“कश्मीरियत ने खोज ली है जम्हूरियत की नयी राह”

लोकसभा चुनावों में ‘कश्मीरियत’ की जीत और एक नये युग का आगाज

18 वीं लोकसभा के चुनाव में जम्मू-कश्मीर के लोगों की उत्साहित भागीदारी से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि धारा 370 की समाप्ति राष्ट्रहित में उठाया गया एक सशक्त कदम था. गृह मंत्री अमित शाह का मानना है कि वादी-ए-कश्मीर में लोग जिस तरह मतदान केंद्र पर पहुंचे, वह बहुत बड़े बदलाव का संकेत है. इस चुनाव के दौरान कश्मीर के किसी बड़े नेता के द्वारा बहिष्कार का आह्वान भी नहीं किया गया है. केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार घाटी के किसी निर्वाचन क्षेत्र में नहीं हैं. पार्टी ने खास रणनीति के तहत क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को आपस में प्रतिस्पर्धा करने का अवसर प्रदान किया है. 

यह चुनाव बेहद खास

वर्तमान चुनाव की तुलना अगर साल 2019 के चुनावों से करें तो महत्वपूर्ण फर्क नजर आता है. तब कुछ लोकसभा क्षेत्रों में मतदान को लेकर वोटरों में रुचि नाममात्र की थी. अब हालात सामान्य हैं और वह दुष्प्रचार भी विफल हो गया कि अनुच्छेद 370 के हटने से राजनीतिक हिंसा का दौर शुरू हो सकता है. जम्मू-कश्मीर में साल 1987 में हुए विधानसभा के चुनाव को सबसे ज्यादा विनाशकारी माना जाता है क्योंकि तब बड़े पैमाने पर धांधली की खबरें आई थीं और हथियारबंद गिरोहों के सदस्यों को “मुजाहिदीन” कहा जाने लगा. जिस रियासत को महाराजा हरि सिंह पूरब का स्विट्जरलैंड बनाना चाहते थे, वह उनकी अनिर्णयता के कारण पाकिस्तान की प्रयोगभूमि बनता गया. बावजूद इसके कश्मीरियों ने लोकतांत्रिक मूल्यों से खुद को अलग नहीं किया. नेहरू युग में एक ओर जहां शेख अब्दुल्ला की चालाकियां भी दिखीं तो दूसरी ओर बख्शी गुलाम मोहम्मद का 11 साल का कार्यकाल भी रहा जिस दौरान वहां का संविधान तैयार हुआ और विश्वास का माहौल भी बन सका. भारत के साथ जम्मू-कश्मीर का मिलन 26 अक्टूबर 1947 को हुआ था और तब से अब तक झेलम नदी में काफी पानी बह चुका है. भारत में लोकतांत्रिक चुनाव ने सार्वजनिक जीवन में व्यापक जनभागीदारी के सिद्धांत को मूर्त रूप प्रदान किया है, जबकि पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में सैन्य तानाशाहों ने लोगों के अरमानों को कुचलने का काम ही किया है.

जिन्ना का इस्लामी मुल्क और पीओजेके

“पीओजेके” के लोग जिन्ना द्वारा स्थापित मजहबी मुल्क के हुक्मरानों से नाउम्मीद हैं. वहां उभरता हुआ जन-विद्रोह स्थानीय बाशिंदों की हताशा का परिणाम है. हथियारबंद कबायलियों के बलबूते पाकिस्तान डोगरा राजवंश द्वारा शासित जम्मू-कश्मीर रियासत के महत्वपूर्ण हिस्से पर कब्जा करने में कामयाब तो हो गया, लेकिन इस इलाके को संवैधानिक दर्जा न देकर यहां के लोगों को गुलामी की सौगात दे दी. वैसे भी पाकिस्तान के अन्य कई इलाकों में लोग मुल्क से सांविधानिक जुड़ाव महसूस नहीं करते हैं. बेचैनी सरहदी गांधी अब्दुल्ल गफ्फार खान के खैबर पख्तूनख्वा में ही नहीं बल्कि बलूचिस्तान में भी दिख रही है. वहां चल रही आजादी की गर्म हवाओं से पाकिस्तानी हुक्मरान झुलस रहे हैं. गिलगिट-बाल्टिस्तान के भविष्य का फैसला उसी स्थिति में मुमकिन है जब पाकिस्तान अपनी हठधर्मिता का परित्याग कर शिमला समझौते के प्रावधानों के अनुसार भारत से बातचीत करे. जम्मू-कश्मीर धर्मनिरपेक्ष भारत का मुकुट है. यहां का समाज सुन्नी, शिया, बहावी, अहमदिया मुसलमानों के साथ-ही-साथ सिक्ख, गुज्जर, बौद्ध, पंडित, राजपूत और पहाड़ी समुदाय से मिलकर बना है. धारा 370 के हटने के बाद उन्हें भी मतदान करने का मिला है जो जम्मू-कश्मीर में कई दशकों से रहने के बावजूद मुख्यधारा में नहीं शामिल किए गए थे.

एक विधान, एक निशान, एक प्रधान

इस बार लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान “पीओके” को भारत में शामिल करने का मुद्दा भी लोगों के बीच चर्चा के केंद्र में रहा. गृह मंत्री अमित शाह जम्मू-कश्मीर के संबंध में अपनी उपलब्धियों की चर्चा करते हुए कहते हैं कि न केवल एक विधान, एक निशान और एक प्रधान के सिद्धांत को लागू किया गया है बल्कि पत्थरबाजी पर भी लगाम लगाया गया है. दहशतगर्दी को समर्थन देने वाले लोगों को सरकारी नौकरियों से हटाया गया. कमजोर एवं वंचित वर्ग के लोगों को अब आरक्षण की सुविधा भी मिल रही है.  इस संघ शासित प्रदेश में हुए बदलावों से श्यामा प्रसाद मुखर्जी के सपने साकार हो रहे हैं. मुखर्जी ने जम्मू-कश्मीर को विशेष स्वायत्तता दिये जाने के विरोध में ही नेहरू मंत्रिमंडल से अलग होने का निर्णय लिया था. अपने विचारों से देशवासियों को अवगत कराने के लिए उन्होंने जम्मू-कश्मीर की यात्रा की, जहां संदिग्ध परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी. उनके बलिदान से करोड़ों भारतीय भावनात्मक रूप से इस मुद्दे से जुड़ गए. हालांकि चुनावी राजनीति के कारण दीर्घकालिक राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करनी पड़ी.

कथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों की रुचि जम्मू-कश्मीर की अनुसूचित जातियों व जनजातियों के कल्याण में नहीं कभी नहीं रही. भारतीय लोकतंत्र बहुदलीय पद्धति से संचालित होता है जिसकी अपनी सीमाएं भी हैं. ज्यादातर राजनीतिक दलों के नेता सरकारों के गठन की प्रक्रिया में उलझे हुए रहते हैं. उनकी प्राथमिकताओं में राष्ट्र की सुरक्षा, एकता एवं अखंडता शामिल नहीं है. इसके बावजूद नई राहें खुल जातीं हैं. अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में जम्मू-कश्मीर के लोगों ने विश्वास का माहौल बनते हुए देखा. उन्होंने श्रीनगर की एक सार्वजनिक सभा में इंसानियत, जम्हूरियत एवं कश्मीरियत का प्रभावशाली संदेश दिया जो लोगों को एकजुट रखने के लिए सदैव ही प्रेरणा का महान स्रोत बना रहेगा.

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