मुकुंद लाठ हैं मानवीय भावनओं को उकेरने वाले चिंतक…

 मकुंद लाठ हैं मौलिक चिंतक, उनके निबंधों का संग्रह “भावन” है विचारोत्तेजक और प्रश्नकर्ता बनानेवाला

भाव पक्ष की है प्रधानता

जहां तक मैं समझ पाया हूँ, लेखक अपने निबन्धों को विचार से ज्यादा भाव मानता है. लेखक की अपनी स्थापना है कि विचार तटस्थता की मांग कर सकता है, मगर भाव का स्वाभविक परिणाम निमग्नता है, यानी भावक जो अनुभूत कर रहा है वह उसका सत्य है और उसे लेकर वह विमर्श का निमंत्रण नहीं देता है क्योंकि वह वैचारिक स्थापना नहीं दे रहा है बल्कि उसे जो महसूस हुआ बस वही व्यक्त कर रहा है. भाव और विचार के बीच विभेद अमूर्त लोक का चिन्तन है मगर लेखक के भावन से उपजे निबन्ध निस्संदेह विचारप्रवण हैं. 

पुस्तक विषयवार तीन खण्डों विभाजित है. पहले खण्ड में संस्कृत-प्राकृत साहित्य के हवाले से किया गया चिन्तन है. दूसरे खण्ड में साहित्य-संगीत-कला से जुड़े सैद्धान्तिक विमर्श हैं. तीसरे खण्ड में आधुनिक साहित्य से प्रेरित निबन्ध हैं. यदि ये तीनों खण्ड स्वतंत्र पुस्तक के रूप में होते तो ज्यादा छात्रोपयोगी होते. इसलिए नहीं कि किताब पतली होती बल्कि इसलिए कि ज्यादातर पाठकों की अभिरुचि का दायरा लेखक जितना व्यापक नहीं होता. मसलन, हिन्दी साहित्य के छात्रों को मुकुन्द जी के निर्मल वर्मा और सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला पर केन्द्रित निबन्ध ज्यादा रोचक और उपयोगी लगेंगे. ये दोनों ही लेखक ज्यादातर कॉलेज-यूनिवर्सिटी में हिन्दी स्नातक या परास्नातक के पाठ्यक्रम में हैं. यदि मुकुन्द लाठ के ये निबन्ध छात्रोपयोगी स्वरूप में होते तो ये विद्यार्थियों के लिए ज्यादा सुगम होते. 

लाठ के लेखों पर हो विचार, समालोचना

यह मेरे अध्ययन की सीमा हो सकती है मगर मेरे देखे हिन्दी की प्रगतिशील विमर्श में मुकुन्द लाठ के लेखों का खण्डन-मण्डन मेरी नजर से शायद ही कभी गुजरा हो. कोई कह सकता है कि इसके लिए हिन्दी बौद्धिक जगत का आलस्य या गुटबन्दी या प्रमाद जिम्मेदार है, कारण चाहे जो है, इन निबन्धों को पढ़ने के बाद यह विश्वास होता है कि मुकुन्द लाठ एक मौलिक विचारक हैं. उन्होंने जिन विषयों पर चिन्तन किया है, उनपर होने वाली अकादमिक बहसों में उनके परिप्रेक्ष्य का संज्ञान लिये बिना समेकित विवेचना सम्भव नहीं है. 

इस संग्रह का पहला निबन्ध “स्वतंत्रा स्त्री” संस्कृत साहित्य के झरोखे से स्त्री स्वतंत्रता के विषय पर विचार करता है. निबन्ध का प्रारम्भ एक विचारोत्तेजक प्रश्न से होता है, “पुरुषार्थ क्या पुरुष के लिए ही है या स्त्री के लिए भी?” धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को हिन्दू धर्म के चार पुरुषार्थ माना जाता है. मुकुन्द जी ने पुरुषार्थ के लिंग-भेद पर विचार करते हुए विषय प्रवेश किया है. मुकुन्द जी स्पष्ट करते हैं कि संस्कृत वैयाकरणों के अनुसार कई शब्द ऐसे होते हैं जिनमें लिंग होता है मगर उसकी विवक्षा नहीं होती यानी शब्द का जेंडर है, मगर उसका अर्थ-जेंडर न्यूट्रल होता है. आज के उदाहरण से हम राष्ट्रपति या सभापति जैसे शब्द ले सकते हैं. पुरुष, पुरुषार्थ, लिंग विवक्षा और स्त्री स्वतंत्रता का आपसी सम्बन्ध समझने के लिए आपको यह निबन्ध पढ़ना पड़ेगा.

