यह अधिनियम धार्मिक स्थलों के मामले में यथास्थिति कायम रखने का आदेश देने के साथ ही इसकी भी अनुमति देता है कि किसी स्थल का धार्मिक स्वरूप जानने के लिए उसका सर्वे हो सकता है। इसी के चलते पहले वाराणसी में ज्ञानवापी परिसर का सर्वे हुआ और फिर धार, मध्य प्रदेश में भोजशाला परिसर का।

मथुरा की ईदगाह मस्जिद के सर्वे का मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। इससे हर कोई परिचित होगा कि ज्ञानवापी और भोजशाला में सर्वे के दौरान वैसा कुछ भी नहीं हुआ, जैसा संभल में हुआ। संभल में इतना अधिक उपद्रव हुआ कि चार लोगों की जान चली गई और कई लोग घायल हो गए, जिनमें कई पुलिसकर्मी भी हैं। संभल में भीषण पत्थरबाजी यही संकेत कर रही है कि उसके लिए पहले से तैयारी की गई थी।

संभल की जामा मस्जिद को लेकर एक अर्से से यह कहा जा रहा है कि यहां पहले भगवान विष्णु के नाम का हरिहर मंदिर था, जिसे बाबर के आदेश पर तोड़कर वहां मस्जिद बनवाई गई। ऐसा कई इतिहासकार भी कहते हैं। मंदिर की जगह मस्जिद का निर्माण कराए जाने के दावे के आधार पर कुछ लोग स्थानीय अदालत गए। 19 नवंबर को अदालत ने सर्वे के आदेश दिए।

सर्वे का काम उसी दिन शाम को शुरू हो गया, लेकिन अंधेरा होने के कारण वह पूरा नहीं हो पाया और यह तय हुआ कि आगे फिर किसी दिन होगा। इसे रोकने के लिए ऊपरी अदालत जाने का रास्ता खुला था। लगता है कि उसका सहारा लेने के बजाय कुछ लोगों ने पत्थरबाजी करना बेहतर समझा।

पत्थरबाजी के बीच पुलिस के वाहनों को भी निशाना बनाया गया और गोलीबारी भी की गई। पुलिस की मानें तो जो चार लोग मरे, वह उसकी गोली से नहीं मरे। पता नहीं सच क्या है। अब इस पर खूब बहस हो रही है कि हिंसा क्यों हुई और किसने की? शायद इसका पता चल जाए, लेकिन इससे वे वापस नहीं आने वाले, जिनकी जान चली गई।

पता नहीं संभल में मस्जिद के सर्वे को लेकर क्या अफवाह उड़ाई गई, लेकिन यह तो साफ ही है कि सर्वे के बाद भी यथास्थिति में कोई बदलाव होने वाला नहीं था। आखिर जब अयोध्या में मंदिर के अकाट्य प्रमाण मिलने के बाद भी ऐसा नहीं हो सका तो भला संभल में कैसे हो जाता? यह एक तथ्य है कि ज्ञानवापी और भोजशाला के सर्वे के बाद भी यथास्थिति कायम है।

संभल में जामा मस्जिद के सर्वे से आपा खोने वालों की आपत्ति का यह एक आधार हो सकता है कि आखिर स्थानीय अदालत के मस्जिद के सर्वे के आदेश पर तुरंत अमल क्यों होने लगा, लेकिन क्या इस आपत्ति का जवाब पत्थरबाजी थी? जामा मस्जिद के सदर जफर अली की मानें तो भीड़ इसलिए भ्रमित हो गई, क्योंकि मस्जिद के सर्वे के क्रम में वजूखाने के हौज का पानी बाहर निकाले जाने से लोगों को लगा कि उसकी खोदाई शुरू हो गई है।

यह अजीब और हास्यास्पद है, क्योंकि कथित भ्रमित लोग नकाब पहनकर पत्थरबाजी करते देखे गए। यह पहली बार नहीं, जब सरकार या अदालत के किसी फैसले के खिलाफ सड़कों पर उतरकर हिंसा की गई हो। नागरिकता संशोधन कानून के मामले में भी ऐसा ही देखने को मिला था। तब सड़कों पर उतरकर बड़े पैमाने पर हिंसा की गई थी, जबकि इस कानून का किसी भारतीय नागरिक से कोई लेना-देना नहीं था।

इस हिंसा में सरकारी और गैरसरकारी संपत्ति को आग के हवाले किया गया था और दिल्ली में तो शाहीन बाग इलाके में करीब साल भर तक एक प्रमुख सड़क को घेरकर धरना दिया गया था। यही धरना बाद में दिल्ली में भीषण दंगे का कारण बना, जिसमें 50 से अधिक लोग मारे गए थे।

यह संभव है कि किसी व्यक्ति, समूह या समुदाय को कोई फैसला रास न आए, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह वैसा करे, जो संभल में किया गया। किसी को भी इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती कि यदि कोई काम उसके मन का न हो तो वह मनमानी करे। मंदिर-मस्जिद विवादों के हल के लिए दो ही उपाय हैं-एक, अदालतों के जरिये और दूसरा, आपसी सहमति के माध्यम से। आपसी सहमति से मंदिर-मस्जिद के विवाद हल हो सकते हैं, इसका प्रमाण है गुजरात का पावागढ़ मंदिर।

इस प्राचीन मंदिर के शिखर को 15वीं सदी में आक्रमणकारी सुल्तान महमूद बेगड़ा ने ध्वस्त कर वहां एक पीर की दरगाह बनवा दी थी। दोनों पक्षों के बीच लंबी बातचीत के बाद मंदिर के शिखर पर ध्वज फहराने की सहमति बनी और इस तरह सैकड़ों साल बाद 2002 में मंदिर के शिखर पर भगवा ध्वज फहराया गया। यह एक तथ्य है कि देश में न जाने कितने मंदिर हैं, जिन्हें आक्रमणकारियों ने ध्वस्त कर वहां मस्जिदें बनवाईं।

यह ठीक नहीं होगा कि हर ऐसी मस्जिद को मंदिर में तब्दील करने की कोशिश की जाए। ऐसा तो कुछ चुनिंदा मामलों में ही हो सकता है। जहां ऐसा नहीं हो सकता, वहां साक्ष्यों के आधार पर केवल इतना अंकित कर देना भर पर्याप्त होगा कि पहले यह स्थल एक मंदिर था। देश को आगे बढ़ना है तो उसे मंदिर-मस्जिद विवादों से बाहर निकलना ही होगा।