एक फैसला जो अंतरराष्ट्रीय कानून की जिम्मेदारी को बाधित करता है !

एक फैसला जो अंतरराष्ट्रीय कानून की जिम्मेदारी को बाधित करता है 

इससे विदेशीयों के लिए भारत में बिजनेस करना मुश्किल हो गया है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने असेसिंग ऑफिसर सर्किल (इंटरनेशनल टैक्स) नई दिल्ली बनाम मेसर्स नेस्ले एसए के मामले में कहा, नेस्ले (जो एक स्विस मल्टीनेशनल कंपनी है) स्टेरिया (यूरोपीय कंपनी) जैसे निगमों से जुड़े 11 केस के फैसले को देखना चाहिए।

इसमें सबसे मुश्किल सवाल ये था कि क्या भारत द्वारा किये गए टैक्सेशन अवॉइडेंस एग्रीमेंट में सबसे पसंदीदा नेशन (MFN) सेक्शन 90 के अनुसार बिना किसी जानकारी के भारत में प्रभावी किया जा सकता है।

इनकम टैक्स एक्ट डबल टैक्सेशन अवॉइडेंस एग्रीमेंट (DTAAs) के तहत आय पर दो बार टैक्स लगाने से बचने के लिए अन्य देशों के साथ एग्रीमेंट करने की अनुमति देता है।

मोस्ट फेवर्ड नेशन के दर्जे पर

भारत का DTAAs नीदरलैंड, फ्रांस और स्विट्जरलैंड के साथ ये तीनों देश आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) के सदस्य हैं, पर 10% विदहोल्डिंग टैक्स (विदेशी कंपनियों की भारतीय संस्थाओं द्वारा भुगतान किए गए लाभ पर टैक्स) लगाने की जरूरत है।

ये DTAAs में MFN (मोस्ट फेवर्ड नेशन) प्रोविजन भी शामिल हैं। इस तरह भारत किसी तीसरे देश जो ‘OECD’ का सदस्य है, तो उसे प्राथमिकता के साथ टैक्स में फायदा दिया जाता है, तो वह फायदा नीदरलैंड, फ्रांस और स्विट्जरलैंड को उनके संबंधित DTA के तहत दिया जाना चाहिए।

स्लोवेनिया, कोलंबिया और लिथुआनिया के साथ भारत के DTA में 5% की कम विदहोल्डिंग टैक्स की जरूरत है। जब भारत ने इन देशों के साथ पर साइन किए, तो वे OECD के सदस्य नहीं थे, लेकिन बाद में इस ग्रुप में शामिल हो गए।

DTAAs जब केस शुरू में दिल्ली हाई कोर्ट के सामने आया, तो उसने माना कि MFN (मोस्ट फेवर्ड नेशन) प्रावधान के तहत, भारत-स्लोवेनिया DTAAs में अधिमान टैक्स का विस्तार भारत-नीदरलैंड DTAAs तक होना चाहिए।

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए इसे खारिज कर दिया कि जब भारत-नीदरलैंड DTAAs पर साइन किए गए थे, तब स्लोवेनिया OECD का मेम्बर नहीं था।

इस प्रकार, स्लोवेनिया को दिए गए फायदे, जो बाद में OECD सदस्य बन गए, भारत-नीदरलैंड DTAAs पर लागू नहीं होते हैं। इस फैसले से विदेशी निवेशकों पर अनुमानित 11,000 करोड़ रुपये का टैक्स पड़ेगा। इससे पुराने केस भी खुल सकते हैं।

ये तर्क खास है कि ये किसी संधि (ट्रीटी) के प्रोविजन के समय पर इसे फ्रीज कर देता है। उदाहरण के लिए भारत-नीदरलैंड DTAA के संबंध में ये साबित करने के लिए कुछ भी नहीं है कि ‘OECD उन देशों तक ही सीमित है, जो संधि के समय सदस्य थे।

ये हैरान करने वाला है कि हाई कोर्ट ने किसी इंटरनेशनल ट्रीटी में किसी शब्द को समझाने के लिए घरेलू टेक्निक का उपयोग किया है। जैसे

इस तरह से किसी शब्द को बताने के लिए MFN का भेदभाव से दूर होना इसके उद्देश्य को खत्म कर देता है। MFN एक ट्रीटी में ये पक्का करता है कि ट्रीटी पर साइन करने वाले सभी देशों में से किसी एक देश के माध्यम से किसी तीसरे देश के ट्रीटी में शामिल होने पर उसे ऑटोमेटिक वही अधिकार मिल जाएंगे।

डयूलिज्म वापस आता है

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि DTAA में MFN प्रोविजन को प्रभावी बनाने के लिए, आयकर अधिनियम की धारा 90(1) के तहत नोटिफिकेशन जरूरी और अनिवार्य है।

