एक राष्ट्र-एक संस्कृति’ भारत को और मजबूत बनाएगा या उसकी विविधता को कमजोर कर देगा?
एक राष्ट्र-एक संस्कृति’ भारत को और मजबूत बनाएगा या उसकी विविधता को कमजोर कर देगा?
RSS का तर्क यह है कि अगर देश में एक जैसी सोच और सांस्कृतिक मूल्यों को अपनाया जाए, तो राष्ट्र अधिक संगठित और मजबूत बनेगा.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने ‘एक राष्ट्र-एक संस्कृति’ के विचार को मजबूत करने की बात कही है. संघ ने स्पष्ट रूप से पूछा कि आप किसे चुनेंगे? औरंगजेब जैसा आक्रमणकारी चाहते हैं या उसका भाई दारा शिकोह, जिसने भारतीय संस्कृति के मूल्यों का सम्मान किया.
बेंगलुरु में संघ की तीन दिवसीय अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा (एबीपीएस) की बैठक के समापन पर आरएसएस के महासचिव दत्तात्रेय होसबाले ने पत्रकारों को बताया कि ‘एक राष्ट्र-एक संस्कृति’ की यह पहल उन झूठे ऐतिहासिक आख्यानों को ठीक करने के लिए है, जिन्हें सालों से हमें पढ़ाया जा रहा है. आखिर कब तक हमारी पीढ़ियों को ऐसा इतिहास पढ़ाया जाएगा, जिसमें आक्रमणकारियों को नायक बना दिया गया और सच्चे भारतीय मूल्यों को मानने वालों को भुला दिया गया?
लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या वास्तव में भारत जैसे बहुसांस्कृतिक, बहुभाषी और विविधता से भरे देश के लिए यह विचार सही है? क्या यह भारत की समृद्ध विविधता को खत्म करने का प्रयास है या फिर राष्ट्र को एक नई दिशा देने का तरीका?
विविधता में एकता से कितना अलग है एक राष्ट्र-एक संस्कृति का विचार?
विविधता में एकता का मतलब है कि भारत में अलग-अलग भाषाएं, धर्म और परंपराएं होते हुए भी लोग एक-दूसरे से जुड़े हुए रहें. यह विचार हमें अपनी अलग पहचान बनाए रखते हुए एकजुट रहने की प्रेरणा देता है. हम सब अलग-अलग हैं, हमारी भाषा, संस्कृति, धर्म, सोच सब अलग है लेकिन फिर भी हम एक साथ रहते हैं.
वहीं, एक राष्ट्र-एक संस्कृति की सोच यह मानती है कि पूरे देश में एक समान संस्कृति होनी चाहिए, जिससे राष्ट्र और अधिक संगठित और सशक्त हो सके. लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या एक देश, एक संस्कृति का मतलब दूसरी संस्कृतियों को कमजोर करना है?
‘एक राष्ट्र-एक संस्कृति’ का विचार भारत को मजबूत बनाएगा?
इस पर एबीपी न्यूज ने वरिष्ठ पत्रकार प्रेम कुमार से बातचीत की. उन्होंने कहा कि ‘एक राष्ट्र-एक संस्कृति’ के विचार पर ही भारत का विभाजन हुआ. मोहम्मद अली जिन्नाह का भी यही विचार था कि हम दो धर्म के लोग हैं, एक संस्कृति नहीं हो सकते हैं और इस देश में हिंदू-मुस्लिम एक नहीं रह सकते. इस सोच को फिर से जिंदा करने का मतलब है कि भारत में 20 करोड़ मुसलमानों के लिए असुरक्षा का स्थिति पैदा करना. दूसरे समुदाय के लिए अल्पसंख्यक लोगों के लिए भी यही समस्या होगी. ये देश बहुविविध संस्कृति वाला देश है. हिंदू में ही लोग एक भाषा को स्वीकार नहीं करते हैं. बहुत से हिंदू संस्कृत की ओर झुकाव रखते हैं, तो बहुत से हिंदी भाषा बोलते हैं.
उन्होंने आगे कहा, “संस्कृति बहुत व्यापक मतलब होता है. बहुत सारी संस्कृति का मिश्रण भी अपने आप में एक संस्कृति है. इसलिए, राष्ट्रवाद खतरनाक होता है. राष्ट्रवाद हमेशा छोटे समूहों के खिलाफ जाता है. अगर ऐसा नहीं होता, तो हिटलर का राष्ट्रवाद बहुत सफल माना जाता. उसने भी यहुदियों को परेशान किया, उसने भी एक संस्कृति की बात कही. राष्ट्रवाद का आधार होता है एक संस्कृति. ये विचार एक बार फिर देश को विभाजन की ओर ले जाएगा.”
