पूरे यूरोप में दक्षिणपंथ का उभार देता है लिबरल राजनीति की कमजोरियों का संकेत

 पूरे यूरोप में दक्षिणपंथ का उभार देता है लिबरल राजनीति की कमजोरियों का संकेत

विश्व के हालात फिलहाल कुछ ठीक नहीं है. विश्व फिलहाल दो युद्धों की तपिश देख और झेल रहा है, जिसमें पहली यूक्रेन और रूस तथा दूसरा हमास और इजरायल के बीच की है, जाे अभी भी जारी है. इसी बीच दुनिया की राजनीति में काफी कुछ बदल रहा है. पूरे यूरोप में दक्षिणपंथ की लहर सी हाल के दिनों में दिखनी शुरू हो गयी है. फ्रांस में चुनाव में काफी अधिक मतदान हुआ है. यूरोपियन संघ में दक्षिण पंथी पार्टी को बढ़त के साथ बहुमत मिल चुका है.  फ्रांस के ले पेन को इस चुनाव में खासी बढ़त मिली है, हालांकि, मैक्रोन की सरकार कमजोर होगी, पर कायम ही रहेगी. ऐसे पूरे यूरोप में ही दक्षिणपंथ का उभार देखने को मिल रहा है, बात चाहे इटली की हो, फ्रांस की या नीदरलैंड की है. 

फ्रांस है एक अजीबोगरीब हालत में

वर्तमान में फ्रांस एक अजीब सी स्थिति में आ चुका है. ये माना जा रहा है कि इसके पीछे का कारण खुद मैक्रोन ही है. इसको दो पहलू से देखा जा सकता है, पहला तो मैक्रोन की पार्टी को पार्लियामेंट में बहुमत पहले से ही नहीं था. जून महीने में यूरोपियन यूनियन के फ्रांस में वोटिंग हुए तो उसमें सबसे अधिक वोट दक्षिणपंथी  ले मियर पेन की पार्टी को ही मिले. अभी संसदीय चुनाव में वोटिंग काफी अधिक हुई है. तो, एक फैसला जो फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रोन के द्वारा लिया गया, उस फैसले ने सबको ही अचंभित कर दिया. अचानक ही उन्होंने पार्लियामेंट को भंग करने के बाद चुनाव के लिए घोषणा कर दी. ये सच है कि दक्षिणपंथी जो लोग और पार्टियां हैं, उनके वोट प्रतिशत काफी बढ़ रहे हैं. फिर भी, फ्रांस के पार्लियामेंट में कुल 577 सीट होती है. जिसमें से बहुमत के आंकड़े तक पहुंचने के लिए पार्टी के पास 289 सदस्य होने चाहिए. उसके बाद ही वो सरकार में आ सकता है. सारे एग्जिट पोल और दूसरे चरण की वोटिंग के बाद भी ये स्पष्ट नहीं कहा जा सकता कि जो फ्रांस की नेशनल रैली पार्टी है, वो पूरी तरह से बहुमत में आ जाएगी.  ये भी अभी तक नहीं कहा जा सकता है कि किस पार्टी को कितनी सीटें मिल रही है और किसको कितना प्रतिशत मत मिल रहा है. अभी तक तो ये लग रहा है कि वहां पर सरकार गठबंधन की ही होगी. 

दक्षिणपंथी हुए सक्रिय 

पूरे यूरोप में दक्षिणपंथ को खासा पसंद किया गया जा रहा है. इटली में मेलोनी, नीदरलैंड में गीर्ट वील्डर्स और फ्रांस में ले पेन की लोकप्रियता बढ़ रही है. यूरोप की राजनीति दो स्तरों पर चलती है. फ्रांस की राजनीति अपने घरेलू विवादों के सहारे चलती है, और वो एक तरह से यूरोपिन संघ के भी सदस्य के तौर पर जुड़े हुए हैं. इनकी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संरचना थोड़ी अलग ही प्रकार की है, जो कि उनको सीधे तौर पर फायदा पहुंचाने का काम करता है. इस संरचना के साथ वो दो समस्याओं को एक साथ रखने का काम करते हैं, जिसमें वो यूरोपिन संघ के तालमेल में भी रहेंगे और दूसरी ओर अपनी घरेलू राजनीति से भी जुड़े रहते हैं. ब्रिटेन में जब चुनाव हुए तो दक्षिणपंथियों के मुताबिक जब ब्रिटेन को यूरोपियन यूनियन छोड़ना था, तब उन्होंने प्राे एग्जिट पार्टी को वोट दिया. उसके बाद यूरोप से ब्रिटेन को अलग करा दिया.

