घटता-बढ़ता रहता है मतदान, इसे ट्रेंड न माना जाए

घटता-बढ़ता रहता है मतदान, इसे ट्रेंड न माना जाए
करीब डेढ़ दशक पहले मतदान घटने का अर्थ सत्तारूढ़ घटक की विजय तथा मतदान बढ़ने का अर्थ पराजय के रूप में लिया जाता था और प्रायः ऐसा देखा भी गया। किंतु 2010 के बाद यह प्रवृत्ति बदली है। मतदान बढ़ने के बावजूद सरकारें वापस सत्ता में आई हैं और मतदान घटने के बावजूद गई भी हैं। इसलिए इस आधार पर कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता।

लोकसभा चुनाव के पहले चरण में 102 निर्वाचन क्षेत्रों में मतदान संपन्न होने को लेकर कई तरह के आकलन सामने आ रहे हैं। पहले चरण में नौ राज्यों तथा तीन केंद्रशासित प्रदेशों में मतदान संपन्न हो चुका है। माना जा रहा था कि देश के एक बड़े हिस्से में मतदान संपन्न होने के बाद इसकी प्रवृत्तियों का आकलन करना थोड़ा आसान हो जाएगा। लेकिन मतदान के बाद आम टिप्पणी यही है कि मतदान प्रवृत्तियों का आकलन आसान होने के बजाय कठिन हुआ है। बहरहाल, पहले चरण के मतदान की सबसे बड़ी विशेषता रही कि पश्चिम बंगाल और मणिपुर को छोड़कर कहीं भी हिंसा की घटना नहीं हुई। किसी बड़ी घटना का न होना बताता है कि हमारे देश का चुनाव तंत्र बिल्कुल सहज, सामान्य और सुव्यवस्थित ढंग से काम कर रहा है। इसका अर्थ यह भी है कि हम कम अवधि और कम चरणों में भी लोकसभा चुनाव को पूरा कर सकते हैं। सबसे ज्यादा चर्चा पहले चरण में मतदान प्रतिशत कम होने को लेकर हो रही है और इस बारे में कई तरह के आकलन किए जा रहे हैं। हालांकि ऐसा नहीं है कि सभी क्षेत्रों में मतदान का प्रतिशत ज्यादा गिरा है। इनमें भी सभी जगह मतदान एक समान भी नहीं रहे। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में ज्यादा मतदान हुए, तो बिहार और उत्तराखंड में अत्यंत कम। इन दोनों राज्यों में भी अलग-अलग क्षेत्र को देखें, तो कहीं ज्यादा, तो कहीं कम मतदान हुआ है।

यह साफ है कि एकाध स्थानों को छोड़कर ज्यादातर जगहों में मतदान प्रतिशत गिरा है। उत्तर प्रदेश में 2019 के मुकाबले लगभग 5.30 प्रतिशत कम मतदान हुआ। चुनाव आयोग के अंतिम आंकड़ों के अनुसार, यह करीब 68.29 प्रतिशत है। यानी करीब 1.14 फीसदी कम मतदान हुआ है, तो कहा जा सकता है कि मतदान प्रतिशत में ज्यादा गिरावट नहीं है। नगालैंड में मतदान प्रतिशत इसलिए ज्यादा गिरा, क्योंकि वहां के छह जिलों में एक भी वोट नहीं डाला गया। ईस्टर्न नगालैंड पीपुल्स फ्रंट  ने अलग राज्य की मांग को लेकर मतदान का बहिष्कार किया था। इसे हम मतदान में कमी की प्रवृति नहीं मान सकते।

करीब डेढ़ दशक पहले मतदान घटने का अर्थ सत्तारूढ़ घटक की विजय तथा मतदान बढ़ने का अर्थ पराजय के रूप में लिया जाता था और प्रायः ऐसा देखा भी गया। किंतु 2010 के बाद यह प्रवृत्ति बदली है। मतदान बढ़ने के बावजूद सरकारें वापस सत्ता में आई हैं और मतदान घटने के बावजूद गई भी हैं। इसलिए इस आधार पर कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। दूसरे, हर जगह मतदान प्रतिशत ज्यादा गिरा भी नहीं है। तीसरे, बंगाल में साफ दिखाई दे रहा है कि दोनों पक्षों के मतदाताओं में एक-दूसरे को हराने और जिताने के लिए प्रखर प्रतिस्पर्धा है। सबसे ज्यादा चर्चा उत्तर प्रदेश की है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मतदान प्रतिशत का घटना सामान्य नहीं है। इस क्षेत्र में जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण होता है। ऐसे में यह आकलन करना कठिन है कि जहां मतदान प्रतिशत गिरा, वहां किस पक्ष या पार्टी के मतदाता नहीं आए। अगर भाजपा विरोधी उसे हराना चाहते थे, तो उन्हें भारी संख्या में निकलना चाहिए। कहा यह भी जा रहा है कि सपा के कोर मतदाता यानी मुसलमान और यादवों का बड़ा समूह आक्रामक होकर मतदान कर रहा था। विरोधी भारी संख्या में निकलेंगे, तो समर्थक भी इसका ध्यान रखेंगे।

हालांकि उम्मीदवारों के चयन, दूसरे दलों से आए लोगों को महत्व मिलने तथा कहीं-कहीं गठबंधन को लेकर भाजपा समर्थकों व कार्यकर्ताओं में थोड़ा असंतोष है तथा एक जाति विशेष ने भी विरोधात्मक रूप अख्तियार किया था। बावजूद इसके यह कहना कठिन होगा कि भाजपा समर्थक मतदाता ही ज्यादा संख्या में मतदान करने नहीं निकले।

अभी तक के चुनाव अभियान में जनता की उदासीनता दिखी है। हालांकि विपक्ष के प्रचार के विपरीत प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार को लेकर आम जनता में व्यापक आक्रोश नहीं दिखा है। कल्याण कार्यक्रमों के लाभार्थी तथा विकास नीति की प्रशंसा करने वाले हर जगह दिखाई देते हैं। रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा से लेकर समान नागरिक संहिता एवं नागरिकता संशोधन कानून आदि पर विपक्ष के रवैये ने भाजपा समर्थकों में प्रतिक्रिया भी पैदा की है। असंतुष्ट लोगों में भी यह भाव है कि अगर यह सरकार हार गई, तो कहा जाएगा कि हिंदुत्व विचारधारा की हार हो गई है। जिस जाति के विद्रोह की चर्चा हो रही है, वे भी भाजपा के प्रति सहानुभूति रखते हैं। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि इन्होंने भाजपा के विरोध में मतदान किया होगा।

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