नेहरू-गांधी परिवार से जुड़े सात लोग लड़ चुके रायबरेली से चुनाव !

नेहरू-गांधी परिवार से जुड़े सात लोग लड़ चुके रायबरेली से चुनाव, तीन के नाम से अंदाजा भी नहीं होगा
Seat Ka Samikaran: पहले लोकसभा चुनाव में रायबरेली और प्रतापगढ़ जिलों को मिलाकर एक लोकसभा सीट थी। उस चुनाव में यहां से इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी कांग्रेस के टिकट पर लड़े और जीते थे। रायबरेली सीट 1957 में अस्तित्व में आई। अमर उजाला की खास चुनावी सीरीज ‘सीट का समीकरण’ में जानते हैं रायबरेली लोकसभा सीट का पूरा इतिहास।
देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश, 80 सांसद चुनकर यहां से लोकसभा पहुंचते हैं। चुनाव तारीखों के एलान के साथ इन सभी सीटों पर सियासी दल अपने-अपने समीकरण ठीक करने में जुट गए हैं। जुटें भी क्यों नहीं, वैसे भी कहा जाता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। 
उत्तर प्रदेश की जिन सीटों की सबसे ज्यादा चर्चा होती है उनमें से एक रायबरेली लोकसभा सीट भी है। ये राज्य की इकलौती सीट है जहां 2019 में कांग्रेस को जीत मिली थी। तब सोनिया गांधी यहां से जीतकर लोकसभा पहुंची थीं। सोनिया अब राज्यसभा के लिए निर्वाचित हो चुकी हैं। अब पार्टी किसी नए चेहरे को यहां से मौका देगी। जिस पर कांग्रेस का गढ़ बचाने की चुनौती होगी। हमारे खास पेशकश सीट का समीकरण में आज हम इसी रायबरेली सीट की बात करेंगे। इसके चुनावी इतिहास की बात करेंगे। बात करेंगे यहां से जीते उम्मीदवारों की, इनमें से कितने गांधी परिवार के थे यह भी हम आपको बताएंगे। पिछले चुनाव में इस सीट पर क्या हुआ था? इस बार कैसे समीकरण बन रहे हैं? ये भी जानेंगे…
1957 में रायबरेली सीट अस्तित्व में आई
सबसे पहले बात पहले लोकसभा चुनाव की कर लेते हैं। साल 1951-52 में हुए पहले लोकसभा चुनाव में रायबरेली और प्रतापगढ़ जिलों को मिलाकर एक लोकसभा सीट थी। उस चुनाव में यहां से इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी कांग्रेस के टिकट पर लड़े और जीते थे। 1957 में रायबरेली सीट अस्तित्व में आई तो यहां से एक बार फिर फिरोज गांधी सांसद बने। इंदिरा और फिरोज गांधी का विवाह 26 मार्च 1942 को हुआ था। पत्रकार से नेता बने फिरोज गांधी अक्सर संसद में अपने ससुर और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू सराकर की आलोचना के लिए जाने जाते थे। 
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इंदिरा गांधी – फोटो : facebook
फिरोज गांधी के निधन के बाद इंदिरा ने रायबरेली से लड़े चार चुनाव
1960 में फिरोज गांधी का निधन हो गया। इसके बाद हुए उप-चुनाव और 1962 के चुनाव में यहां से गांधी परिवार का कोई सदस्य चुनाव नहीं लड़ा। 1962 में कांग्रेस की तरफ से उतरे बैजनाथ कुरील ने जनसंघ प्रत्याशी तारावती को हराया था।फिरोज गांधी ने निधन के चार साल बाद 1964 में इंदिरा गांधी राज्यसभा पहुंचीं। इंदिरा 1967 तक राज्यसभा सांसद रहीं। 1966 जब इंदिरा देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं तब भी वह राज्यसभा सदस्य थीं। 1967 इंदिरा ने रायबरेली सीट से ही चुनावी राजनीति में कदम रखा। कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर उतरीं इंदिरा ने इस चुनाव में उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी बीसी सेठ को 91,703 वोट से हरा दिया था। 

