कांग्रेस का अति-आत्मविश्वास ही उसका दुश्मन ?
कांग्रेस का अति-आत्मविश्वास ही उसका दुश्मन
हमें 2004 से शुरुआत करनी होगी। हकीकत यह है कि राष्ट्रीय परिदृश्य में देखें तो इस पार्टी पर कोई फॉर्मूला लागू नहीं होता- न जीतते-जीतते हार जाने वाला और न इसके उलट। इसलिए लगभग होते-होते होने वाली चीजों को भी पार्टी ने बड़ी आसानी से अपनी जीत घोषित कर दिया।
2004 के लोकसभा चुनाव में उसने 145 सीटें जीती थीं, अटल बिहारी वाजपेयी की भाजपा से 7 ज्यादा। इसके बूते सोनिया गांधी ने वाम दलों- जो 59 सीटें जीतकर अपने ऐतिहासिक शिखर को छू चुके थे- की मदद से यूपीए सरकार बना ली थी।
2009 में कांग्रेस ने इससे भी ज्यादा सीटें लाकर एक दशक राज किया। 2024 में 99 सीटें जीतकर वह 234 सीटों वाले ‘इंडिया’ गठबंधन की काल्पनिक अगुआ बन गई। जबकि लगातार तीसरी बार वह सैकड़े का आंकड़ा छूने में नाकाम रही थी।
कांग्रेस कोई कैडर आधारित पार्टी नहीं है। उसका वैचारिक तत्व हल्का है, जिसका सौदा सत्ता से किया जा सकता है। सत्ता में न रहने पर इसके लिए अपना वजूद बचाना मुश्किल हो जाता है। गौर कीजिए कि भाजपा कांग्रेस-मुक्त भारत बनाने चली थी और उसे कांग्रेस-युक्त भाजपा हासिल हुई। भाजपा आज कांग्रेस के अधिकतर परिवारवादियों की पार्टी बन गई है, जिनमें वे भी हैं, जो 2004-14 में राहुल गांधी की अंदरूनी मंडली में थे।
2004 के नतीजे ने सभी अपेक्षाओं को ध्वस्त कर दिया था। सत्ता में अचानक वापसी एक लॉटरी थी, लेकिन सामंती पार्टी के अंदरूनी सलाहकार इसे इस रूप में देखने को राजी नहीं थे। उन्होंने सुविधाजनक निष्कर्ष निकाल लिए कि यह देश में व्याप्त असमानता के खिलाफ वोट है, कि यह सोनिया का जादू है, कि यह वाजपेयी के ‘इंडिया शाइनिंग’ के दावे का खंडन है, कि मतदाताओं ने कांग्रेस के पुराने वैचारिक विमर्श को फिर से अपना लिया है।
यही वजह है कि इसके बाद जनकल्याणवाद पर जबर्दस्त जोर दिया गया। इस विचार को टाल दिया गया कि पार्टी में आंतरिक सुधार की जरूरत है, कि आंतरिक प्रतिस्पर्द्धा के जरिए नए नेताओं को उभारना चाहिए, या महत्वपूर्ण जातीय तथा दूसरी पहचान वाले समूहों के नए पैरोकारों की तलाश करनी चाहिए। यह मान लिया गया कि जीत तो जीत है, चाहे एक रन से जीतें या एक इनिंग से। 2009 के नतीजे ने इस मान्यता पर मुहर ही लगा दी।
इस तरह, एक मुगालते में जश्न मनाते हुए दस साल जाया कर दिए गए। यूपीए अपनी लोकप्रियता खोता गया, लेकिन किसी ने खतरे की घंटी नहीं बजाई। यह मान लिया गया कि कांग्रेस तो सत्ता के लिए ही बनी पार्टी हैं। नौ और साल हार की हताशा से उपजे भटकाव में बर्बाद किए गए।
दसवें साल में, राहुल की ‘पदयात्रा’ और मल्लिकार्जुन खरगे के पार्टी अध्यक्ष बनने के कारण कुछ वापसी जैसी हुई। इसने निष्क्रिय पड़े वफादारों को हरकत में ला दिया। लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण बदलाव इस नए यथार्थ-बोध के रूप में आया कि पार्टी चाहे जितनी प्राचीन, जितनी मजबूत वंश-परंपरा वालों की क्यों न रही हो, वह केवल अपने बूते भाजपा को नहीं हरा सकती। उसे सहयोगी जोड़ने पड़ेंगे, और अपने स्वभाव के विपरीत विनम्रता और बड़ा दिल दिखाना पड़ा। इस तरह ‘इंडिया’ गठबंधन अस्तित्व में आया और भाजपा को 240 पर सिमटा दिया गया।
जैसे कांग्रेस ने 2004 में 145 सीटों को अपनी जीत घोषित किया था और कहा था कि इसके साथ उसका राजनीतिक वनवास खत्म हो गया है, वही प्रवृत्ति अब ‘इंडिया’ की 234 में 99 सीटों की भागीदारी के मामले को लेकर हावी हो रही है।
पार्टी में सुधार, आंतरिक चुनाव या नए नेतृत्व को सामने लाने वाली प्रतिस्पर्द्धा आदि तमाम बातों को भुला दिया गया है। और सहयोगियों के मामले में क्या रुख है? यही कि क्या हमें अब भी उनकी जरूरत है? हरियाणा में ‘आप’ या सपा को कुछ सीटें क्यों दें? हमारी मदद से सहयोगी हमारे इलाके में अपने पैर क्यों जमाएं?
लेकिन जून की हेकड़ी अक्टूबर में हरियाणा की तस्वीर साफ होते ही हवा हो गई। 2024 की गर्मियों ने इस हकीकत में कोई बदलाव नहीं किया कि कांग्रेस अपने दम पर भाजपा को नहीं परास्त कर सकती, उसे दूसरों की मदद लेनी ही पड़ेगी। वास्तव में, भाजपा की चिंता यह है कि आगे करीब ढाई साल तक असम को छोड़ और कहीं कांग्रेस से उसका सीधा मुकाबला नहीं होने वाला है।
महाराष्ट्र, झारखंड, दिल्ली और बिहार में क्षेत्रीय दल उसके मुख्य प्रतिद्वंद्वी होंगे, जबकि कांग्रेस उनके पीछे खड़ी होगी। कांग्रेस की तुलना में क्षेत्रीय दलों से मुकाबला भाजपा के लिए ज्यादा टेढ़ा साबित होता है। लग रहा है कांग्रेस को एहसास हो गया है कि उसने पिछले आम चुनाव के नतीजों को अपने लिए कुछ ज्यादा ही अनुकूल मान लिया था। यह यूपी में सपा को आसानी से दी गई छूट और महाराष्ट्र-झारखंड में उसके ज्यादा व्यावहारिक रुख से जाहिर होता है।
अगर मैं कहूं कि पिछले दशक में कांग्रेस के लिए सबसे बुरी बात हुई है 2024 में लोकसभा की 99 सीटें जीतना- तो आप मुझे अपने दिमाग का इलाज कराने की सलाह देंगे। लेकिन पहले मेरी बात सुन लीजिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)