इन तमाम ‘रेवड़ियों’ का खर्च आखिर कौन उठा रहा है?
रेवड़ी उत्तर भारत में लोकप्रिय मिठाई है, लेकिन राजनीतिक चर्चाओं में यह आजकल मुफ्त सौगातों का प्रतीक बन गई है। आज ‘रेवड़ी’ शब्द का उपयोग उन लोकलुभावन योजनाओं के लिए किया जाता है, जिनमें राजनीतिक दल वोटरों को लुभाने के लिए मुफ्त के सामान या लाभ देने की पेशकश करते हैं।
इनमें टीवी, साइकिल, मुफ्त राशन से लेकर सीधे नगद हस्तांतरण तक शामिल हैं। रेवड़ी एक सस्ती मिठाई है, जो फौरी संतुष्टि देती है। मुफ्त सौगातों की राजनीति के लिए रेवड़ियों का रूपक इसीलिए उपयुक्त है। उसे ‘काजू कतली राजनीति’ कहना प्रभावी नहीं होगा!
रेवड़ियों की राजनीति आज भारत में हर राजनीतिक पार्टी का हिस्सा बन चुकी है। हर पार्टी अपने विरोधियों पर इसका आरोप लगाती है, जबकि वह खुद भी इससे अछूती नहीं रहती। दिलचस्प बात यह है कि कोई भी पार्टी सत्ता में आने के बाद अपने विरोधियों द्वारा शुरू की गई बड़ी कल्याणकारी या मुफ्त योजनाओं को कभी वापस नहीं लेती।
रेवड़ी का यही खेल है- एक बार दे दी, तो आप इसे रोक नहीं सकते। रेवड़ी का खेल सिर्फ देने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसे कैसे पेश किया जाता है, यह भी महत्वपूर्ण है। यह अकारण नहीं है कि अधिकांश कल्याणकारी योजनाओं के नामों में लाड़ या सम्मान सरीखे शब्दों को दर्शाया जाता है।
सवाल यह है कि यह राजनीति हमें कहां ले जाएगी? आज हर बड़े राज्य और हर बड़ी पार्टी के पास ‘गेमचेंजर’ योजनाएं हैं। डिजिटल नगद हस्तांतरण की तकनीक भी अब पहले से कहीं ज्यादा सुविधा देती है। आज सरकार लगभग हर महीने महिलाओं, बेरोजगार युवाओं, किसानों, कम आय वालों, पुजारियों और ग्रंथियों आदि को भी वेतन दे सकती है।
कुछ राज्यों में, मुफ्त बिजली और पानी आम बात है। ऐसा लगता है जैसे हम तेल की कमाई से मालामाल उन देशों में से हैं, जिनकी आबादी बहुत कम है और जिन्हें नहीं पता कि अपनी कमाई का क्या करें। जबकि, हम बिलकुल भी ऐसे नहीं हैं। हमारा सरकारी खजाना तंग है।
हम घाटे में रहते हैं, जिसका मतलब है कि सरकार आमदनी से ज्यादा खर्च करती है। सरकार पर बहुत कर्ज भी है, और वह ब्याज में बहुत पैसों का भुगतान करती है। हम जितनी ज्यादा रेवड़ियां बांटते हैं, घाटा उतना बढ़ता जाता है।
घाटा जितना होगा, सरकार को उसे पूरा करने के लिए उतना ही कर्ज लेना होगा या नोट छापने होंगे। ज्यादा उधार लेने से ब्याज दरें बढ़ती हैं, जिससे व्यापार और अर्थव्यवस्था धीमी हो जाती है। नोट छापने से महंगाई बढ़ती है। इससे किसी को मदद नहीं मिलती।
असल रेवड़ी की तरह राजनीतिक रेवड़ी भी मुफ्त में नहीं मिलती। कोई न कोई इसका खर्चा उठाता है। आम तौर पर आप ही इसका भुगतान करते हैं। मान लीजिए कि कोई परिवार 20,000 रुपए महीने कमाता और खर्च करता है।
अगर सरकार उन्हें 2000 रुपए प्रतिमाह देती है, तो वे बहुत खुश हो सकते हैं। लेकिन अगर महंगाई दर 10% है तो परिवार को अपना खर्चा चलाने के लिए हर महीने 22,000 रुपयों की न्यूनतम दरकार होगी। तो वास्तव में कुछ नहीं बदला। इस हाथ दे और उस हाथ ले वाला हिसाब है।
अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन के शब्दों में वास्तविक टैक्स कभी भी सिर्फ उसकी दर में नहीं होता। असली टैक्स वह होता है, जो सरकार खर्च करती है। तो यकीनन, अपनी सरकार को रेवड़ियों पर ज्यादा खर्च करने के लिए कहें। बस याद रखें कि कोई न कोई इसके लिए भुगतान कर रहा होगा। और बहुत मुमकिन है कि वो आप ही होंगे।
क्या इसके लिए नेताओं को दोष देना चाहिए? नहीं। जब नागरिकों को ही यह बात पसंद है कि सरकार से मुझे लेना है और मुझे इसकी परवाह नहीं कि वो इसे कहां से लाते हैं तो नेता क्यों इस बारे में सोचेगा? उसका काम तो मतदाताओं को खुश करना है ना?
कुछ राज्यों की रेवड़ी-योजनाएं तो इतनी बड़ी हिट बन गई हैं कि देर-सबेर उन्हें पूरे देश में भी अपनाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, महिलाओं को कैश ट्रांसफर एक राष्ट्रीय योजना बन सकती है। आइए, थोड़ा गणित करें कि अगर ऐसा होता है तो इसकी लागत कितनी होगी।
यदि हम सभी भारतीय महिलाओं को 2,000 रुपए प्रतिमाह देते हैं, तो इसमें 8.4 लाख करोड़ रुपए सालाना खर्च होंगे। देश का राजकोषीय घाटा पहले ही लगभग 17 लाख करोड़ रुपए है, जो बहुत अधिक है। इसे 50% और बढ़ाने से मुद्रास्फीति और ब्याज दरों में भारी उछाल आ सकता है। इसे चुकाएगा कौन? अगर आपको रेवड़ियां इतनी ही पसंद हैं तो कृपया बाद में यह शिकायत न करें कि सब कुछ बहुत महंगा हो गया है!
रेवड़ी कभी भी मुफ्त में नहीं मिलती। कोई न कोई इसका खर्चा उठाता है। आम तौर पर आप ही इसका भुगतान करते हैं। अगर आपको रेवड़ियां इतनी ही पसंद हैं तो कृपया बाद में यह शिकायत न करें कि सब कुछ बहुत महंगा हो गया है! (ये लेखक के अपने विचार हैं।)