इसके बाद आया 1971 का लोकसभा चुनाव। इस चुनाव में कांग्रेस की तरफ से एक बार फिर इंदिरा गांधी मैदान में थीं। उनके सामने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से राज नारायण थे। जब नतीजे आए तो कांग्रेस से इंदिरा को 1,11,810 वोटों से विजयी घोषित किया गया। इंदिरा को 1,83,309 वोट जबकि राज नारायण को 71,499 वोट मिले थे। हालांकि राजनारायण ने इंदिरा गांधी पर सरकारी तंत्र के दुरुपयोग और चुनाव में हेराफेरी का आरोप लगाते हुए चुनाव नतीजों को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी।

राजनारायण की चुनाव याचिका पर ही फैसला देते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित किया था। इंदिरा ने उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी और इसी आधार पर अपना इस्तीफा देने से इनकार कर दिया। कुछ दिन बाद ही देश में आपातकाल लागू कर दिया गया। इस घटना को ही देश में आपातकाल की जड़ माना जाता है।

आपातकाल के बाद हुए चुनाव में इंदिरा को झटका
1971 के बाद अगले लोकसभा चुनाव 1977 में हुए जब देश में आपातकाल का दौर खत्म हो चुका था। 1977 की जनता लहर में रायबरेली सीट से उतरीं इंदिरा गांधी को हार का सामना करना पड़ा। उन्हें भारतीय लोक दल के के प्रत्याशी राजनारायण ने 55,202 वोट से हरा दिया। इसके बाद इंदिरा कर्नाटक की चिकमंगलूर सीट से उप-चुनाव लड़ी और जीतकर संसद पहुंची थीं। 1980 में एक बार फिर इंदिरा गांधी कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर रायबरेली सीट से मैदान में थीं। इस बार उनके सामने थीं जनता पार्टी से राजमाता विजय राजे सिंधिया। एक बार फिर इस सीट से इंदिरा जीतने में सफल रहीं। उन्होंने विजय राजे सिंधिया को 1,73,654 मतों से शिकस्त दी। दिलचस्प है कि इस चुनाव में इंदिरा रायबरेली के साथ ही आंध्र प्रदेश की मेंडक (अब तेलंगाना) सीट से भी जीतीं। चुनाव के बाद उन्होंने रायबरेली सीट से इस्तीफा दे दिया और मेंडक की सांसद बनी रहीं।

इंदिरा ने परिवार के सदस्य को थमाई विरासत
रायबरेली सीट से इंदिरा गांधी के इस्तीफे के बाद इस सीट पर उप-चुनाव हुए। इसमें नेहरू-गांधी परिवार से संबंध रखने वाले अरुण नेहरू यहां से कांग्रेस के टिकट पर जीते। 1984 लोकसभा चुनाव में भी अरुण नेहरू ने इस सीट से जीत दर्ज की। अरुण ने लोक दल की सविता अंबेडकर को 2,57,553 मतों से शिकस्त दी।1989 में यहां से कांग्रेस की शीला कौल जीतीं। शीला ने जनता दल के प्रत्याशी रवींद्र प्रताप सिंह को 83,779 मतों से हराया। 1991 के लोकसभा में कांग्रेस प्रत्याशी शीला कौल को कड़ी टक्कर मिली लेकिन चुनाव जीतने में सफल रहीं। उन्होंने जनता दल के उम्मीदवार अशोक कुमार सिंह को 3,917 वोटों से हरा दिया। 1989 और 1991 में रायबरेली सीट से जीतने वालीं शीला कौल भी नेहरू-गांधी परिवार से संबंध रखती थीं। शीला कौल के पति कमला नेहरू के भाई थी। यानी, शीला कौल इंदिरा गांधी की मामी थीं। 

अब बात 1996 के लोकसभा चुनाव की कर लेते हैं। 1996 में कांग्रेस ने रायबरेली सीट से शीला कौल के बेटे विक्रम कौल को अपना उम्मीदवार बनाया। लेकिन यह पहला चुनाव था जब कांग्रेस रायबरेली सीट पर जीतना तो दूर लड़ाई से भी बाहर चली गई। इस चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार विक्रम कौल की जमानत तक जब्त हो गई। कौल को  25,457 वोट मिले जो कुल पड़े वोट का महज 5.29% था। 

