पुल इसलिए बनते हैं, ताकि नदियां उनके नीचे से निकल सकें
पुल इसलिए बनते हैं, ताकि नदियां उनके नीचे से निकल सकें
पुल- पुलिया बनाने के मामले में बिहार एक अलग और अनोखा प्रदेश है। शेष देश में पुल इसलिए बनाए जाते हैं कि लोग और वाहन उनके ऊपर से निकल सकें। बिहार में पुल इसलिए बनाए जाते हैं ताकि नदियाँ उनके नीचे से निकल सकें। चूँकि तमाम पवित्र नदियां जैसे गंगा, गंडक, महानदी बिहार में हैं, इसलिए नदियों को दण्डवत करना ज़रूरी होता है।
पुल भी दण्डवत प्रणाम करते रहते हैं, यानी चरणों में गिर जाते हैं। कौन-सी हैरत की बात है? बाक़ी देश के लोग फोकट ही हल्ला मचाते फिरते हैं!
दरअसल, बिहार एक अलग देश है। यहाँ कांग्रेस की सरकार रही हो, या लालू प्रसाद यादव की या बाद में नीतीश कुमार की, सब की सब सरकारें कामचलाऊ ही रहीं। किसी तरह समय बिताना और ज़्यादा से ज़्यादा साल तक सरकार में रहने का रिकॉर्ड बनाना! नीतीश बाबू ने तो सत्ता में रहने के लिए राजनीति के तमाम नियम- क़ानून खीसे में डाले और केवल अपनी गद्दी की चिंता की।
बिहार के विकास के नाम पर केवल सड़कें बनवा दीं, जिससे लालू यादव के जमाने का जंगल राज खत्म होने का लोगों को भ्रम हो गया।
नीतीश बाबू चल गए। चलते रहे। कभी लालू के सहारे। कभी उनके बेटे के सहारे और ज़्यादातर भाजपा के सहारे। दरअसल भाजपा को भी जिस बिहार में कभी अकेले सत्ता नहीं मिल पाई, वहाँ उसे नीतीश कुमार के रूप में एक दिव्य आड़ मिल गई। कांग्रेस हो, लालू हों, नीतीश कुमार हों या उनकी ज़्यादातर सहयोगी रही भाजपा हो, निर्माण कार्यों में क्वालिटी की तरफ़ किसी ने कभी ध्यान नहीं दिया।
वजह सिर्फ़ एक ही है- सरकार चलाने के सिवाय इनका कोई उद्देश्य नहीं रहा। आगे की पढ़ाई के लिए यहाँ के युवा हमेशा दिल्ली जाते रहे। वहाँ जाकर इन युवाओं ने खूब मेहनत की। जो सफल हुए वे आईएएस या आईपीएस बन गए और कई बार की कोशिशों के बावजूद जो सफल नहीं हो पाए, वे पत्रकार हो गए।
कोई प्रिंट मीडिया में, कोई इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में। सरकारें बिहार में अपनी जगह बनी रहीं। उनका ढर्रा न कभी बदला और न ही किसी ने बदलना चाहा।
एक जयप्रकाश नारायण के बाद यहाँ किसी ने सरकारों के खिलाफ आंदोलन भी नहीं किया। युवा लोगों के पास आंदोलन में उलझने की बजाय अपना भविष्य बनाने के लिए दिल्ली कूच करने के सिवाय कोई चारा नहीं रहा। समय की माँग और तक़ाज़ा भी यही था। जहां सरकारें ही अपहरण उद्योग चलाती रही हों, वहाँ प्रदेश से कूच करने के सिवाय कोई उपाय ही कहाँ रह जाता है? जहां तक घटिया पुल- पुलिया निर्माण का सवाल है, इसका कारण बाक़ी देश से कुछ अलग ही है।
बिहार में निर्माण कार्य का उद्देश्य क्वालिटी नहीं, बल्कि कॉस्ट होती है। यानी अच्छा निर्माण नहीं, बल्कि सस्ता निर्माण ही यहाँ की मूल नीति है। जो जितना सस्ता निर्माण करने की गारंटी देता है, ठेका उसी को मिलता है। इसके ऊपर इंजीनियरों और ठेकेदारों का गठजोड़। पैसे दो, निर्माण पास करवाओ।
बिल भी पैसे देकर ही पास होते हैं। कच्चे निर्माण के कारण ये पुल- पुलिया बार- बार टूटते- गिरते हैं। बार- बार टेंडर होते हैं। फिर बार- बार ये बनाए जाते हैं और मोटी रक़म बार- बार अफ़सरों, इंजीनियरों की जेब में जाती है।
सरकारों को इससे कोई मतलब न कभी रहा, न अब है। उन्हें तो दल बदलने, अपने सत्ता में बने रहने के रिकॉर्ड बनाने और नए-नए गठजोड़ करने से ही फुर्सत नहीं है। पुल चाहे गंगा में बहें या गंडक में, सरकारों को इससे क्या लेना-देना? बच्चे आज भी टूटी- फूटी नावों में बैठकर स्कूल जा रहे हैं।
बारातें तक नावों में गंगा पार कर रही हैं। कभी पूरी बारात हिलोरे खा रही है तो कभी दूल्हा – दुल्हन डूब में समा रहे हैं। सरकार नीरो की तरह चैन की बंसी बजा रही है। बिहार रोम की तरह जल रहा है। आज भी। अब भी।