संतान दंपति की समस्या का समाधन भर नहीं, बल्कि है बड़ी जिम्मेदारी ?

 एडॉप्शन सिर्फ नि:संतान दंपति की समस्या का समाधन भर नहीं, बल्कि है बड़ी जिम्मेदारी

हर साल नवंबर को एडॉप्शन अवेयरनेस मंथ के तौर पर मनाया जाता है. हमारी भी इसमें यही कोशिश रहती है कि हम ज्यादा से ज्यादा लोगों के बीच जागरुकता फैला पाएं. ऐसे में सबसे पहले लोगों के मन में यही सवाल उठता है कि आखिर एडॉप्शन (गोद लेना) क्या होता है? इसको तकनीकी दृष्टि से देखें तो एक बच्चे को घर के अंदर लाना, जहां पर आपको लगता है कि कोई संतान उस घर में नहीं है. आप बच्चे को एडॉप्ट करके अपने घर में लेकर आए. लेकिन, ये प्रक्रिया सिर्फ एक ट्रांजेक्शन नहीं, बल्कि बहुत बड़ी जिम्मेदारी है. समाज के प्रति एक बड़ा योगदान होता है. 

इसमें ये समझना जरूरी है कि हम बच्चे को गोद क्यों ले रहे हैं? हम अगर सिर्फ एक अपनी आवश्यकता पूरी करने के लिए बच्चा गोद ले रहे हैं तो हमारा नजरिया बिल्कुल अलग होगा. फिर हम हर समय ये अपेक्षा करते रह जाएंगे कि बच्चा क्या कर रहा है, क्या सीख रहा है और हमें क्या दे रहा है.

इसके विपरीत, हम एडॉप्शन को समझें कि हमारी क्या जरूरत हो सकती है. लेकिन, उससे भी ज्यादा बड़ी चीज बच्चे की जरूरत है. एक बच्चा चाहे वह किसी भी उम्र का हो, चाहे वो नवजात हो, चाहे 10 या 12 साल का हो, हर उम्र में बच्चे की आवश्यकता एक सुरक्षित परिवार की होती है. एक बेहतर वातावरण की होती है. उसमें हम क्या भूमिका निभा सकते हैं?

परिवार बढ़ाने का अलग जरिया एडॉप्शन

हमारी जरूरत एक चीज होती है, लेकिन अगर हम जरूरत को पीछे रखकर ये देखें कि बच्चा उस योगदान में कैसे साझीदार बन सकता है. वो हमें क्या खुशी दे सकता है, तो फिर गोद लेने के मायने बदल जाते हैं. हम भी अपने एनजीओ के जरिए यही कोशिश करते हैं कि गोद लेने के प्रति नजरिया बदले. प्राय: देखा जाता है कि जो अधेड़ उम्र के नि:संतान दंपत्ति रहते हैं, वही बच्चे को गोद लेते हैं.

इसलिए अक्सर लोग पहले यही कोशिश करते हैं कि अपनी औलाद हो जाए. अगर अपना बच्चा नहीं होता है तो वे कई सालों तक वे आईवीएफ या मेडिकल ट्रीटमेंट के पीछे लगे रहे हैं, या फिर बाबाओं और मंदिरों के पीछे चक्कर काटते हैं. फिर भी नहीं होता है तो वे किसी अपने जानकार का ले लेते हैं. फिर अगर वे दंपति बच्चे को गोद लेते भी हैं तो उसमें ये समस्या आती है कि बच्चों को बताएं कैसे, बताएं या फिर नहीं बताएं.

मैं ऐसे कई माता-पिता और अभिभावकों के संपर्क में रहता हूं, जिनमें पिछले 10-15 या फिर 20 साल तक बच्चों को ये नहीं बताया जाता है कि उन्हें गोद लिया गया है. वे समझते हैं कि बच्चे को अगर बताया गया तो फिर वह रिएक्ट करेगा. किंतु, हम अगर ये समझें कि हमने बच्चे को बसाया है तो गोद लेना सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ेगा.    

हमारी कोशिश यही रहती है कि हम इस मानसिकता को बदलें और यह स्थापित करने का प्रयास करें कि गोद लेना एक नि:संतान दंपति की समस्या का समाधान भर नहीं है, बल्कि अपने परिवार को बनाने का एडॉप्शन एक अलग जरिया है. अगर विस्तार से देखें तो एडॉप्शन राष्ट्र निर्माण का भी जरिया है.