1996 के लोकसभा चुनाव के दौरान रायबरेली सीट पर भाजपा और जनता दल के बीच दिलचस्प लड़ाई देखी गई। दरअसल, इस चुनाव में भाजपा और जनता दल दोनों ने एक ही नाम वाले प्रत्याशी को यहां से टिकट दिया था। अशोक सिंह पुत्र देवेंद्र नाथ सिंह को भाजपा ने उतरा तो अशोक सिंह पुत्र राम अकबाल सिंह को जनता दल से टिकट मिला। मुख्य मुकाबला भी इन दोनों उम्मीदवारों के बीच हुआ। नतीजों में भाजपा प्रत्याशी को 33,887 मतों से विजय हासिल हुई। 1998 के आम चुनाव में भाजपा प्रत्याशी अशोक सिंह को फिर जीत मिली। अशोक ने समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार सुरेंद्र बहादुर सिंह को 40,722 वोटों से हराया। इस चुनाव में कांग्रेस की ओर से शीला कौल की बेटी दीपा कौल उम्मीदवार थीं। 1996 में दीपा के भाई की जमानत जब्त हुई थी तो 1998 में दीपा की भी जमानत जब्त हो गई। भाई की ही तरह दीपा भी चौथे नंबर पर रहीं थीं।

भाजपा के टिकट पर अरुण नेहरू चुनाव मैदान में उतरे
1999 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने रायबरेली सीट पर वापसी की। इस बार पार्टी के प्रत्याशी कैप्टन सतीश शर्मा को सपा के गजाधर सिंह के खिलाफ 73,549 वोटों से विजय मिली। हर बार की तरह इस बार यहां से गांधी-नेहरू परिवार से संबंध रखने वाले एक शख्स ने चुनाव लड़ा था। ये और बात है कि इस बार ये सदस्य कांग्रेस के टिकट से नहीं बल्कि भाजपा के टिकट पर चुनाव मैदान में था। ये सदस्य थे अरुण नेहरू। वही, अरुण नेहरू जो 1984 लोकसभा चुनाव में इस सीट से कांग्रेस के टिकट पर जीत दर्ज कर चुके थे। हालांकि, राजीव गांधी से मदभेद के चलते उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी थी। 

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सोनिया, रायबरेली – फोटो : सोशल मीडिया
जब रायबरेली से पहली बार उतरीं सोनिया
2004 में जब राहुल गांधी ने चुनावी राजनीति में कदम रखा तो सोनिया गांधी ने अमेठी सीट उनके लिए छोड़ दी और खुद रायबरेली से चुनाव लड़ने लगीं। 2004 के लोकसभा चुनाव में सोनिया गांधी ने सपा के अशोक कुमार सिंह को करारी शिकस्त दी। सोनिया ने यह चुनाव 2,49,765 वोटों से भारी अंतर से जीता।2009 के लोकसभा चुनाव में सोनिया गांधी रायबरेली सीट को बरकरार रखने में कामयाब रहीं। इस चुनाव में सोनिया ने बसपा के टिकट पर उतरे आरएस कुशवाहा के खिलाफ 3,72,165 वोटों से एक और बड़ी जीत दर्ज की।

2014 और 2019 में भी इस सीट पर जीती कांग्रेस
इसके बाद 2014 में भी इस सीट से सोनिया गांधी को प्रचंड जीत मिली। इस बार उन्होंने भाजपा के अजय अग्रवाल को 3,52,713 वोटों से करारी शिकस्त दी। वहीं, पिछले चुनाव यानी 2019 में कांग्रेस ने जीत दर्ज की लेकिन इस बार जीत का अंतर कम हो गया। इस चुनाव में सोनिया गांधी को 5,33,687 वोट जबकि भाजपा की तरफ से उतरे दिनेश प्रताप सिंह को 3,65,839 वोट मिले। इस तरह से 2019 में सोनिया 1,67,848 वोटों से अपनी सीट बरकरार रखने में कामयाब हुईं।
अबकी बार क्या है समीकरण? 
राज्यसभा सांसद निर्वाचित हो चुकीं सोनिया गांधी 2024 के लोकसभा चुनाव में नहीं लड़ेंगी। इसके बाद अटकलें यह भी लगाई जाने लगीं कि कांग्रेस रायबरेली सीट से सोनिया गांधी की बेटी प्रियंका गांधी को उतार सकती है। सक्रिय राजनीति में आने से पहले से प्रियंका अमेठी और रायबरेली सीट से मां सोनिया और भाई राहुल गांधी का चुनावी प्रबंधन देखती रही हैं। भाजपा ने भी अब तक यहां से अपना उम्मीदवार घोषित नहीं किया है। वहीं, सपा कांग्रेस के गठबंधन के बाद यह सीट कांग्रेस के खाते में जाना तय है।

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