चुनावों का बोझ ?

चुनावों का बोझ: देश हित को प्राथमिकता दे रहे मतदाता, आर्थिक अधिकारों के लिए भी रहना होगा सजग
मतदाता चुनावों के आर्थिक बोझ को समझने लगा है, इसलिए वह अपनी व्यक्तिगत पसंद को दरकिनार करके देश हित को प्राथमिकता दे रहा है।

इन दिनों प्रत्येक भारतीय हर चुनाव में खुलकर भागीदारी कर रहा है तथा अपने मुल्क के लिए हर सूबे में एक बड़े बहुमत के साथ सरकार चुन रहा है। अब वह चुनावों के आर्थिक बोझ को अपने आर्थिक विकास में एक बहुत बड़ी बाधा मानता है, इसी कारण खंडित जनादेश भारतीय लोकतंत्र से लगभग खत्म होता जा रहा है। वह अब आर्थिक विकास के नकली दंभ को बिल्कुल भी नहीं रखना चाहता। कारण एक ही है कि 75 वर्ष के इस आजाद मुल्क की तकरीबन तीन पीढ़ियों का आर्थिक संघर्ष उसके जीवन में आज भी है।

भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, जिस पर हमें गर्व है, पर यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि चुनावों के दौरान प्रत्येक मतदाता पर आने वाली लागत उसके प्रतिदिन के आर्थिक जीवन स्तर की लागत से तुलनात्मक रूप से दोगुनी रहती है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान प्रति मतदाता लागत तकरीबन आठ डॉलर थी, जबकि उस चुनाव से चार वर्ष बाद भी देश में प्रति व्यक्ति आय प्रतिदिन के हिसाब से करीब तीन डॉलर या मात्र 250 रुपये के लगभग ही थी। यह आंकड़ा इस बात को स्पष्ट करता है कि भारतीय चुनाव बहुत महंगे होते जा रहे हैं और इनकी आर्थिक लागत अंततः वित्तीय संसाधनों की कमी के चलते आम नागरिक के विकास में बाधा के रूप में सामने आती है।

अब समय आ गया है, जब इस बात पर भी गौर किया जाए कि यदि पिछले 75 वर्षों में एक आम भारतीय का जीवन आर्थिक रूप से बहुत अधिक समृद्ध नहीं हुआ है, तो इस संदर्भ में कुछ समस्याओं का जिक्र अमूमन होता है, मसलन, जनसंख्या में बढ़ोतरी, लगातार बेरोजगारी, बढ़ी हुई महंगाई, कृषि क्षेत्र पर अधिक निर्भरता व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की कमी। पर अब, इन सब में देश के विभिन्न चुनावी खर्चों को भी क्यों न शामिल किया जाए?

देश के पहले आम चुनाव में प्रति मतदाता चुनाव लागत 60 पैसे थी, जो वर्ष 2004 में 17 रुपये हो गई। यह लागत वर्ष 1985 तक दो रुपये प्रति मतदाता रही। यहां यह जिक्र करना भी आवश्यक है कि वर्ष 1952 के पहले आम चुनाव के दौरान देश में कुल मतदाताओं की संख्या तकरीबन 17 करोड़ के आसपास थी, जो 2019 के लोकसभा चुनाव में बढ़कर करीब 90 करोड़ हो गई। यानी आजादी के बाद से पिछले 17 आम चुनावों में मतदाताओं की संख्या पांच गुना से अधिक बढ़ी है, जबकि उन पर आने वाली चुनावी लागत उससे बहुत अधिक रही। विभिन्न रिपोर्टों के मुताबिक, 2019 में हुए चुनाव पर कुल 55,000 करोड़ रुपये का खर्च आया था, जबकि वर्ष 1952 के पहले आम चुनाव में यह लागत करीब 11 करोड़ थी।

हैरानी की बात यह भी है कि 2019 का आम चुनाव अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की लागत से भी ज्यादा महंगा था। बीते दिनों जब पांच राज्यों के चुनावों का परिणाम आया, तो यह बात एक बार फिर से देखने को मिली कि किसी भी राज्य में खंडित जनादेश नहीं था। दूसरी बात यह कि आम आदमी के विकास के संबंध में बनाई गई योजनाओं को, जिन्हें चाहे लोक-लुभावन योजनाएं या ‘रेवड़िया बांटने’ जैसे मुहावरों से जोड़ा जाए, जनता का समर्थन मिला, तो इसका मतलब है कि आम व्यक्ति बुनियादी ढांचे के विकास के इतर भी अपने व्यक्तिगत जीवन में कुछ सुविधाएं चाहता है। चुनाव में मतदाता आर्थिक सोच से ही प्रभावित होता है, न कि किसी अन्य उद्देश्य या नैरेटिव से।

इसमें भी दो राय नहीं है कि आर्थिक रूप से सजग रहने के बावजूद एक आम मतदाता चुनावों में हर बार धोखा खाता है। ऐसा न हो कि लगातार बढ़ रही जीडीपी को आम व्यक्ति अपने आर्थिक विकास का मुख्य आधार मानने लगे और अमीरी-गरीबों के बीच खाई लगातार बढ़ती चली जाए। यह बात और अधिक दर्द देती है, जब पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के बावजूद प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोतरी के लिए हम 2047 तक की समय सीमा निश्चित करते हैं और यह सपना देखते हैं कि आजादी के सौवें वर्ष में तो हम विकसित मुल्क बन जाएंगे। इसलिए लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को चुनावों के दौरान आर्थिक नीतियों पर अपना रुख विश्लेषित करना होगा। आम मतदाता को भी अपने आर्थिक अधिकारों के लिए अधिक सजग रहना होगा, जैसे वह चुनावों के आर्थिक बोझ को समझने लगा है, जिसके चलते वह अपनी व्यक्तिगत पसंद को दरकिनार करके देश हित को प्राथमिकता दे रहा है।

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