गणराज्य पर होनेवाली बहस

पुस्तक का दूसरा निबन्ध भगवान कृष्ण के बहाने तत्कालीन राजनीतिक मॉडल की विवेचना करता है. भारत में आमतौर पर गणराज्य (विभिन्न राज्यों का संघ) की व्यवस्था को बौद्ध कालीन माना जाता है. इसी आधार पर भारत को गणराज्य का जन्मदाता भी कहा जाता है. गणराज्य (रिपब्लिक) को लेकर होने वाली बहसों में हस्तक्षेप करते हुए मुकुन्द जी ने भगवान कृष्ण को संघ-मुख्य स्वरूप को रेखांकित किया है. आधुनिक शब्दावली में कहें तो मुकुन्द जी की स्थापना है कि कृष्ण किसी राज्य के राजा नहीं थे बल्कि गणराज्य के नैतिक अभिभावक और प्रमुख थे. इसी निबन्ध में मुकुन्द जी  महाभारत के कृष्ण और भागवत पुराण के कृष्ण की भी तुलनात्मक विवेचना करते हैं. उनका मानना है कि भारतीय लोकमानस में महाभारत के कृष्ण से ज्यादा भागवत के कृष्ट की रसाई है. बंसी बजाने वाले कृष्ण, गाय चराने वाले कृष्ण, गोपियों के संग रास रसाने वाले कृष्ण की छवि भागवत की देन है न कि महाभारत की. भगवान कृष्ण और संघ-मुख्य कृष्ण के भेद जानने के लिए आपको यह निबन्ध पूरा पढ़ना पड़ेगा. 

पुस्तक के जितने भी निबन्धों की चर्चा की जाए, उनमें आपको लेख की मौलिक दृष्टि परिलक्षित होती है जो पाठक को विषय को नए परिप्रेक्ष्य में देखने को प्रेरित करती है. इस फौरी समीक्षा का समापन हम स्वयं मुकुन्द लाठ द्वारा की गयी एक समीक्षा की चर्चा से करते हैं. मुकुन्द जी ने हिन्दी साहित्य में महाकवि के रूप में प्रतिष्ठित सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की चर्चित कविता ‘राम की शक्ति पूजा’ की फौरी समीक्षा की है. इस समीक्षा में मुकुन्द जी ने जिस तरह की शब्द-सजगता और भाव-सजगता दिखायी है, वह आपको इस कविता को पुनः पढ़ने और उसके अर्थ एवं काव्य प्रयोग पर विचार करने के लिए बाध्य करती है. इस कविता में विषय प्रवेश करते हुए मुकुन्द जी, सबसे पहले निराला जी के हाइफन और कॉमा के प्रयोग पर विचार करते हैं.

व्याकरण में छूट पर भाव महत्वपूर्ण

‘राम की शक्ति पूजा’ कविता में प्रयुक्त हाइफन निराला जी की हस्तलिखिति प्रति के अनुरूप हैं या नहीं, इसकी पुष्टि प्रकाशक ही कर सकते हैं मगर इस कविता के प्रकाशित रूप में हाइफन के मनमाने प्रयोग से जो अर्थ-विपर्यय होता है, उसे मुकुन्द जी ने अपनी समीक्षा में रेखांकित किया है. बहुत सम्भव है कि ये प्रयोग मूल प्रति में हों क्योंकि मुकुन्द जी ने दिखाया है कि निराला जी ने इस कविता में व्याकरण के नियमों से भी पर्याप्त छूट ली है. इतना ही नहीं, इस कविता के भाव-लोक जो मूलतः भक्ति है, उसमें भी निराला जी ने पर्याप्त छूट ली है. मुकुन्द जी ने इस कविता के भक्त-लोक के मानचित्र का निरूपण करके दिखाया है कि निराला ने स्थापित भक्ति परम्परा से किस तरह मौलिक छूट ली है. 

शब्द-सीमा की विवशता के चलते इस पुस्तक के सभी निबन्धों का उल्लेखमात्र करना भी सम्भव नहीं है. न ही ऐसा है कि इस संग्रह में संकलित 28 निबन्धों में से  केवल कुछ निबन्ध उल्लेखनीय हैं जिनका जिक्र करके समीक्षा को मुकम्मल स्वरूप दिया जा सके. इस संकलन के सभी निबन्ध उन लोगों के लिए जरूरी पाठ हैं, जो सम्बन्धित विषयों पर चिन्तन-मनन करते हैं. मीडिया में समीक्षा की परिपाटी के अनुरूप यह बताना भी जरूरी है कि किताब पर मुद्रित मूल्य 595/रुपये है. इसे रजा पुस्तक माला के तहत राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. 

आज इतना ही. शेष, फिर कभी.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं.यह ज़रूरी नहीं है कि ….. न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.

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