इस प्रकार, न्यायालय ने द्वैतवाद (डयूलिज्म)के सिद्धांत की वकालत की, जिसमें अंतरराष्ट्रीय कानून घरेलू स्तर पर तब तक लागू नहीं किया जा सकता, जब तक कि इसे बेहतर कानून के माध्यम से नगरपालिका कानून में परिवर्तित नहीं किया जाता है।

हालांकि, ये सच है कि भारतीय संविधान इस तरह के ऑफिशियल (डयूलिज्म) अद्वैतवादी का प्रोविजन देता है। सुप्रीम कोर्ट इस सिद्धांत से दूर, जो नियम देश में लागू होते हैं, उन्हें अंतरराष्ट्रीय कानून को शामिल करने की अद्वैतवादी परंपरा की ओर बढ़ गया है, भले ही इसे साफ तौर पर शामिल नहीं किया गया हो। भले ही ये इंटरनेशनल कानून हो।

ये सिद्धांत PUCL बनाम भारत, विशाखा बनाम राजस्थान स्टेट और पुट्टास्वामी भारत संघ जैसे मामलों में तय किया गया है। इन मामलों में आधार घरेलू यानी भारतीय और अंतरराष्ट्रीय कानून के बीच ‘अनुकूलता की विचार’ या ‘स्थिरता का विचार’ था।

इस विचार को तभी खारिज किया जा सकता है, जब कोई घरेलू कानून, किसी अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन ना करता हो। दूसरे शब्दों में जहां तक हो सके घरेलू कानून को ऐसे बताया जाए, जो अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत भारत के कानून का उल्लंघन ना करता हो।

ये तय करता है कि नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय कानून को प्रभावी बनाया जाए। भले ही विधायिका और कार्यपालिका ने किसी भी कारण से इसे घरेलू कानून में बदलने के लिए काम नहीं किया हो।

इस तरह, अंतर्राष्ट्रीय कानून केवल एक समझाने वाला इंस्ट्रूमेंट नहीं है। घरेलू स्तर पर यानी भारत में इसके अपने मतलब हैं। आश्चर्य की बात है कि कोर्ट ने अपने तर्क में इस प्रकार के मामलों के बारे में बात नहीं की है।

यह निर्णय विशाखा जैसे मामलों द्वारा अंतरराष्ट्रीय कानून को गंभीरता से लेने की प्रगतिशील न्यायिक यात्रा के लिए एक झटका है। यदि भारत ने एक नोटिफिकेशन जारी किया था, जो स्पष्ट रूप से कुछ DTAA में MFN प्रावधान के खिलाफ थी, तो कोई यह तर्क दे सकता था कि घरेलू और अंतरराष्ट्रीय कानून के बीच अंतर है। इस तरह, घरेलू मामले में इसे माना जाना चाहिए ना कि अंतरराष्ट्रीय मामले में।

हालांकि, धारा 90(1) के तहत नोटिफिकेशन के बिना, न्यायालय को आयकर अधिनियम के साथ DTAA में निहित भारत के अंतरराष्ट्रीय कानून का सही अर्थ बताना चाहिए था। इसे भारतीय कानून के हिस्से के रूप में DTAA प्रावधान को पढ़ना चाहिए था। किसी भी स्थिति में, धारा 90(1) के तहत नोटिफिकेशन जारी करना एक कार्यकारी है, विधायी कार्य नहीं।

इसलिए, द्वैतवाद के सिद्धांत से भी, न्यायालय का तर्क संदिग्ध है। न्यायालय की व्याख्या कार्यपालिका को घरेलू स्तर पर नोटिफिकेशन जारी न करके अपने अंतर्राष्ट्रीय कानून दायित्वों को पूरा करने की अनुमति देती है।

यह न केवल अंतरराष्ट्रीय कानून के उल्लंघन को तर्कसंगत बनाता है, बल्कि द्विपक्षीय निवेश संधियों जैसे अंतरराष्ट्रीय कानून के अन्य उपकरणों के तहत भारत को अंतरराष्ट्रीय दावों के प्रति अतिसंवेदनशील भी बनाता है।

इस फैसले ने एक बार फिर उस कहावत को साबित कर दिया है कि सुप्रीम कोर्ट सर्वोच्च है क्योंकि वह अंतिम है, इसलिए नहीं कि वह अचूक है। मूल्यांकन अधिकारी बनाम नेस्ले मामले में हालिया निर्णय अंतरराष्ट्रीय कानून के उल्लंघन को तर्कसंगत बनाता है और भारत को असुरक्षित बनाता है।

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