सत्ता का स्वभाव .. भारतीय धरातल जरूरी !

सत्ता पक्ष की सदा आलोचना होती है। सत्ता का अपना मद भी होता था, होता है और होता रहेगा। सीता की भी अग्नि-परीक्षा हुई थी। अंत में धरती में समाना पड़ा। आलोचक तब प्रभावी होता है, जब स्वयं ज्ञानवान हो, चरित्रवान हो और सकारात्मक दृष्टि रखता हो। उसकी तो राजा भी सुनता था। आज तो लोकतंत्र है। आज विपक्ष में आलोचना-द्वेष-ईर्ष्या-कटाक्ष तो सब हैं, किन्तु देश के मुद्दों पर संवाद करने वाले कम होते जा रहे हैं। आलोचना के लिए आलोचना हो रही है, पता नहीं क्यों!

लोकतंत्र आज लॉटरी का टिकट बन गया विपक्ष के लिए। जीत गए तो राज करेंगे, हार गए तो अपना काम करेंगे। लोकतंत्र पर ताला -चार साल। इस बार के विधानसभा के चुनावों ने इस अर्थ में चौंका दिया कि प्रत्याशी स्वयं लोकतंत्र बन बैठा। टिकट मिला तो ठीक, नहीं मिला तो बागी। हारे मेरी बला से पार्टी प्रत्याशी, मुझे तो जीतना है। अभी अवसर है कि प्रत्येक दल को इस परिस्थिति का आकलन करना चाहिए। चुनाव के तुरंत बाद विपक्ष का गायब हो जाना इस बात का प्रमाण है कि जनप्रतिनिधि को सत्ता में तो विश्वास है, किन्तु लोकतंत्र में विश्वास नहीं है। ऐसे व्यक्ति जब सत्ता में आते हैं तो अपना ही हित देखते हैं, जनता का नहीं।

चुनाव पूर्व तीनों राज्यों में विपक्ष की तस्वीर पर नजर डालें। सब स्पष्ट हो जाएगा। राजस्थान में चुनाव के बाद वसुंधरा राजे ने इतने दावे किए, मुख्यमंत्री बनने के लिए। चुनाव पूर्व के पांच वर्षों में कहां थी। क्यों विपक्ष का नेता बनना स्वीकार नहीं किया? इसी में उत्तर है कि लोकतंत्र का कितना सम्मान है मन में। सत्ता में आसक्त अवश्य हैं। सत्ता में रहकर भी कितने घोटालों की फाइलें खोलीं? ऐसा का ऐसा व्यवहार अशोक गहलोत ने भी दिखाया जब वे विपक्ष में थे।

कांग्रेस का स्वभाव केवल सत्ता में रहने का है। विपक्ष में कार्य करने की सोच ही नहीं है। आलाकमान (सोनिया- राहुल गांधी) को आज तक यह स्पष्ट नहीं हुआ कि केन्द्र में कांग्रेस का प्रभाव क्यों कम होता जा रहा है। न ही उसे सत्ता पक्ष पर निगरानी रखने की- छाया मंत्रिमंडल बनाने की जरूरत लगती है। उनकी कार्यशैली सत्ता पक्ष और राष्ट्रीय मुद्दों से स्वतंत्र रहती है।

कांग्रेस को सदन में बहस की तैयारी दिखानी चाहिए। समस्याओं के निराकरण में वैकल्पिक सुझाव भी देने चाहिए। जनप्रतिनिधि अपने क्षेत्रों के मुद्दे भी नहीं उठाते क्योंकि उनकी सरकार में भी मुद्दे वही थे। कानून बनाना, संशोधन करना भी सक्रियता मांगता है। अभी, तीनों हिन्दी प्रदेश राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को सक्रिय भागीदारी निभानी चाहिए।

भारतीय धरातल जरूरी

कांग्रेस जन आंदोलन करना तो भूल बैठी। सेवादल सिमट गया। जो नियमित बैठकें, अधिवेशन होते थे वे भी चल बसे। सत्तारूढ़ दल मनमानी करें तो अंकुश लगाने की तैयारी नहीं है। न गंभीर प्रश्न पूछे जाते, न कार्यकर्ता, अधिकारों का उपयोग करते, तब सरकार की पारदर्शिता कौन निश्चित करेगा?

पांच साल के विपक्ष के कार्यकाल का उपयोग उसे संगठन के ढांचे को मजबूत करने में लगाना चाहिए। अगले चुनावों की तैयारी में लगना चाहिए। समय किसके पास है! कांग्रेस, नए-ऊर्जावान लोगों को अधिकार देकर ऊपर लाने को तैयार नहीं है। अभी हाल ही कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने अपनी टीम में पुराने-अनुभवी चेहरों को ही अधिक महत्व दिया है। कांग्रेस को गांधी परिवार से बाहर नहीं ला सके। कांग्रेस को पुनर्जीवित करने का साहस नहीं दिखा पाए। हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी ले डूबेंगे।

हाल ही के विधानसभा चुनावों में राजस्थान में एक हवा चल पड़ी कि दिल्ली और गहलोत सरकार के मध्य समीकरण गड़बड़ा गए। चुनाव, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बीच ही हुए। विज्ञापनों में भी केवल मुख्यमंत्री का ही चित्र था। इस संदेश ने सारी योजनाओं पर पानी फेर दिया। अपराधी तत्व सिर उठा बैठे। कानून व्यवस्था ठप हो गई। भ्रष्टाचार शिखर पर जा बैठा। किसी को किसी का भय नहीं रहा। अब विपक्ष में बैठकर ये लोग किस हैसियत से बात करेंगे।

ये तो यही है कि कांग्रेसी भी हैं तो हमारे ही बीच के, किन्तु उनकी रुचि हमारी ओर नहीं है। इनमें कई भारतीयता, परम्पराएं, अध्यात्म-योग से दूर होकर विदेशी भोगवाद के प्रतिनिधि रहे हैं। उनके कानून भी विदेशी चश्मे से देखकर बनते रहे हैं। तुष्टिकरण ने पिछले पांच सालों में भी ताण्डव कम नहीं दिखाया। भविष्य में युवा शक्ति विदेशी चिन्तन को स्वीकार नहीं करेगी। कांग्रेस को पुन: भारतीय धरातल पर, भारतीयों के लिए नेतृत्व तैयार करना पड़ेगा। नहीं तो स्वार्थवश आपसी टकराव ही काफी है समेटने के लिए। राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट को देखा। मध्यप्रदेश में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह भिड़ गए। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव ने निपटा दिया। इसी को कहते हैं, बाड़ खेत को खाय। दिल्ली में भी राहुल-प्रियंका के मतभेद की चर्चाएं जोर पकड़ चुकी थीं। इनके चुनाव प्रचार का क्षेत्र कुछ कह रहा था। भारत के लिए नेतृत्व क्षमता, अनुभव और चिन्तन दोनों के भाषणों में नहीं रहा। भावी दृष्टि भी नहीं दे पाए। वे भारत को कहां देखना चाहते हैं। आज भी जब विपक्ष में बैठे हैं, तो अपने सदस्यों के साथ भारत की विश्व में भूमिका पर चर्चा करनी चाहिए। आपस में कपड़े फाड़कर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के युग में देश को खड़ा नहीं रख पाएंगे। स्वयं भी चले जाएंगे।

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