भारत में कितना मुश्किल है महिला का पहलवान होना ?
भारत में कितना मुश्किल है महिला का पहलवान होना, साक्षी मलिक के आंसू में छिपा है इसका राज?
बृजभूषण सिंह के करीबी संजय सिंह को भारतीय कुश्ती महासंघ का अध्यक्ष चुन लिया गया है, जिसके बाद भारतीय रेसलर साक्षी मलिक ने सन्यास लेने का ऐलान कर दिया है.
संजय सिंह के पूरे पैनल को बहुमत से जीत हासिल हुई है. भारतीय कुश्ती महासंघ (WFI) का अध्यक्ष चुने जाने के कुछ देर बाद ही एक तस्वीर सामने आती है. जिसमें बृजभूषण सिंह के गले में ढेरों मालाएं दिख रही हैं और अध्यक्ष पद के लिए चुने गए बृजभूषण के करीबी संजय सिंह उनके पास खड़े हैं.
ये खबर बाहर आते ही ओलंपिक पदक जीतने वाली देश की पहली महिला रेसलर साक्षी मलिक एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करती हैं. जिसमें रोते हुए वो अपने जूते मंच पर रखती हैं और कुश्ती से सन्यास ले लेती हैं.
इससे साफ होता है कि बीजेपी सांसद बृजभूषण सिंह का दबदबा कितना है और संजय सिंह उनके कितने खास हैं. अबतक आप समझ ही गए होंगे कि मामला महिला कुश्ती पहलवानों द्वारा बृजभूषण सिंह पर लगाए गए आरोपों और उनके द्वारा किए गए प्रदर्शन से जुड़ा है. जब सिंह की गिरफ्तारी की मांग करते हुए दिल्ली के जंतर मंतर पर साक्षी मलिक, विनेश फोगाट और बजरंग पुनिया समेत तमाम खिलाड़ियों ने कई हफ्तों तक विरोध प्रदर्शन किया था.
इसके बाद बृजभूषण को कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष पद से हटा दिया गया था. पहलवानों ने केंद्रीय खेल मंत्री अनुराग ठाकुर से बृजभूषण के किसी भी करीबी को WFI का चुनाव न लड़ने देने की अपील की थी. हालांकि इस चुनाव में बृजभूषण के बेटे और दामाद नहीं उतरे, लेकिन संजय सिंह की जीत ने महिला पहलवानों को ठेस पहुंचाई.
भारत में जहां महिलाओं को पितृसत्तात्मकता सोच की दीवारें तोड़कर आगे बढ़ना पड़ा, वहां साक्षी मलिक जैसी महिला पहलवानों के लिए कुश्ती की राह बिल्कुल भी आसान नहीं थी. जिस देश में महिलाओं को सुंदर दिखने और शादी कर अपना परिवार बसाने की सलाह दी जाती है, वहां पुरुषों का खेल माने जाने वाली पहलवानी को अपने करियर के तौर पर चुनना काफी बड़ी चुनौती है. जो साक्षी मलिक को इस तरह सन्यास लेते हुए देखकर आज भी लगती है.
भारत की पहली महिला पहलवान जिसे कोई पुरुष हरा न सका
भारत की पहली महिला पहलवान का हमीदा बानो थीं. 1950 के दशक में जब महिलाओं को कुश्ती लड़ते देखना आश्चर्य की बात मानी जाती थी उस दौर में हमीदा बानो ने कई मर्दों को अपनी पहलवानी से चित कर दिया था.
हालांकि उस जमाने में जब मर्दों का किसी महिला से लड़ना शर्म की बात मानी जाती थी, हमीदा के लिए कुश्ती करना काफी मुश्किल था. हमीदा का जन्म मिर्जापुर में हुआ था और सलाम नाम के एक पहलवान की उस्तादी में उन्होंने अलीगढ़ में कुश्ती की ट्रेनिंग ली. 107 किलो वजनी और 5 फुट 3 इंच लंबी हमीदा ने पुरुषों को चुनौती दी थी कि यदि उनसे कोई पहलवान जीतता है तो वो उससे शादी कर लेंगी.
