विभाजनकारी नेताओं से रहना होगा सावधान ?

भारत सरकार का लक्ष्य संविधान से मान्यता प्राप्त सभी 22 भाषाओं में अनुवाद की सुविधा उपलब्ध कराने का है। इसे विडंबना ही कहेंगे कि भाषाई विविधता को प्रोत्साहित करने की भारतीय संसद की इस समावेशी एवं लोकतांत्रिक पहल की जहां विभिन्न मंचों पर मुक्त कंठ से प्रशंसा हो रही है वहीं भारत में संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों की सिद्धि के लिए उस पर अनावश्यक आपत्ति की जा रही है।
… भारतवर्ष विविधता का उत्सव मनाने वाला देश है। भिन्न-भिन्न वेश-भूषा, खान-पान, रहन-सहन, भाषा-बोली के बावजूद हमारी आंतरिक एकता दुनिया को चमत्कृत करती है। महाकुंभ इसका जीवंत उदाहरण है, परंतु विभाजनकारी राजनीति करने वाले दल एवं राजनेता उत्तर-दक्षिण के कल्पित भेद-भाव एवं भाषाई अस्मिता के नाम पर भारत को बांटना चाहते हैं।
वे भाषा को ज्ञान, परंपरा एवं संस्कृति के अजस्र स्रोत, धरोहर तथा अभिव्यक्ति एवं संवाद का माध्यम मानने के बजाय राजनीति का जरिया बनाना चाहते हैं। कदाचित इसीलिए सनातन संस्कृति पर अनेक अपमानजनक एवं घृणास्पद टिप्पणियां करने के बाद अब डीएमके और उसके नेता संस्कृत के विरुद्ध भी विषवमन कर रहे हैं। सदन की कार्यवाही का संस्कृत में तत्काल अनुवाद कराए जाने का विरोध समझ से परे है।
ऐसा भी नहीं है कि यह सुविधा केवल संस्कृत में ही उपलब्ध कराई गई हो, बल्कि संस्कृत के साथ-साथ अब बोडो, डोगरी, मैथिली, मणिपुरी और उर्दू में भी सदन की कार्यवाही का तत्काल रूपांतरण होगा। उल्लेखनीय है कि अंग्रेजी और हिंदी के अलावा असमिया, बांग्ला, गुजराती, कन्नड़, मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, तमिल, तेलुगु जैसी भाषाओं में एक साथ अनुवाद की सुविधा पहले से ही उपलब्ध है।
भारत सरकार का लक्ष्य संविधान से मान्यता प्राप्त सभी 22 भाषाओं में अनुवाद की सुविधा उपलब्ध कराने का है। इसे विडंबना ही कहेंगे कि भाषाई विविधता को प्रोत्साहित करने की भारतीय संसद की इस समावेशी एवं लोकतांत्रिक पहल की जहां विभिन्न मंचों पर मुक्त कंठ से प्रशंसा हो रही है, वहीं भारत में संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों की सिद्धि के लिए उस पर अनावश्यक आपत्ति की जा रही है।
लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने डीएमके नेता दयानिधि मारन की संस्कृत अनुवाद पर आपत्ति पर खेद जताते हुए बिल्कुल ठीक प्रश्न किया कि “आप दुनिया के किस देश में रह रहे हो? यह भारत है और भारत की मूल भाषा संस्कृत रही है। हमने 22 भाषाओं में अनुवाद की बात कही, परंतु आपको केवल संस्कृत एवं हिंदी पर ही क्यों आपत्ति है?” दरअसल इस प्रकरण ने डीएमके के असली चेहरे को उजागर करने का काम किया है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अनेकानेक विशेषताओं से सुसंपन्न तथा विज्ञान एवं तकनीक की दृष्टि से सर्वथा उपयुक्त होने पर भी संस्कृत की घनघोर उपेक्षा की गई। जबकि तथ्य यह है कि बार-बार के शोध एवं अनुसंधान के निष्कर्ष में संस्कृत को कंप्यूटर एवं आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के लिए सर्वाधिक उपयुक्त भाषा बताया गया।
