नौकरी में काम के दबाव से घुट रही है लोगों की जान ?
नौकरी में काम के दबाव से घुट रही है लोगों की जान, भारत में 60% को ‘बर्नआउट’ के लक्षण
भारत में काम करने की संस्कृति को लेकर हमेशा से एक अद्भुत महिमामंडन रहा है. “काम करो, सफल बनो” का यह आदर्श इतना गहरा हो गया है कि यह न केवल हमारे करियर, बल्कि हमारी पहचान का भी एक हिस्सा बन गया है.
ऐना की मां ने इस दुखद घटना के बाद एक महत्वपूर्ण बयान दिया, जिसने सभी को सोचने पर मजबूर कर दिया है. उन्हें यकीन है कि उनकी बेटी की मौत क्षमता से ज्यादा काम करने के कारण यानी वर्कलोड के कारण हुई है. उन्होंने EY इंडिया के चेयरमैन को एक पत्र लिखकर कंपनी के कामकाजी माहौल पर प्रकाश डाला, जिसमें उन्होंने बताया कि कैसे उनकी बेटी पर दिन-रात काम का दबाव था.
भारत में काम करने की संस्कृति को लेकर हमेशा से एक अद्भुत महिमामंडन रहा है. “काम करो, सफल बनो” का यह आदर्श इतना गहरा हो गया है कि यह न केवल हमारे करियर, बल्कि हमारी पहचान का भी एक हिस्सा बन गया है. 26 वर्षीय अन्ना सेबेस्टियन पेरेयिल की मौत ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या हम सच में काम को इस कदर महिमामंडित करना जारी रख सकते हैं? अब यह सवाल उठता है—क्या वाकई काम का यह तनाव हमारी जिंदगी ले रहा है?
क्या है ओवरवर्क इश्यू?
जब भी कोई व्यक्ति ऑफिस के काम के बोझ से निपटने के लिए एक्स्ट्रा समय में काम करता है या दफ्तर के काम को घर पर करता है, तो इसे ओवरवर्क करना कहते हैं. अगर आप इसे हर रोज करते हैं तो ये आपकी मेंटल हेल्थ, फिजिकल हेल्थ और सोशल लाइफ पर असर डाल सकता है.
भारतीय श्रम बाजार की स्थिति
वर्तमान में, भारत में लगभग 60% लोग बर्नआउट के लक्षणों का अनुभव कर रहे हैं. बर्नआउट एक मानसिक और शारीरिक स्थिति है, जो तब होती है जब कोई व्यक्ति लगातार तनाव, काम का दबाव, या अत्यधिक थकावट का सामना करता है. यह स्थिति अक्सर लंबे समय तक काम करने, असंतोषजनक कार्य वातावरण, या व्यक्तिगत जीवन में तनाव के कारण विकसित होती है.
वहीं McKinsey के एक रिसर्च रिपोर्ट में इस बात का भी खुलासा किया गया है कि भारत में का काम करने वाले लोगों का औसत समय प्रति सप्ताह 46.7 घंटा है, जो दुनिया के अन्य देशों की तुलना में सबसे ज्यादा है. ILO की रिपोर्ट के अनुसार,भारत में 51.4% लोग 49 घंटे से ज्यादा काम कर रहे हैं.
सबसे ज्यादा मेहनती लोगों में हैं भारतीय
साल 2023 में McKinsey ने 30 देशों में एक सर्वे किया था. इस सर्वे में शामिल करीब 60% भारतीयों का कहना था कि उनमें थकावट के लक्षण हैं. इसी रिपोर्ट में ये भी बताया गया कि 30 देशों के लोगों की तुलना में भारतीयों ने ही सबसे ज्यादा लोगों ने थकावट की बात कही थी. इससे पहले साल 2019 की एक रिपोर्ट में आई थी जिसमें बताया गया था कि मुंबई दुनिया का सबसे अधिक मेहनती शहर है. इसी लिस्ट में दिल्ली का नाम चौथे स्थान पर था. दूसरे नंबर पर हनोई और तीसरे पर मैक्सिको सिटी था. साल 2018 के एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि दुनिया में सबसे कम छुट्टी भारतीयों को ही मिलती है.
भारत में ओवरवर्क का महिमामंडन क्यों
भारत में ओवरवर्क का महिमामंडन कई कारणों से किया जाता है. दरअसल भारतीय संस्कृति में मेहनत और समर्पण को अत्यधिक महत्व दिया जाता है. इसे नैतिकता और सफलता का प्रतीक माना जाता है, जिससे लोग अधिक काम करने के लिए प्रेरित होते हैं.
इसके अलावा भारत में प्रतियोगिता ज्यादा है, खासकर शिक्षा और करियर के क्षेत्रों में. युवा पीढ़ी पर सफलता के लिए लगातार संघर्ष करने का दबाव होता है, जिससे वे ज्यादा काम करने लगते हैं. वहीं परिवार और समाज की अपेक्षाएं भी ओवरवर्क को बढ़ावा देती हैं. लोगों को यह महसूस होता है कि उन्हें अपनी मेहनत से परिवार और समाज को गर्वित करना है.
