अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव !
अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव : बुजुर्ग बाइडन की बेचारगी बनाम ट्रम्प से ‘महामानव’ जैसी उम्मीदें
आप कभी-कभार हैरान-सी दिखने वाली उनकी मुख-मुद्रा को देखिए या फिर प्रेस कान्फ्रेंस में उनके तौर-तरीके व उनकी फिटनेस को देखिए, ये सब दूसरे कार्यकाल के लिए उनकी पात्रता के बारे में सार्वजनिक चिंताओं को बढ़ाते हैं, जिसके अंत में वह 86 वर्ष के हो जाएंगे। शारीरिक भाव-भंगिमाओं से वह खुद को युवा दिखाने की कोशिश जरूर करते हैं, लेकिन जो चीजें स्वाभाविक रूप से भीतर से आ रही हों, उन्हें क्या कहें? एक लेखक कहते हैं कि जो बाइडन को अपने सामने देखकर ऐसा लगता है कि वह किसी प्रतिमा में तब्दील हो रहे हैं।
क्या यह अमेरिकी स्वप्न का धूमिल होना है, क्योंकि 2024 का चुनाव, जिस पर सबसे ज्यादा लोगों की नजर होगी, दो बुजुर्गों के बीच होने वाली प्रतियोगिता बन गई है? 77 साल के डोनाल्ड ट्रंप अपेक्षाकृत युवा प्रतिद्वंद्वी हैं। लेकिन तमाम सर्वेक्षण, रिपब्लिकन और व्यापक रूप से जनता उनकी उम्र को लेकर कम चिंतित दिखाई देती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि यह प्रतीत होता है कि बढ़ती उम्र ने उनके गुस्से को और बढ़ा दिया है, जिससे वह परंपरागत राजनीति को रौंदने वाले महामानव ज्यादा दिखने लगे हैं।
दूसरी ओर, बाइडन के अपने उदार प्रशंसक हैं, जो तर्क दे सकते हैं कि शारीरिक-मानसिक कमजोरियां भले उनकी सार्वजनिक मौजूदगी में दिखती हों, पर इनका राष्ट्रपति के रूप में उनके कर्तव्यों के निर्वहन पर कोई असर नहीं पड़ेगा। कहने का तात्पर्य यह कि राजनीति और शासन में कुछ चीजें अंदरखाने में चलती हैं, इसलिए इस मामले में चुप्पी ही श्रेष्ठ है। लेकिन इस तर्क में दुनिया के सबसे ताकतवर राजनेता की शारीरिक-मानसिक कमजोरी के अलावा एक गंभीर लोकतांत्रिक हताशा भी छिपी है।
बाइडन की पार्टी खुद उनसे पीड़ित है, क्योंकि वह ट्रंप नहीं हैं। दूसरी ओर, रिपब्लिकन बेहद गुस्से वाले ट्रंप को नाराज करने से बहुत डरते हैं। बाइडन की चौंका देने वाली बेतरतीबी औरट्रंप का कच्चा यथार्थवाद एक पुरानी कहावत की सीमा को उजागर करता है कि जितना अधिक शरीर बूढ़ा होता है, आप उतने ही समझदार होते हैं।
यह कहावत दरअसल पूर्व से ली गई है, जहां बुद्धिमान लोग हमेशा एक खास क्षेत्र के माने जाते थे। जब चीनी साम्यवाद ने अपने सांस्कृतिक इतिहास से सबसे बुद्धिमान व्यक्ति को अपनाया, तो झोंगनानहाई के प्राचीन साथियों को जीवंतता की अतिरिक्त खुराक मिल गई। हालांकि कन्फ्यूशियस ने कभी सार्वजनिक मंच नहीं छोड़ा। माओ जब मार्क्स से मिलने के लिए रवाना हुए, तब वे 82 वर्ष के थे। माओ के बाद सबसे प्रभावशाली चीनी देंग जियाओपिंग ने, जो सांस्कृतिक क्रांति के बाद भी बचे थे, जब मंच छोड़ा, तो 92 वर्ष के थे।
जाहिर है कि बुढ़ापे ने इन महान व्यक्तियों की गति कभी धीमी नहीं की। इनकी सक्रियता शारीरिक बंधनों के बावजूद बनी रही। इतिहास बताता है कि क्रांतियां तभी परिपक्व होती हैं, जब उन्हें पुराने क्रांतिकारियों द्वारा पोषित किया जाता है। जाहिर है कि उम्र का अपना महत्व होता है और पूर्व ने इस चीज को हमेशा महत्व दिया है। वह हमेशा से ही बुद्धिमान बुजुर्गों का पक्षपाती रहा।
हमारे देश में बाइडन जैसी स्थिति पैदा नहीं हुई। जब मोरारजी देसाई अमेरिकी राष्ट्रपति की मौजूदा उम्र 81 वर्ष में देश के प्रधानमंत्री बने, वह भारतीय राजनीति के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति तो थे ही, कांग्रेस-विरोधी लहर की पहली पंक्ति के राजनेता भी थे। उनके पास स्वस्थ रहने के अपने स्वदेशी तरीके थे। लेकिन उन्होंने कभी भी जयप्रकाश नारायण को जगजीवन राम समझने की भूल नहीं की। उनके उत्तराधिकारी बनने वाले चौधरी चरण सिंह का प्रधानमंत्री बनने का सपना जब पूरा हुआ, तब वह उनसे मात्र चार वर्ष छोटे थे, जो 77 वर्षीय ट्रंप से कुछ हीमहीने कम थे। 81 साल की उम्र में अपने सपनों का पीछा करने वाले आडवाणी के रास्ते में बाधा बनकर उम्र खड़ी नहीं हुई, बल्कि एक ‘यात्रा’ थी, जिसने उन्हें विफल बना दिया। शायद हमने आदर्शवादियों की अपेक्षा अनुभवी लोगों को प्राथमिकता दी।
हो सकता है कि जैविक उम्र को हराने के विज्ञान की शुरुआत पूर्वी परंपराओं में हुई हो। हमने लंबे समय तक जीने के लिए अपने सिर के बल खड़े होना, सांस रोकना और मोर की तरह मुद्रा बनाना सीख लिया है। तो क्या बाइडन की शारीरिक-मानसिक समस्याओं का कोई सांस्कृतिकपहलू है? यह लोकतांत्रिक ‘कॉफेफे’ का मामला हो सकता है। इस शब्द का इस्तेमाल एक बार ट्रंप ने टाइपिंग की गलती से ‘कवरेज’ के लिए किया था। अगर यह बात जो बाइडन ने कही होती, तो जाहिर है कि इसे बेहद सामान्य माना जाता।