कानूनी प्रावधान

अब लोग ये जानना चाहते हैं कि गोद लेने के लिए आखिर क्या कुछ कानूनी प्रावधान है? एडॉप्शन में दो तरह के कानूनी प्रावधान मौजूद हैं- हिन्दुओं को हिन्दू एडॉप्शन मैंटिनेंस एक्ट 1956 के अंतर्गत एक हिन्दू किसी दूसरे हिन्दू से उसका बच्चा गोद ले सकता है. इसमें सबसे बड़ी खासियत ये है कि बच्चे को किसी अनाथालय में नहीं जाना पड़ता है.   

हम सभी जानते हैं कि बच्चा अगर एक दिन, एक महीना या फिर एक साल बच्चा अनाथालय में रहता है तो वे मानसिक विकास के लिए वह वातावरण बड़ा घातक होता है. ऐसे में एडॉप्शन की सबसे खूबसूरती यही है कि एक परिवार से बच्चा लेकर दूसरे परिवार को दे दिया गया. लेकिन, इसकी सबसे बड़ी खामी ये है कि एक तो ये सिर्फ हिन्दुओं के लिए मौजूद है. ऐसे में बाकी जितने भी धर्म और आस्था के लोग हैं, वो इससे वंचित रह जाते हैं. दूसरा इसमें सबसे बड़ी रुकावट ये आती है कि किसी को आखिर पता कैसे चले कि बच्चा कहां पर उपलब्ध है. 

क्योंकि कोई ऐसी एजेंसी नहीं है जो बच्चों का रिकॉर्ड रखता हो. ऐसे में माता-पिताओं का गलत हाथ में पड़ना बहुत लाजिमी हो जाता है. कोई भी उन्हें ये बता सकता है कि मेरे पास एक बच्चा है और अक्सर क्योंकि पैरेंट्स सालों बाद एडॉप्शन की ओर रुख करते हैं, ऐसे में कई बार वह कॉमर्शियल ट्रांजेक्शन बनकर रह जाता है.

कुछ गलतियां पैरेंट्स की भी होती है कि वे सोचते हैं कि हमें हमारी तरह दिखने वाला हमारी जाति का बच्चा मिल रहा है. हफ्ते भर में बच्चा घर आ जाएगा. लेकिन ये सबसे बड़ा रिस्क है. हमने कई बार न्यूज़ पेपर रिपोर्ट्स में देखा है कि बच्चे को बड़ा करने के बाद उसके बायोलॉजिकल पैरेंट्स ये दावा कर देते हैं कि बच्चा उनसे जबरन लिया गया था. ऐसे में बच्चे को गोद लेते वक्त काफी सतर्क रहने की भी जरूरत है.    

ये हो सकता है कि किसी के बोलने या फौरन सहमति देकर बच्चा मिल जाएगा. लेकिन न बच्चे की हेल्थ, न ही उसकी मेडिकल स्टेट्स का पता है और न ही उसकी फैमिली बैकग्राउंड पता है. तो ये एक बहुत बड़ा रिस्क है. इसमें सारी जिम्मेदारी पैरेंट्स के ऊपर होती है.

दूसरा कानून है- इसके मुताबिक किसी भी आस्था का व्यक्ति बच्चे को गोद ले सकते है. वो है जस्टिस जुवेनाइल के अंतर्गत. साल 2000 से एडॉप्शन इसमें डाला गया और 2015 में लिस्ट बनाई गई. इसमें आप किसी भी संख्या में बच्चा ले सकते हैं, जहां पर पूरी प्रक्रिया निर्धारित की गई है. वहां पर बच्चे या तो सरेंडर किए जाते हैं या फिर लावारिस हाल में मिले बच्चों को लाया जाता है, या कुछ बच्चे जो अनाथ हो जाते हैं, उनका वहां पर पालन पोषण किया जाता है. वो सारे बच्चे एक पूल में रजिस्टर्ड होते हैं. उनके मेडिकल हिस्ट्री, उनके परिवार की जानकारी रहती है. सारी प्रक्रिया में काउंसलिंग और होम स्टडी होने के बाद बच्चों को दिया जाता है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं.यह ज़रूरी नहीं है कि … न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]

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