काम की अस्थिरता भी वर्कलोड का एक महत्वपूर्ण कारण है. दरअसल कुछ क्षेत्रों में नौकरी की सुरक्षा कम है, जिससे कर्मचारी काम को अधिक प्राथमिकता देते हैं. यह नौकरी खोने के डर को बढ़ाता है, और लोग बिना ब्रेक के काम करते हैं. कुछ सफल व्यक्तियों का उदाहरण लेते हुए, जो अत्यधिक काम करके अपनी सफलता को प्राप्त करते हैं, अन्य लोग भी उन्हीं के रास्ते पर चलने की कोशिश करते हैं. इसके अलावा डिजिटल युग में काम करने की सीमाएं धुंधली हो गई हैं. लोग अपने घर से भी काम करने के लिए हमेशा उपलब्ध रहते हैं, जिससे ओवरवर्क की स्थिति और बढ़ जाती है.
अंतरराष्ट्रीय तुलना
जब हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें, तो भारत की स्थिति चिंताजनक है. WHO और ILO की रिपोर्ट में यह स्पष्ट है कि लंबे समय तक काम करने से स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है. भारत में, लंबे काम के कारण मौतों की दर 2000 से 2016 के बीच 47% बढ़ गई है. इस अवधि में, भारत का हिस्सा वैश्विक मौतों में 27% तक पहुंच गया है. यह आंकड़े यह बताते हैं कि हम एक गंभीर समस्या का सामना कर रहे हैं.
उत्पादकता और काम का समय
भारत में हर घंटे का श्रम उत्पादकता केवल $8 है, जो कि अन्य देशों की तुलना में बहुत कम है. तुलना के लिए, वियतनाम में हर घंटे का श्रम उत्पादकता $9.8, फिलीपींस में $10.5 और चीन में $15.4 है.
इसके अलावा अधिकतर उच्च आय वाले देश 34 से 38 घंटे काम करते हैं, जबकि भारत में औसत कार्य समय 46.7 घंटे है. यह स्पष्ट है कि अधिक काम करने से उत्पादकता में सुधार नहीं होता है, बल्कि यह स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाता है.
युवा और काम का तनाव
युवाओं के लिए काम का माहौल और भी चुनौतीपूर्ण है. नए कर्मचारियों को अक्सर “अधिक काम करने” की उम्मीद होती है, और उन्हें यह नहीं पता होता कि कैसे सीमाएं निर्धारित करें. ILO के आंकड़ों के अनुसार, युवा कर्मचारी अपने वरिष्ठों की तुलना में अधिक घंटे काम करते हैं. इस बात का सीधा संबंध मानसिक स्वास्थ्य और बर्नआउट से है.
कार्यस्थल का माहौल
कार्यस्थलों पर बर्नआउट का मामला गंभीर है. भारत में कई क्षेत्रों में कार्यकारी कर्मचारी 50 से 57 घंटे काम कर रहे हैं. यह कार्यभार कर्मचारियों की मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव डालता है. आन्ना की कहानी इस बात की स्पष्ट उदाहरण है कि कैसे कार्यस्थल का दबाव जानलेवा हो सकता है.
क्या बदलाव संभव है?
इस समस्या का समाधान संभव है. कई देशों ने कार्यस्थल पर बर्नआउट को कम करने के लिए कदम उठाए हैं. चीन ने 44 घंटे का कामकाजी समय निर्धारित किया है. भारत में भी अगर हम कार्य समय को सीमित करें और कार्यस्थल पर एक स्वस्थ वातावरण बनाएं, तो हम न केवल कर्मचारियों की भलाई सुनिश्चित कर सकते हैं, बल्कि उत्पादकता में भी सुधार कर सकते हैं.
इन सेक्टर्स का बुरा हाल
भारत के इंफॉर्मेशन और कम्युनिकेशन सेक्टर का सबसे बुरा हाल है. आईएलओ के आंकड़ों के अनुसार इंफॉर्मेशन और कम्युनिकेशन सेक्टर में कर्मचारी हफ्ते में एक हफ्ते में 57.5 घंटे काम करते हैं जो इंटरनेशनल लेबर मेंडेट से लगभग नौ घंटे ज्यादा है. इंटरनेशनल स्टैंडर्ड क्लासिफिकेशन ऑफ ऑक्यूपेशन के तहत 20 क्षेत्रों में से 16 में कर्मचारी सप्ताह में 50 घंटे या उससे ज्यादा काम करते हैं. यही कारण है कि भारत में पेशेवर, वैज्ञानिक और तकनीकी गतिविधियों की कैटेगरी में भी हफ्ते में 55 घंटे काम होता है. केवल कृषि और निर्माण जैसे श्रम-प्रधान क्षेत्र ही 48 घंटे के कार्य सप्ताह के करीब आते हैं.
बंद होना चाहिए काम का महिमामंडन
भारत में काम का महिमामंडन अब और नहीं होना चाहिए. हमें यह समझना होगा कि हमारी स्वास्थ्य और खुशी सबसे पहले आती है. अन्ना की मौत ने हमें यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या वास्तव में काम का यह महिमामंडन हमारे लिए फायदेमंद है या यह केवल एक झूठा आदर्श है. अब समय आ गया है कि हम अपने काम को सही दृष्टिकोण से देखें और इसे एक साधन के रूप में समझें, न कि हमारी पहचान के रूप में.
भारत को अपने काम करने के तरीकों में बदलाव लाने की आवश्यकता है. अगर हम इस दिशा में कदम नहीं उठाते हैं, तो हमें भविष्य में और ऐना जैसी की कहानियों का सामना करना पड़ सकता है. इसलिए, यह जरूरी है कि हम इस मुद्दे को गंभीरता से लें और अपने काम के प्रति दृष्टिकोण को बदलें.