हरियाणा के नतीजों के लिए 8 प्रमुख फैक्टर जिम्मेदार रहे !
हरियाणा के नतीजों के लिए 8 प्रमुख फैक्टर जिम्मेदार रहे
अगर लोकसभा चुनाव के नतीजों ने चौंकाया था तो हरियाणा के नतीजों से कइयों को झटका लगा है। शायद ही ऐसा कोई चुनाव हुआ हो, जिसमें हर चुनाव-विश्लेषक नतीजों की सही भविष्यवाणी करने में विफल रहा हो। फिर भाजपा ने कैसे विपरीत परिस्थितियों और 10 साल की सत्ता-विरोधी लहर के बावजूद शानदार जीत दर्ज की? यहां 8 प्रमुख फैक्टर दिए जा रहे हैं।
1) हमारे यहां ‘फर्स्ट-पास्ट-द-पोस् ट’ की चुनाव-प्रणाली है, जिसमें वोट-शेयर में मामूली अंतर भी सीटों पर बड़ा असर डाल सकता है। हरियाणा में कांग्रेस का वोट-शेयर वास्तव में 2019 की तुलना में 11% बढ़कर 28 से 39% हो गया है। वहीं भाजपा का वोट-शेयर 36.4 से 39.9% तक यानी 3.5% बढ़ा। दोनों पार्टियों का वोट-शेयर लगभग बराबर था, लेकिन भाजपा ने 48 सीटें जीतीं और कांग्रेस ने 37, यानी ‘फर्स्ट-पास्ट-द-पोस् ट’ से 11 सीटों का निर्णायक अंतर आ गया।
2) जाट-वोट हरियाणा की आबादी का लगभग 25% हैं। वे दुष्यंत चौटाला की जेजेपी को छोड़कर कांग्रेस के इर्द-गिर्द एकजुट हो गए, इसके बावजूद कांग्रेस रोहतक, सोनीपत, जींद जैसे जाट-गढ़ों में कई सीटों पर भाजपा से हार गई। एक प्रमुख फैक्टर इस क्षेत्र में कांग्रेस के बागी और स्वतंत्र जाट उम्मीदवारों की उपस्थिति थी, जिन्होंने मुकाबले को बहुकोणीय बना दिया। कम से कम एक दर्जन सीटों पर बागियों ने कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया, जबकि भाजपा अपने आंतरिक-विद्रोहों पर अंकुश लगाने में सक्षम रही।
3) भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में कांग्रेस ने जाट-फैक्टर को आक्रामक तरीके से भुनाया, लेकिन जमीनी स्तर पर भाजपा के पक्ष में गैर-जाटों का धीरे-धीरे एकीकरण हुआ। यह एक साइलेंट-फैक्टर था, जो चुनाव-प्रचार के शोर में अनदेखा रह गया। हरियाणा में 40% से अधिक ओबीसी आबादी है, जो हाल के चुनावों में भाजपा के लिए एक प्रमुख वोट-बैंक रहा है। नायब सिंह सैनी के रूप में एक ओबीसी चेहरे के साथ भाजपा ओबीसी मतदाताओं के लिए स्वाभाविक आकर्षण थी। ये जाटों की तरह मुखर नहीं थे, लेकिन मतदान-केंद्र पर उनकी प्रभावी मौजूदगी थी। राहुल गांधी ने भले ही ओबीसी सशक्तीकरण और जाति-जनगणना की बात की हो, लेकिन हरियाणा में जमीनी स्तर पर पार्टी के पास ओबीसी चेहरे नहीं थे।
4) लोकसभा चुनावों में जब कांग्रेस और भाजपा को 5-5 सीटें मिलीं, तो कांग्रेस को मिलने वाला अतिरिक्त वोट दलित मतदाताओं से आया था, जो हरियाणा की आबादी का करीब 22% है। कांग्रेस के ‘संविधान खतरे में है’ नारे ने लोगों का ध्यान लोकसभा चुनाव में खींचा, लेकिन स्थानीय स्तर पर होने वाले चुनाव में यह वैसा मुद्दा नहीं था, जितना सैनी सरकार की लाभार्थी योजनाएं थीं। इससे दलित-वोट बंट गए।
5) सीएम पद की खींचतान और अंदरूनी गुटबाजी ने कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ा दीं। भाजपा में भी बागी और सीएम पद के दावेदार थे, लेकिन आलाकमान ने अंतर्कलह को एक सीमा से आगे सार्वजनिक नहीं होने दिया। इसके विपरीत, कांग्रेस के प्रमुख दलित चेहरे कुमारी सैलजा को हाशिए पर धकेल दिया गया। इसने भाजपा के इस नैरेटिव को मजबूत किया कि कांग्रेस एक परिवार, एक जाति को समर्पित दलित-विरोधी पार्टी है।
6) अति-आत्मविश्वास घातक होता है। लोकसभा चुनाव में भाजपा को ‘अबकी बार 400 पार’ के नारे की कीमत चुकानी पड़ी। हरियाणा में कांग्रेस के नारे ‘भाजपा जा रही है, कांग्रेस आ रही है’ ने ऐसा माहौल बनाया, मानो चुनाव ‘समाप्त’ हो गया हो। टिकट-वितरण से बूथ-कनेक्टिविटी तक आत्मसंतुष्टि छा गई।
7) कांग्रेस के विपरीत, भाजपा ने लोकसभा और विधानसभा चुनावों के बीच दिशा बदली। शीर्ष-नेतृत्व से लेकर बूथ-स्तर के पन्ना-प्रमुखों तक संगठनात्मक मशीन में हर स्तर पर खामियों को दूर किया गया। चाहे ओबीसी-आरक्षण के लिए ‘क्रीमी लेयर’ मानदंड बदलने जैसे नीतिगत बदलाव हों या घर-घर जाकर मतदाताओं से संपर्क करना, भाजपा के पास जमीनी स्तर पर काम करने के लिए बेंच-स्ट्रेंथ और पैदल-सैनिक थे। उसने अपने कई मौजूदा विधायकों के टिकट भी काटे। कांग्रेस ने एक भी विधायक नहीं बदला।
8) इंडिया गुट के किसी सहयोगी के साथ गठबंधन न करने का कांग्रेस का फैसला गलत रहा। ‘आप’ को भले 1% से थोड़ा अधिक वोट मिले हों, लेकिन करीबी मुकाबलों वाले चुनाव में हर अतिरिक्त वोट मायने रखता है। भारत में राज्यों के चुनाव संगठनात्मक-ताकत से जीते जाते हैं। कांग्रेस आज भी भाजपा के ग्राउंड-गेम का मुकाबला नहीं कर पा रही है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)