यूरोपीय संघ से नीतियां प्रभावित

यूरोपीय संघ की जो नीतियां है वो काफी हद तक मेंबर आफ स्टेट से प्रभावित होती हैं, प्रभावित करती हैं. इसलिए फ्रांस, आस्ट्रिया, जर्मनी के जो मतदाता हैं, वो ये देखते हैं कि यूरोप से कैसा नाता रहेगा, और घरेलू नीतियां किस प्रकार की होगी. दक्षिणपंथ के पूरे यूरोप में उभर कर आने के दो कारण हो सकते हैं पहला ये है कि जो बाहर के अप्रवासी हैं उनके लिए एक सांस्कृतिक प्रतिरोध (कल्चरल बैकलैश) है. यूरोप में जो जनसंख्या बढ़ती जा रही है, उनमें सांस्कृतिक मतभेद है. जो वहां के नेटिव नागरिक या मतदाता  हैं, उससे उनसे उनका तालमेल ठीक ढंग से नहीं बैठ पाता है, हालांकि लिबरल जो राजनीति है, वह बेरोजगारी के कारण कभी-कभी इसको बढ़ावा भी देते हैं.  आर्थिक मंदी और बेरोजगारी के कारण ये नेटिव अक्सर सड़कों पर प्रदर्शन करते हुए दिखते हैं.  इस कारण इनके मन में एक रोष की भावना भी देखने को मिलती है कि अप्रावासी ही बाहर से आकर रोजगार और अन्य संसाधनों को खा जा रहे हैं. आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मतभेद भी देखने को मिलते हैं, जबकि दक्षिणपंथी अपनी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत को बढ़ावा देते हैं जिसके कारण उनको वहां पर उनको समर्थन मिलता है. 

आप्रवासी और इस्लाम के खिलाफ

यूराेप में इस कदम को इस्लामोफोबिया के तौर पर और आप्रवासियों विरुद्ध भी देखा जा सकता है. बीते समय में फ्रांस में टेरेरिस्ट अटैक भी हुए है, चार्ली हैबदो कांड भी हुआ है, प्रॉफेट मोहम्मद के  एक कार्टून के ऊपर भी विवाद हुआ है. इस्लामिक पर्दे यानी की हिजाब को भी बैन करने की बात हुई है. मस्जिद की मीनारों की ऊंचाई के बारे में तथा सड़क पर बैठकर नमाज अदा करने की बात भी की गई है. इस्लामोफोबिया का एक सेंटिमेंट क्रिश्चियन और अन्य धर्म को मनाने वाले लोगों में भी एंटी इस्लामिक रवैए के बीज बो रहा है. खासकर देश जब आर्थिक संकट से गुजर रहा हो तो ये सब चीजें और स्पष्ट रूप से दिखने लगती है. फ्रांस के मामले में मैक्रोन को ये कहा गया था कि वो सेंटरिस्ट हैं, बाद में उनकी नीतियों के अनुसार ये तक कहा गया कि वो फ्रांस को किसी कंपनी के सीईओ की तरह चला रहे हैं, जबकि फ्रांस कोई कंपनी नहीं बल्कि एक देश है. मैक्रोन की नीतियों के कारण डीजल का रेट बढ़ाया गया जिसके कारण आर्थिक दिक्कत लोगों को हुई. रिटायरमेंट की उम्र को दो सालों तक बढ़ा देने के कदम का भी काफी विरोध हुआ. ऐसे में जो सेंटरिस्ट और लिबरल हैं, वो अपना इकोनॉमिक सपोर्ट भी खो रहे हैं और समाज में उनकी नीतियों का प्रभाव भी पड़ रहा है. 

इन दलों का आप्रवासी की ओर भी रुझान देखा जाता है जिस कारण आर्थिक मंदी देखने को मिलती है. इस कारण से समाज में दूरियां भी बढ़ रही हैं. उसका खामियाजा सेंटर और लेफ्ट दोनों को भरना पड़ रहा है. मैक्रोन की पार्टी 20 प्रतिशत वोट शेयर के साथ अभी तीसरे स्थान पर रह गई है. आने वाले समय में ये पता चलेगा कि किसकी सरकार आती है कौन किसके साथ गठबंधन करता है. हालांकि, अभी मैक्रोन सरकार से त्यागपत्र देने वाले तो नहीं दिख रहे हैं और वो अगले तीन साल तक राष्ट्रपति के पद पर बने रहेंगे.

सरकार चलानी होगी मुश्किल

इसका मतलब ये है कि उनकी पार्टी का अगला प्रधानमंत्री फ्रांस में नहीं होगा और राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के साथ जो समन्वय रहता है वो आगे फिलहाल नहीं रह सकता है. ऐसे में कई स्थितियों और चुनौतियों का भी सामना कर पड़ सकता है. अगला तीन साल का जो कार्यकाल होगा वो ये निश्चित करेगा कि फ्रांस किस दिशा की ओर जा रहा है. दक्षिणपंथी हो, वामपंथी हो या फिर सेंटरिस्ट हो जो प्रो यूरोपियन सेंटिमेंट है, सबके लिए ये चुनौती की घड़ी है. कुछ समय पहले से कहा जाता था कि दक्षिणपंथी खुद को यूरोपियन संघ से अलग करने की सोच रहे हैं. लेकिन यूके के ब्रेक्जिट के बाद जो आर्थिक संकट आया, उसको देखने के बाद उनकी अब आंखें खुल चुकी है. उसके बाद बातआर्थिक के साथ ही राजनीतिक सुरक्षा की भी है, जब उन्होंने ये देखा कि रूस और यू्क्रेन का युद्ध है और यूरोपियन संघ से खुद को बाहर करने और नाटो से बाहर जाने के बाद सुरक्षा का मामला आता है? सरकार किसके साथ बनती है, ये तो अलग बात है लेकिन कोई भी दल जीते, सभी यूरोपियन संघ के साथ रहेंगे. कुछ घटनाओं ने यूरोपियन संघ को और भी मजबूत  किया है.    

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि … न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]

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