विधानसभाओं की गरिमा भी अब तार-तार हो रही है।

विधानसभाओं की गरिमा भी अब तार-तार हो रही है।

क्यों? इसका जवाब किसी के पास नहीं है! दरअसल, जब सदन के जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग विपक्ष को किसी एक तरफ झुकते दिखाई देते हैं तो विपक्ष उत्तेजित होता है। और इस अतिरंजना में पक्ष-विपक्ष की तरफ से कुछ-कुछ बोला जाता है। झगड़े की जड़ यही है।

इसके लिए जिम्मेदार कभी सत्ता पक्ष होता है। कभी विपक्ष। …और कभी-कभी वह व्यवस्था भी जिम्मेदार हो सकती है, जो इन दोनों के झगड़ों के बीच दी जाती है। शब्दों की मर्यादा की न पक्ष को कभी चिंता रही और न ही विपक्ष को।

हाल ही में राजस्थान विधानसभा में श्रीमती इंदिरा गांधी को दादी कह देने पर विरोध हो गया। हंगामे के बीच कांग्रेस के छह विधायकों को निलंबित कर दिया गया। यह अतिरेक हो सकता है।

इससे बड़ा अतिरेक कांग्रेस की तरफ से सामने आया। कांग्रेस नेता डोटासरा ने सदन के बाहर ही सही, स्पीकर के प्रति कुछ अपशब्द कह दिए। बात बिगड़ गई। स्पीकर सदन में रो पड़े। कहा- यह मेरे लिए बेहद अपमानजनक है।

सवाल यह उठता है कि आप अगर सदन के निष्पक्ष अध्यक्ष हैं तो न्याय क्यों नहीं करते? रो क्यों रहे हैं? वैसे भी रोना-धोना कोई सदन की परम्परा तो है नहीं! फिर यह सब क्यों? और किसके लिए?

निश्चित ही डोटासरा के कहे शब्द स्पीकर के पद के लिए अपमानजनक हैं लेकिन इस पर स्पीकर को रोने के बजाय कार्रवाई क्यों नहीं करनी चाहिए? वे न्याय क्यों नहीं करते? निष्पक्षता तो ऐसी होती है : एक बार जब डॉ. शंकर दयाल शर्मा उपराष्ट्रपति होने के नाते राज्यसभा के सभापति भी थे, वे सदन की आसंदी पर थे और किसी बात पर कांग्रेस के सांसद हंगामा कर रहे थे।

सभापति डॉ. शंकर दयाल शर्मा उन्हें बार-बार चुप कराने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने देखा कि उनकी समझाइश के बावजूद तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष राजीव गांधी अपनी पार्टी के सांसदों को इशारा करके उकसा रहे हैं। डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने कहा : “मैं यहां बैठकर सबकुछ देख रहा हूं। राजीवजी, या तो आप सदन चला लीजिए या मैं यहां से उठकर चला जाता हूं।’ इसके बाद स्थिति शांत हुई। जबकि डॉ. शंकर दयाल शर्मा मूलतया कांग्रेसी ही थे।

स्पीकर या सभापति या उपसभापति की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति को इतना निष्पक्ष होना पड़ता है। जहां तक डोटासरा के बयान का संबंध है, वह अगर सच है तो निश्चित रूप से स्पीकर के प्रति अपमानजनक तो है ही, भले ही यह बात उन्होंने सदन स्थगित होने के बाद कही हो।

लेकिन अगर वे आपसी बात भी कर रहे हैं तो यह सुनिश्चित क्यों नहीं किया है कि यह बात बाहर न जाए! बात केवल राजस्थान विधानसभा की ही नहीं है। दिल्ली विधानसभा में भी आम आदमी पार्टी के 21 विधायकों को निलंबित कर दिया गया।

क्या विपक्षी विधायकों का निलंबन ही अब एकमात्र उपाय रह गया है? अगर यही उपाय है तो वो जो विपक्ष की रचनात्मक भूमिका की बात की जाती है, उसका क्या हुआ? क्या सारी रचनात्मकता अब सत्ता पक्ष के पास ही रह गई है? वही सबकुछ करना क्यों चाहता है? विपक्ष की उपस्थिति में अपनी श्रेष्ठता साबित क्यों नहीं की जा सकती?

सवाल सिर्फ यह नहीं है कि सदनों में हंगामे क्यों होते हैं और इन विकट स्थितियों में न्याय क्यों नहीं होता। सवाल यह है कि सदनों की कार्यवाही को लाइव देखने वाली जनता क्या करे? वह क्या सोचे कि जिन लोगों को उसने अपना जनप्रतिनिधि चुनकर अपनी समस्याएं सुलझने के लिए जिताया है, आखिर वे कर क्या रहे हैं?

क्या उनके जनप्रतिनिधि केवल विधानसभाओं में कागज फाड़ने, कुर्सियां उल्टी करने और एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने के लिए ही रह गए हैं? उनके पास विरोध करने का या अपनी बात रखने का कोई और तरीका रह ही नहीं गया है?

कुल-मिलाकर जनप्रतिनिधियों और खासकर, सत्ता पक्ष को यह सोचना ही होगा कि आखिर जनता की गाढ़ी कमाई के समय को वे कहीं संसद और विधानसभाओं में बर्बाद तो नहीं कर रहे हैं? अगर हां, तो उन लोगों का क्या कसूर है, जिन्होंने अपनी उम्मीदों के पूरे होने का सपना संजोकर इन्हें संसद या विधानसभाओं में भेजा है?

विपक्ष की रचनात्मक भूमिका का क्या हुआ? क्या विपक्षी विधायकों का निलंबन ही अब एकमात्र उपाय रह गया है? अगर यही उपाय है तो वो जो विपक्ष की रचनात्मक भूमिका की बात की जाती है, उसका क्या हुआ?

कम से कम एक बार पक्ष और विपक्ष को ठहरकर सोचना जरूर चाहिए। शब्दों और उनके अर्थों को लेकर अमृता प्रीतम की कविता- अर्थों की नग्नता ढंकने को, मैंने उनके गले शब्दों की बांह डाली थी। लेकिन ये शब्द, किसी मर्यादा पर नहीं रुकते। आज वही शब्द अर्थों को बेइज्जत करके लौटे हैं। और लज्जित, मेरे सामने आंख नहीं उठाते।

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