाते हैं. भाजपा के एक शीर्ष नेता ने इंडिया टुडे से हुई बातचीत में कहा, ”अधिकांश लाभार्थी पिछड़े समुदायों-ओबीसी या दलित-से हैं और वे इसे स्वीकार करते हैं.”

मतदाताओं के इस वर्ग को लाभों के बारे में जागरूक करने के लिए भाजपा नियमित रूप से आउटरीच कार्यक्रम आयोजित कर रही है.

पार्टी विधायकों, सांसदों और पदाधिकारियों के साथ बातचीत के दौरान, पीएम मोदी उन्हें अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों में इन योजनाओं के बारे में बात करने के लिए प्रेरित करते हैं.

गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद के निदेशक बद्री नारायण तिवारी का तर्क है कि “सेवाओं के प्रभावी वितरण और लाभार्थी निर्वाचन क्षेत्र के विकास ने भाजपा को जाति पहचान की राजनीति को कमजोर करने में मदद की है.” वो बताते हैं कि हाल ही में शुरू की गई विश्वकर्मा योजना जैसे शासन के हस्तक्षेप, जिसमें 18 दस्तकार (कारीगर) समुदायों को लक्षित किया गया था, जो अब तक राजनीतिक रूप से अदृश्य थे, ने भाजपा को पार्टी के खिलाफ किसी भी ओबीसी एकीकरण को रचनात्मक रूप से विफल करने की अनुमति दी थी.

समान नागरिक संहिता लाने पर भी कर सकती है विचार
इसके अलावा बीजेपी की योजना समान नागरिक संहिता को लागू करने की भी हो सकती है. जिसमें सभी नागरिकों को एक समान कानून बनाने की वकालत की गई है. 

यूनिफॉर्म सिविल कोड या कहें समान नागरिक संहिता में देश में सभी धर्मों, समुदायों के लिए एक समान, एक बराबर कानून बनाने की वकालत की गई है. आसान भाषा में कहा जाए तो इस कानून का मतलब देश में सभी धर्मों, समुदायों के लिए कानून एक समान होने से है.

यह संहिता संविधान के अनुच्छेद 44 के तहत आती है. जिसमें ये कहा गया है कि  पूरे भारत के राज्यों में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास किया जाएगा.

यह मुद्दा एक सदी से भी ज्यादा समय से राजनीतिक नरेटिव और बहस के केंद्र बना हुआ है और बीजेपी के लिए प्राथमिकता का एजेंडा रहा है. भाजपा 2014 में सरकार बनने से ही UCC को संसद में कानून बनाने पर जोर दे रही है. 

अब जातीय सर्वे के आंकड़ो सामने आने के बाद और 2024 चुनाव आने से पहले इस मुद्दे ने एक बार फिर जोर पकड़ लिया है.

यह मंडल बनाम कमंडल 2 की लड़ाई?
विपक्षी गुटों में कई लोगों का मानना ​​है कि बिहार जाति सर्वेक्षण मंडल बनाम कमंडल राजनीति के दूसरे चरण की शुरुआत हो सकता है, जिससे भाजपा के लिए हिंदुत्व की कथा को बेचना थोड़ा मुश्किल हो जाएगा.

मंडल आंदोलन के बाद से भाजपा ने एक लंबा सफर तय किया है. 1980 और 1990 के दशक में, जनता दल ने ओबीसी के मुद्दे का समर्थन किया था, लेकिन इसके पतन और अलग हुए समूहों के कमजोर होने से भाजपा को मदद मिली. कई भाजपा नेता इन संगठनों से आए हैं.

आज, भाजपा और संघ परिवार सक्रिय रूप से अपने कैडर का निर्माण कर रहे हैं और ओबीसी समुदायों के बीच से नेतृत्व विकसित कर रहे हैं. वो भी टिप्पणी करते हैं कि अब स्थिति 1990 के दशक से अलग है.

1989 में ओबीसी सांसदों की संख्या अचानक 11 प्रतिशत से बढ़कर 21 प्रतिशत हो गई थी और 2004 तक बढ़ती रही उस वक्त तक ये 26 प्रतिशत तक पहुंच गई थी. हालांकि 2009 में ये संख्या घटकर 18 प्रतिशत पर आ गई.

इसके बाद 2019 में सबसे ज्यादा भाजपा के एक तिहाई सांसद (301 में से 113) ओबीसी समुदाय से थे. ये विस्तार ऊंची जातियों के विस्तार को कम करने की रणनीति पर हुआ था.                                                                  

6 राज्य करवा रहे अपने-अपने सर्वे
चंडीगढ़ के पंजाब विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ाने वाले और बिहार की जाति राजनीति पर नजर रखने वाले आशुतोष कुमार ने इंडिया टुडे से हुई बातचीत में बताया, “हलवा का प्रमाण खाने में है. हमें यह देखना होगा कि बिहार जाति सर्वेक्षण डेटा को नीति निर्धारण में कैसे लागू किया जाता है. बिहार को उन समुदायों के लिए क्रीमी लेयर नीति को भी आगे बढ़ाना होगा, जिनके पास आरक्षण का बड़ा लाभ है. इससे सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) असहज हो जाएगी.”

वहीं 6 अन्य राज्य भी अपने-अपने जाति सर्वेक्षण कर रहे हैं. भाजपा को इस बात का एहसास है कि 2024 के आम चुनाव के लिए ओबीसी उसकी योजनाओं के केंद्र में है. पार्टी को इस बात पर निर्णय लेने की जरूरत है कि क्या ओबीसी के लिए अधिक आरक्षण की मांग के रास्ते पर चलना है या जातिगत पहचान पर पर्दा डालने के लिए बड़े हिंदुत्व छत्र का इस्तेमाल करना है?

हालांकि, मंडल वर्सेज कमंडल की पहली लड़ाई में बीजेपी बिल्कुल पिछड़ गई थी. उसे 10 साल बाद सहयोगियों के जोड़-तोड़ से सत्ता नसीब हुई थी. 

उत्तर से दक्षिण तक ओबीसी जातियों का दबदबा
उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक ओबीसी जातियों का दबदबा है. कर्नाटक में भी जातीय सर्वे की रिपोर्ट जारी करने की मांग तेज हो गई है. यहां भी करीब 42 प्रतिशत ओबीसी हैं. उत्तर भारत के राज्यों में भी ओबीसी समुदाय की आबादी करीब 45 प्रतिशत के आसपास है. 

सीएसडीएस के मुताबिक हिंदी हार्टलैंड में जहां ओबीसी वोटर्स सबसे अधिक प्रभावी हैं, वहां लोकसभा की 225 सीटें हैं. बीजेपी और उसके गठबंधन को 2019 में इनमें से 203 सीटों पर जीत मिली थी. सपा-बसपा को 15 और बाकी 7 सीटें कांग्रेस को मिली थी. 

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