टिकट की दौड़ में पिछड़ क्यों जाती हैं महिलाएं ?
देश की विभिन्न पार्टियां महिला उम्मीदवारों को टिकट देने से झिझकती हैं। असल में सभी पार्टियां उन प्रत्याशियों की तलाश में रहती हैं, जिनके जीतने की संभावना बहुत अधिक हो।
महिला आरक्षण बिल यानी ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ आखिरकार पारित हो ही गया। राष्ट्रपति की मुहर के साथ राजनीति में महिलाओं के लिए वह स्थान सुनिश्चित हो गया जो कि पंचायती राज व्यवस्था में 1993 में उन्होंने पाया था। इस अधिनियम के पारित होते ही ‘किंतु- परंतु’ कि वह लंबी फेहरिस्त भी सामने आ गई, जो सत्ता के गलियारों में पिछले पचास वर्षों से गूंज रही है। सत्तासीन ही क्यों, आमजन के मन में भी गाहे-बगाहे ये प्रश्न उपजते हैं कि क्या महिलाएं राजनीति के दांव-पेच की समझ रखती हैं? क्या महिलाओं में नेतृत्व क्षमता पुरुषों की ही भांति है? क्या महिलाएं जिताऊ उम्मीदवार सिद्ध होती हैं?
जहां तक प्रश्न महिलाओं के चुनाव जीतने का है तो इस संबंध में पिछले चुनावी नतीजे को देखना होगा। राजस्थान में 2018 के विधानसभा चुनाव में जिन महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया गया था, उनका प्रतिशत 8.24 था और उनमें से जीतने वाली महिलाओं का प्रतिशत 12 रहा, ठीक उसी वर्ष मध्यप्रदेश में 8.62 प्रतिशत महिलाएं चुनाव में खड़ी हुईं और उनमें से 9.15 जीत गईं। उसी कालावधि में छत्तीसगढ़ के चुनाव की बात करें तो वहां 10.40 महिला उम्मीदवारों में से 14.44 महिलाएं चुनाव जीतीं।
अब प्रश्न उठता है कि क्या महिलाएं राजनीति के दांव-पेच की समझ रखती हैं। हमें यह विचारना ज्यादा जरूरी है कि राजनीति रणक्षेत्र बने ही क्यों ? साम- दाम- दंड- भेद की राजनीति किसी भी लोकतंत्रात्मक व्यवस्था के लिए हितकारी नहीं कहीं जा सकती। राजनीति में यह अधिक जरूरी है कि नेतृत्व पद पर आसीन व्यक्ति आम जनता के प्रति संवेदनशील हो, उसकी जरूरत और समस्याओं को समझें। इसमें किंचित भी संदेह नहीं कि जब भी ऐसे उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा है तो बिना किसी दांव-पेच या राजनीतिक पारिवारिक पृष्ठभूमि के भी वे विजयी रहे हैं। शोध बताते हैं कि दांव-पेच की राजनीति से दूर रहकर जब भी आरक्षित सीटों की बदौलत महिलाओं ने नेतृत्व पद प्राप्त किया है, तो उनके क्षेत्रों की तस्वीर बदली है। यह सच है कि आज भी कई स्थानों पर सरपंच- पति, भाई या पिता परोक्ष रूप से घुसपैठ करते दिखाई देते हैं। बावजूद इसके महिला सरपंचों ने अपने क्षेत्रों की स्वास्थ्य, शिक्षा और विकास की गति को बेहतर किया है। अगर इस संदर्भ में महिला विधायकों की चर्चा की जाए तो ‘यूनाइटेड नेशंस यूनिवर्सिटी वर्ल्ड इंस्टीट्यूट फॉर डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स रिसर्च’ की रिपोर्ट बताती है कि महिला नेता महिला और परिवार समर्थक नीतियों को लागू करके महिलाओं और बच्चों के मुद्दों पर ज्यादा प्रभावी प्रतिनिधित्व करती हैं। यह रिपोर्ट देश की विधानसभाओं के अध्ययन पर आधारित है। देश में महिला विधायकों ने अपने विधानसभा क्षेत्र की अर्थव्यवस्था में हर साल 1.8 प्रतिशत से वृद्धि की है जो कि पुरुष विधायकों की तुलना में कहीं अधिक है। यह रिपोर्ट इस प्रश्न का उत्तर है कि क्या महिलाएं नेतृत्व कर सकती हैं? क्या उनमें निर्णय लेने की क्षमता है? साफ है कि जब भी महिलाओं को मौका मिला है, उन्होंने बेहतर काम किया है।
अब सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्यों देश की विभिन्न पार्टियां महिला उम्मीदवारों को टिकट देने से झिझकती हैं। इसका उत्तर बहुत ही स्पष्ट है। असल में सभी राजनीतिक दल उन प्रत्याशियों की तलाश में रहते हैं, जिनके जीतने की संभावना ज्यादा से ज्यादा हो। मुश्किल यह है कि महिलाएं राजनीतिक समाजीकरण के अभाव के चलते प्राथमिक स्तर पर ही इससे दूरी बनाकर रखती हैं और अपनी भूमिका मतदान करने तक सीमित रखती हैं। चुनाव में अधिकांश महिला उम्मीदवार वे ही होती हैं जिनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि हो। आम परिवारों से निकलकर सार्वजनिक जीवन में सम्मिलित होने के लिए आत्मबल, मुखरता और निडर होना अपरिहार्य है और ये सारी विशेषताएं राजनीतिक समाजीकरण से ही प्राप्त की जा सकती हैं। महिला उम्मीदवारों पर किए गए शोध बताते हैं कि उन महिलाओं के राजनीति में आने के मार्ग सहज होते हैं जो राजनीतिक पृष्ठभूमि से संबंध रखती हैं। इसका स्पष्ट कारण ‘राजनीतिक समाजीकरण’ है क्योंकि ऐसी महिलाएं राजनीति को लेकर सहज होती हैं, वे राजनीति को नवीन विषय नहीं मानतीं, लेकिन एक सामान्य परिवार से संबंधित महिला के लिए यह आसान नहीं। ध्यान रहे जिस तरह महिला सरपंच की कार्यप्रणाली, नेतृत्व और उसके निर्णय लेने की क्षमता उसे क्षेत्र विशेष की युवा लड़कियों को प्रभावित एवं प्रेरित करती है, ठीक उसी तरह राज्य-स्तर पर विधायिका में महिलाओं की संख्या में बढ़ोतरी अन्य महिलाओं को भी प्रेरित करेंगी।