जरूरी है राजनीति में नए चेहरों को लगातार मौके देना‎ ?

जरूरी है राजनीति में नए चेहरों को लगातार मौके देना‎

हाल ही में भाजपा ने 2024 के आम चुनावों के लिए 195 उम्मीदवारों की अपनी पहली सूची की घोषणा की। खास बात यह थी कि कई सीटों पर नए चेहरे उतारे गए। कई मौजूदा सांसदों- जिनमें से कई तो हाई-प्रोफाइल थे- को बिठाकर नए उम्मीदवारों को मौका दिया गया।

उदाहरण के लिए, दिल्ली में पार्टी ने सात में से पांच सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा की। इनमें से चार- जो कि मौजूदा सांसद हैं- को बदल दिया गया। इतना ही नहीं, जिन उम्मीदवारों को बिठाया गया, उनमें से कई ने सोशल मीडिया पर गरिमामयी तरीके से इसे स्वीकारा।

उन्होंने पार्टी को धन्यवाद दिया और नए लोगों के लिए खुद पीछे हट जाने की इच्छा व्यक्त की। इसी तरह देशभर में कई अन्य मौजूदा सांसदों के टिकट काटे गए। हम नहीं जानते कि परदे के पीछे क्या हुआ होगा, लेकिन एक बात साफ है। संगठन का प्रबंधन और नई प्रतिभाओं को बढ़ावा देना भाजपा का ऐसा गुण है, जिस पर पर्याप्त बात नहीं की जाती है।

कोई भी संगठन- फिर चाहे वह राजनीतिक दल हो, कॉर्पोरेट हो, या कोई और संस्थान- तभी फलता-फूलता है जब वह दो विरोधी गुणों के बीच संतुलन बनाता है। ये हैं- निष्ठा और मंथन। निष्ठा का मतलब यह है कि संस्थान प्रतिभाओं को अपने यहां रोक पाने में सक्षम हो।

मंथन का मतलब यह है कि संस्थान अपने यहां मौजूद प्रतिभाओं को और बेहतर प्रतिभाओं से निरंतर बदलने में सक्षम रहे। इन दोनों के बीच संतुलन बनाना कठिन है। दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियां भी यह कर पाने के लिए संघर्ष करती हैं। लेकिन भाजपा एक विशाल संगठन होने के बावजूद बार-बार अपना अनुकूलन और पुनर्निर्माण करने में सफल रहती है और अपने में बदलाव लाती रहती है।

1984 के आम चुनावों में उसे सिर्फ 2 सीटें मिली थीं। मजेदार बात यह है कि तब किसी ने भी विपक्ष-मुक्त-भारत नहीं कहा था। उसके बाद से आडवाणी, वाजपेयी और अन्य नेताओं के नेतृत्व में वह फिर से राष्ट्रीय ताकत बनने के लिए आगे बढ़ती रही।

वे सत्ता में आए, लेकिन इसे बरकरार नहीं रख सके या उस पर अपनी मजबूत पकड़ नहीं बना सके। 2004 और 2009 में चुनावों में हार का मतलब था कि अगर पार्टी को सत्ता में वापस आना है तो उसे एक और मंथन के दौर से गुजरना होगा। उसे अपने उस नेतृत्व तक को बदलना पड़ा, जिसने भाजपा को 1984 की करारी हार के बाद फिर से अपने पैरों पर खड़ा किया था।

इसके बाद भाजपा ने एक बेहद कठिन काम किया। यह था नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे नेताओं के नए समूह को नेतृत्व सौंपना। पार्टी में इसको लेकर ज्यादा खटपट भी नहीं हुई। उसके बाद से पार्टी का प्रदर्शन कैसा रहा है, यह इतिहास में दर्ज है। उस तरह का बड़ा बदलाव बहुत कठिन था- लेकिन यह तब किया गया जब पार्टी संकट में थी। उसने सत्ता गंवा दी थी।

भाजपा अब जो कर रही है, वह शायद और भी कठिन है- यानी सफलता के शिखर पर होने के बावजूद अपने भीतर मंथन जारी रखना। इस पार्टी में लगातार अनुकूलन करते रहने, चीजों को हलके में न लेने और अच्छे समय में भी प्रतिभाओं का परिवर्तन करने की अविश्वसनीय क्षमता है।

लोग आते हैं, बने रहते हैं, उन्हें बदला भी जाता है। क्या सभी बदलाव निष्पक्ष, सही और समय पर होते हैं? शायद नहीं, क्योंकि कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता। लेकिन भाजपा इसे दूसरों की तुलना में ज्यादा बेहतर तरीके से करती है। वरना हर जनमत सर्वेक्षण में जिसके जीतने की भविष्यवाणी की जा रही हो, वह पार्टी इतने सारे बदलाव क्यों करेगी?

वह बदलाव से क्यों नहीं डरती, जबकि आत्मसंतुष्ट प्रवृत्ति तो यह है कि जीतने वाले उम्मीदवारों को बनाए रखा जाए? ऐसा इसलिए है क्योंकि भाजपा को एहसास है कि चीजें चाहे कितनी भी अच्छी क्यों न हों, जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं है।

इसकी तुलना कांग्रेस से करें, जिसके पास पिछले दस वर्षों में बदलाव के लिए पर्याप्त अवसर, संकेत और बड़े कारण रहे हैं। 2014 की हार के बाद ही पार्टी में व्यापक आत्ममंथन की आवश्यकता थी। फिर 2019 की हार तो और बुरी थी। भारत के लोगों की ओर से उसे इससे स्पष्ट संकेत पहले कभी नहीं मिला था।

मतदाता मानो चीख-चीखकर कांग्रेस से कह रहे थे- कृपया बदल जाओ। कांग्रेस ने कुछ प्रतीकात्मक बदलाव किए, लेकिन वह नहीं बदला, जिसे जनता बदलना चाहती थी (उसे हम यहां नहीं दोहराएंगे, लेकिन सब जानते हैं वह क्या है)। अब हम हम 2024 के चुनाव की पूर्ववेला में हैं, और मुझे लगता है हम अनुमान लगा सकते हैं आगे क्या होने जा रहा है।

अगर हम बदलाव नहीं लाएंगे तो अपने से कभी कुछ नहीं बदलने वाला। यह बात राजनीति ही नहीं, दूसरे क्षेत्रों में भी लागू होती है। भाजपा मजबूत स्थिति में होने के बावजूद अपने में लगातार बदलाव लाती रहती है, इससे सबक लेने की जरूरत है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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