जैसा लिखा जाता है, ठीक वैसा ही पढ़े और बोले जाने के कारण कंप्यूटर के लिए संस्कृत सबसे सटीक एवं वैज्ञानिक भाषा मानी गई है। स्वर-तंत्री, प्राणवायु, मुखावयव आदि के आधार पर ध्वनियों एवं वर्णों का वैज्ञानिक अनुक्रम, धातु-रचना, शब्द-निर्माण, पदक्रम, पद-लालित्य, वाक्य-विन्यास, अर्थ-विस्तार आदि की दृष्टि से यह अनुपम एवं अद्वितीय भाषा है।
संसार की अन्य भाषाओं में जहां किसी वस्तु एवं व्यक्ति विशेष के लिए प्रचलित शब्दों के पीछे का तार्किक आधार, कारण एवं प्रयोजन स्पष्ट कर पाना अत्यंत कठिन है, वहीं संस्कृत में गुण-धर्म-अर्थ आदि के आधार पर वस्तुओं-व्यक्तियों के नामकरण का औचित्य सिद्ध किया जा सकता है। इसमें सूत्रों में बात कही जा सकती है। यहां छंदों का अनुशासन है, अराजकता का व्याकरण नहीं। यह लय-सुर-ताल की भाषा है। जहां लय है, वहीं गति है और गति ही जीवन तथा जड़ता ही मृत्यु है। इसलिए संस्कृत जीवन की भाषा और जीवन का मंत्र है।
संसार की प्राचीनतम भाषाओं में से एक होने के कारण देश-विदेश की अधिकांश भाषाओं में प्रयुक्त शब्दावली के साथ संस्कृत की अद्भुत साम्यता दिखती है। भारत की अधिकांश बोलियों एवं भाषाओं की जननी होने के कारण यह राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता में अत्यधिक सहायक है।
सुप्रसिद्ध चिंतक एवं स्वतंत्रता सेनानी कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी लिखते हैं- “संस्कृत अगर राष्ट्रभाषा न होती तो सुदूर दक्षिण के क्षेत्र मालाबार से ताल्लुक रखने वाले आचार्य शंकराचार्य जी द्वारा यह संभव न हो पाता कि वह पूरे देश को एक साथ सर्वव्यापक बौद्धिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एकता के अंतरसूत्र में जोड़ पाते।”
विश्व की अन्य सभ्यताएं जब संवाद के लिए बोलियां भी विकसित नहीं कर पाई थीं, तब संस्कृत में वेदों के छंद रचे जा रहे थे, जो आज भी जीवन एवं दर्शन के श्रेष्ठतम काव्य माने जाते हैं। वेदों के पश्चात उपनिषद, रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत, आरण्यक, ब्राह्मण ग्रंथ और पुराणों की रचना भी संस्कृत में ही हुई है।
कला, संगीत, साहित्य, संस्कृति, योग, आयुर्वेद, धर्म, दर्शन, नीति एवं इतिहास से लेकर गणित, विज्ञान, भूगोल, भूगर्भ, खगोल, ज्योतिष, वास्तु आदि तक जीवन और जगत का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो, जिनमें संस्कृत-ग्रंथों की उपलब्धता एवं विपुलता न हो। आदि शंकर, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य मीमांसकों से लेकर अन्य सभी ऋषियों-मनीषियों एवं भारतीय दार्शनिकों ने संस्कृत को ही अपनी स्वानुभूति एवं दर्शन की विवेचना का माध्यम बनाया। इसी कारण आज आवश्यकता इसकी है कि संस्कृत का प्रचार-प्रसार कैसे बढ़े।
संस्कृत के विरोधियों को कदाचित यह स्मरण नहीं रहा कि संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष एवं देश के प्रथम विधि मंत्री डा. भीमराव अंबेडकर ने भी भारतीय संघ की राजभाषा के रूप में संस्कृत की ही पैरवी की थी। क्या दयानिधि जैसे नेता उन्हें भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नेता या कार्यकर्ता घोषित करेंगे? सच तो यह है कि संस्कृत देश को जोड़ने वाली भाषा है, जो विभाजनकारी राजनीति करने वालों को शायद ही समझ आए।
(लेखक शिक्षाविद् एवं सामाजिक संस्था “शिक्षा-सोपान” के संस्थापक हैं)