पुरुष किसी महिला द्वारा दी गई इस चेतावनी से काफी स्तब्ध थे. बड़ौदा में बाबा पहलवान ने उनकी इस चुनौती को स्वीकार किया. इस कुश्ती को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आए. लोगों के लिए बैठने की व्यवस्था भी की गई थी. सभी को किसी महिला के साथ पुरुष को कुश्ती लड़ते देखना हैरानी की बात थी.
हालांकि हमीदा ने बाबा पहलवान को एक मिनट 34 सेकंड में ही हरा दिया और इस मुकाबले में विजेता घोषित हुईं. इस मैच के बाद बाबा पहलवान ने सन्यास ले लिया था. अपने जीवन में हर दंगल में हमीदा को जीत हासिल हुई लेकिन फिर भी कई लोग उन्हें बनावटी करार देते थे.
पुरुषों की दुनिया में हमीदा के लिए कुश्ती लड़ना आसान नहीं था. कुछ लोगों में तो इस बात का गुस्सा था कि कोई महिला पुरुषों को इस तरह ललकार रही थी और कुश्ती के मैदान में उन्हें पछाड़ रही थी. एक दफा महाराष्ट्र के कोल्हापुर में जब एक मैच में उन्होंने शोभा सिंह पंजाबी नाम के एक पहलवान को हराया तो उन्हें लोगों ने पत्थर मारे. उस वक्त भीड़ को काबू करने के लिए पुलिस को भी बुलाना पड़ गया था.
महिला होने के चलते पितृसत्तामक सोच के लोग उनपर अक्सर ये आरोप लगाते थे कि वो पहलवानों से बाहर ही साठ गांठ कर लेती थीं, तभी कोई पहलवान उन्हें हरा नहीं पाता और पहले ही खुद को हारा हुआ मान लेता था. एक बार तो हमीदा का एक मुकाबला ही रद्द कर दिया गया था.
जिसकी शिकायत उन्होंने उस वक्त राज्य के मुख्यमंत्री से भी की थी. हालांकि मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई ने उन्हें ये जवाब दिया था कि व्यवस्थापकों की लगातार ये शिकायतें आ रही हैं कि वो हमीदा के सामने डमी पहलवान उतार रहे हैं इसलिए ये मुकाबला रद्द किया गया था.
हमीदा ने अपनी जिंदगी में हर मुकाबले में जीत हासिल की. 1954 में उन्होंने वीरा चस्तेलिन को एक मिनट से कम समय में हरा दिया था. इसके बाद उन्होंने यूरोप जाकर वहां के पहलवानों से कुश्ती लड़ने का ऐलान कर दिया. हालांकि इसके बाद हमीदा का नाम इतिहास में दर्ज हो गया और उनके कोई मुकाबला लड़ने की खबर सामने नहीं आई.
कैसे महिलाओं के लिए कुश्ती करना हुआ सामान्य
कुछ दशकों तक महिलाओं के लिए कुश्ती लड़ना इतना सामान्य नहीं था. हालांकि पिछले एक दशक में कुश्ती में महिलाओं के लिए काफी सुधार देखा गया है. जब गीता फोगाट, बबीता फोगाट और विनेश फोगाट जैसी महिला खिलाड़ियों ने ये साबित कर दिया कि कुश्ती में वो भी अपना वर्चस्व रखती हैं.
फोगाट बहनों और उनके पिता महावीर फोगाट के संघर्ष को दर्शाते हुए आमीर खान स्टारर फिल्म दंगल भी बनी थी. जिसमें ये दर्शाया गया था कि इस खेल में आना महिलाओं के लिए कितना मुश्किल है. हालांकि इस फिल्म की रिलीज से पहले ही फोगाट बहनों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जीत हासिल कर ली थी. गीता और बबीता फोगाट ने 2009 में राष्ट्रमंडर चैंपियनशिप में अपना पहला अंतर्राष्ट्रीय खिताब जीता था.
इसके बाद 2010 में गीता फोगाट ने कॉमनवेल्थ गेम्स में स्वर्ण पदक जीता था. इसी खेल में बबीता फोगाट ने रजत पदक जीतकर ये साबित कर दिया कि कुश्ती में महिलाओं का स्थान भी है.