वहीं, एबीपी न्यूज ने बीजेपी नेता आतिफ रशीद से भी बातचीत की. उन्होंने बताया कि औरंगजेब के भाई दारा शिकोह का नजरिया एकता और सबको साथ लेकर चलने का था. समाज में भी सभी समुदाओं ने उस नजरिए का सम्मान किया था. अगर आज हमें भारत को सुपर पॉवर बनाना है तो उसी दिशा में आगे चलना होगा. सभी का साथ मिलकर चलना बहुत आवश्यक है. अगर लोगों के बीच मतभेद रहेंगे, तो कैसे आगे बढ़ेंगे. ऐसे में सभी को साथ लेकर चलने वाली संस्कृति को बढ़ावा देना चाहिए, तभी भारत मतबूत बनेगा.
उन्होंने आगे कहा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक मजबूत भारत की बात करता है. यहां किसी को जबरदस्ती दबाने या किसी को जबरदस्ती रोका नहीं जाता. आरएसएस का हमेशा मानना ये रहा है कि आपकी पूजा पद्धति कुछ भी हो सकती है, लेकिन आपके लिए आपका देश प्रथम होना चाहिए. इस मानसिकता के साथ देश आगे बढ़ेगा, तो देश मजबूत बनेगा.
क्या यह विचार किसी खास धर्म, समुदाय या भाषा की बात करता है?
इस सवाल पर आतिफ रशीद ने कहा, ऐसा बिल्कुल नहीं है. आरएसएस के लिए देश पहले है. लोगों का पूजा करने का तरीका अलग-अलग हो सकता है, इससे संघ को परेशानी नहीं है. आरएसएस ने किसी खास धर्म या समुदाय की बात नहीं कही है. उन्होंने एक संस्कृति पर ध्यान देने की बात कही है. एक संस्कृति के साथ आगे बढ़ना चाहिए. एक संस्कृति औरंगजेब बढ़ा रहे थे और एक संस्कृति दारा शिकोह बढ़ा रहे थे, दोनों की संस्कृति में कितना बढ़ा अंतर था, जबकि दोनों मुसलमान थे.
वहीं वरिष्ठ पत्रकार प्रेम कुमार का कहना है कि कुछ समय पहले मोहन भागवत जी ने भी ऐसा ही कुछ कहा था. संघ प्रमुख ने हिंदुओं को नए सिरे से परिभाषित किया. वह सभी मुसलमानों को हिंदू बता रहे थे. सभी के पूर्वज एक बता रहे थे. शायद उनकी कोशिश यही थी कि सभी लोगों की संस्कृति एक बताकर मुसलमानों को भी हिंदुओं की संस्कृति मानने के लिए बाध्य करना. लेकिन अब दत्तात्रेय होसबाले का बयान इससे भी खतरनाक है.
उन्होंने आगे कहा, ‘एक राष्ट्र-एक संस्कृति का विचार बहुसंख्यकवाद है. ये हिंदूवाद नहीं है, धर्मवाद भी नहीं है. बहुसंख्यकवाद में भाषायी अल्पसंख्यकों को भी दिक्कत होगी. धार्मिक अल्पसंख्यक को भी दिक्कत होगी. जिसकी ज्यादा संख्या होगी, उसकी चलेगी. एक संस्कृति की बात सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ नहीं है, बल्कि उत्तर और दक्षिण में भी देश को बांटता है. ये हिंदुओं के भी खिलाफ है.’
असल में, ‘एक राष्ट्र-एक संस्कृति’ का विचार भारत की राष्ट्रीय एकता को मजबूत कर सकता है, लेकिन इसकी सीमाओं को समझना जरूरी है. भारत की ताकत उसकी विविधता में ही है. अगर इस विचार को बलपूर्वक लागू करने की कोशिश की जाती है, तो यह भारतीय लोकतंत्र और उसकी समृद्ध सांस्कृतिक विविधता के लिए खतरनाक साबित हो सकता है. लेकिन अगर इसे सहजता से सभी संस्कृतियों को सम्मान देते हुए अपनाया जाए, तो यह राष्ट्र निर्माण में सहायक भी हो सकता है.