फिर अक्सर शाम के वक्त अड़ोस-पड़ोस की कई महिलाएं मां का हाथ बंटाने आ जाती थीं। इन महिलाओं ने फेमिनिज्म का कोई ग्रंथ नहीं पढ़ा था, लेकिन महिलाओं की सामूहिकता थी, जो एक-दूसरे का हाथ बंटाती थीं। आज जब सब कुछ बाजार के हवाले है। किसी भी त्योहार पर आम तौर पर मिठाइयां, नमकीन सब कुछ बाजार से लाया जाता है।

मध्यवर्ग की महिलाओं के पास अब इतना समय नहीं कि इन सब चीजों को घर में बना लें। फिर जब सब कुछ बाजार में उपलब्ध है तो घर में बनाने की आफत मोल कोई ले भी क्यों। उस पीढ़ी की महिलाएं बाजार से लाई खानपान की चीजों को पसंद नहीं करती थीं। उन्हें उनकी गुणवत्ता पर शक भी रहता था। तब बाजार में गुझिया मिलती भी नहीं थीं। गुझिया बनाने के तरीके भी हर घर के भिन्न थे।

भारतीय खानपान में इतनी विविधता है कि आश्चर्य होता है। हर घर के खाने में अलग तरह का स्वाद होता है। यही नहीं वह स्वास्थ्यवर्धक भी होता है। मसालों से भरी रसोई हर घर का मेडिकल स्टोर भी होती है। पहले छोटी-मोटी बीमारियां तो घरेलू उपचार से ही ठीक कर ली जाती थीं, लेकिन बदले वक्त ने हमारे खानपान के तौर-तरीकों को बदल दिया है।

स्थानीय खानपान और चीजें गायब होती जा रही हैं। गन्ने के मौसम में गन्ने के रस की खीर बनाई जाती थी। बरोसी की हल्की आंच पर मट्ठे में चावल पकाकर चीनी मिलाकर खाते थे। गांवों में सवेरे-सवेरे किसान छाछ और गुड़ खाकर खेतों में काम करने चले जाते थे, लेकिन पश्चिमी रहन-सहन की नकल करते-करते हम अब वहां के खानपान की भी नकल करने लगे हैं। वही हमें सर्वश्रेष्ठ लगता है।

उसी से हमारी हैसियत दिखती है। स्वास्थ्य के लिए वह ठीक है भी या नहीं, इसकी परवाह कोई नहीं करता। कुछ साल पहले एक विदेशी पत्रिका ने लिखा था कि भारतीय खाना साफ-सुथरे ढंग से बनाया जाता है और यह स्वास्थ्य के लिए भी बहुत अच्छा है। हमारे यहां इतनी तरह के पेय और ठंडाई उपलब्ध हैं, लेकिन अब कार्बोनेटेड ड्रिंक्स के सामने न इन्हें कोई पूछता है, न ही ये कहीं मिलते दिखते हैं।

यहां तक कि दूर-दराज के गांवों तक में नहीं। कुछ साल पहले एक मित्र बिहार के एक गांव में गए थे। वहां उन्होंने भूंजा खाने की इच्छा जाहिर की तो गांव में रहने वाले उनके एक स्वजन ने कहा कि वाह जी-वाह, तुम तो दिल्ली में रहकर पिज्जा, बर्गर, मोमोज खाओ और हमसे उम्मीद करते हो कि हम भूंजा ही खाते रहें।

रुजुता दिवेकर एक बहुत मशहूर खानपान विशेषज्ञ और डाइटीशियन हैं। उन्होंने इंडियन सुपर फूडस पर एक पुस्तक लिखी है। वह कहती हैं कि जब भी आप कुछ खाएं तो सोचें कि क्या आपकी नानी और दादी इन चीजों को खाती थीं? यदि नहीं, तो आप भी उन्हें विदा कर दीजिए।

उनका मानना है कि वह खाइए जो आप खाते रहे हैं, क्योंकि उसका आपके जींस से बहुत संबंध है। वह नाश्ते में इडली, पोहा, पराठा खाने को कहती हैं। उनका मानना है कि जो सुस्वाद न लगे, उसे नहीं खाना चाहिए, क्योकि हमारा पेट एक दूसरा दिमाग होता है। हम क्या खाते हैं, इसका संबंध हमारे मस्तिष्क से है।

आपने देखा होगा कि हमारे जीवन से घी लगभग गायब हो गया है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि घी को मोटापे से जोड़कर देखा जाता है। तरह-तरह के रोगों को बढ़ाने वाला बताया जाता है, लेकिन रुजुता इसे सुपरफूड कहती हैं। अब तो बहुत से डाक्टर भी कहते हैं कि भोजन में घी जरूरी है। सैकड़ों साल से घी हमारे जीवन का हिस्सा रहा है, लेकिन चूंकि इसके पीछे कोई बड़ा उद्योग नहीं खड़ा था, इसलिए इसे खानपान से बेदखल कर दिया गया।

एक समय रिफाइंड तेल को स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा बताया जाता था, मगर अब इसका विरोध बड़े पैमाने पर हो रहा है। कभी-कहीं लिखा देखा था कि रिफाइंड तेल कभी न खाएं, क्योंकि उसमें 99 प्रतिशत कैलोरीज होती हैं।

हर पर्व-त्योहार पर जो पकवान बनाए जाते हैं, उन्हें खाने-पीने के अपने तर्क हैं।

होली को ही लीजिए। पहले इस अवसर पर अधिकांश घरों में गाजर, घिए आदि की कांजी उपलब्ध होती थी। पकवान के साथ भोजन में इसे भी परोसा जाता था, क्योंकि पूरी-पकवान जैसे गरिष्ठ भोजन को पचाने में इसे सहायक माना जाता है।

वैसे इस तरह के पकवान कभी-कभार ही बनते थे। इसका कारण यह था कि इन्हें रोज नहीं खाया जा सकता। आज इस तरह के तले, अधिक वसा युक्त पदार्थ रोज के खानपान का हिस्सा हैं और इनमें घी का इस्तेमाल नहीं होता। तेल का इस्तेमाल होता है, जो शरीर के लिए हानिकारक है।

भारतीय खानपान में एक तरह का संतुलन है। बीते समय में घर की स्त्रियों की पहली चिंता पूरे परिवार का स्वास्थ्य ही होता था। इसीलिए खाना वह पकता था, जो सुस्वाद तो हो ही, स्वास्थ्य के लिए भी सही हो। समय आ गया है कि भारतीय खानपान की विशेषताओं को देखते हुए उसे सेलिब्रेट किया जाए और उसकी महत्ता को समझा जाए।

(लेखिका साहित्यकार हैं)