ओलंपिक जीतने वाली पहली महिला रेसलर ‘साक्षी मलिक’
साक्षी मलिक ओलंपिक जीतने वाली पहली महिला रेसलर हैं. उन्होंने 12 साल की उम्र में कुश्ती की ट्रेनिंग लेना शुरू की थी. 2013 में साक्षी ने कॉमनवेल्थ गेम्स में कांस्य पदक जीता.
वहीं 2014 में राष्ट्रमंडल खेलों और 2015 के एशियाई चैंपियनशिप में रजत पदक जीतकर वो अपना विजय रथ आगे बढ़ाती रहीं. रियो 2016 में गीता फोगाट की जगह विश्व ओलंपिक क्वालीफायर में साक्षी मलिक का नाम सामने आया. ये साक्षी का ओलंपिक में डेब्यू था और अपने डेब्यू के दौरान ही उन्होंने ओलंपिक पदक जीतकर इतिहास रच दिया.
साक्षी अपने दूसरे ओलंपिक की तैयारी में थीं लेकिन सियासत ने उनका मनोबल बुरी तरह तोड़ी दिया.
बृजभूषण के करीबी संजय सिंह की जीत महिला पहलवानों की हार साबित हुई?
साक्षी मलिक समेत तमाम महिला पहलवानों ने WFI के पूर्व चीफ और बीजेपी सांसद बृजभूषण शरण सिंह पर यौन शोषण के आरोप लगाए थे. महिला पहलवानों के समर्थन में पुरुष पहलवानों ने भी दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रोटेस्ट किया था. जिसके बाद बृजभूषण सिंह को भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष पद से हटा दिया गया. हालांकि अब जब फिर WFI के चुनाव हुए तो बृजभूषण के करीबी संजय सिंह को अध्यक्ष पद के लिए चुना गया. उनके सामने हरियाणा से आने वाली पूर्व पहलवान और राज्य पुलिस सेवा में कार्यरत अनिता श्योरण चुनाव लड़ रही थीं.
जिन्हें संजय सिंह के सामने हार का सामना करना पड़ा. वहीं संजय सिंह की जीत के बाद कुछ पोस्टर सामने आए हैं जिसमें बृजभूषण की तस्वीर सबसे पहले छपी नजर आ रही है और पोस्टर पर लिखा है, “दबदबा तो है, दबदबा तो रहेगा, ये तो भगवान ने दे रखा है.”
साक्षी मलिक ने कुश्ती से सन्यास लेते हुए कहा, “अगर प्रेसीडेंट बृजभूषण जैसा आदमी ही रहता है, जो उसका सहयोगी है, उसका बिजनेस पार्टनर है. वो अगर इस फेडरेशन में रहेगा तो मैं अपनी कुश्ती को त्यागती हूं. मैं आज के बाद आपको कभी भी वहां नहीं दिखूंगी.”
इसके बाद साक्षी ने आगे कहा, “लड़ाई लड़ी, पूरे दिल से लड़ी… हम 40 दिनों तक सड़कों पर सोए और देश के कई हिस्सों से बहुत सारे लोग हमारा समर्थन करने आए. सभी देशवासियों को धन्यवाद जिन्होंने आज तक मेरा इतना सपोर्ट किया.”
इससे साफ होता है कि कुश्ती में ओलंपिक मेडल भारत लाने वाली पहली महिला पहलवान साक्षी मलिक को जिस दुखद तरीके से बाहर होना पड़ा वो कितना पीड़ादायी था. साथ ही इसके बाद अब आने वाली पीढ़ी की महिलाएं इस खेल में आने से डरेंगी या अब भी उसी निडरता से कुश्ती में आना चाहेंगी? इस बात का अंदाजा लगाना मुश्किल है, क्योंकि साक्षी मलिक जैसी महिला खिलाड़ियों को शिकायत के बाद भी मायूसी का सामना करना पड़ा है. इसके साथ ही महिला खिलाड़ियों की शिकायत पर किस तरह का एक्शन लिया जाता है देश में ये संदेश भी सभी के सामने है.