त्योहार क्यों बने धार्मिक कट्टरता दिखाने का जरिया? 

त्योहार क्यों बने धार्मिक कट्टरता दिखाने का जरिया? 

हर त्योहार से पहले इस तरह की कट्टरता के पीछे क्या सियासत हो रही है? नेताओं के बयान क्या एक सोची समझी रणनीति तहत दिए जाते हैं? इन्हीं सवालों पर इस हफ्ते के ‘खबरों के  खिलाड़ी’ में चर्चा हुई।
देश में त्योहारों का मौसम है। होली, रमजान के बीच नवरात्रि की शुरुआत होने को है। इन सबके बीच अलग-अलग संगठनों की बयानबाजी सियासी सुर्खियां बटोर रही है। कभी मस्जिद ढंकने की बात होती है तो कभी नवरात्र में मीट की दुकानें बंद करने के लिए कहा जाता है। हर त्योहार से पहले इस तरह की कट्टरता के पीछे क्या सियासत हो रही है? नेताओं के बयान क्या एक सोची समझी रणनीति तहत दिए जाते हैं? इन्हीं सवालों पर इस हफ्ते के ‘खबरों के  खिलाड़ी’ में चर्चा हुई। चर्चा के लिए वरिष्ठ पत्रकार रामकृपाल सिंह, विनोद अग्निहोत्री, समीर चौगांवकर, पूर्णिमा त्रिपाठी और अवधेश कुमार मौजूद रहे।  

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समीर चौगांवकर: भारत दुनिया का इकलौता ऐसा देश होगा जहां इतने ज्यादा त्योहार हैं। भारत में हर महीने कोई न कोई त्योहार होता है। कुछ समय से त्योहारों पर राजनीति होने लगी है। समाज में इससे वैमनस्यता बढ़ती जा रही है। सोशल मीडिया ने भी इसे बढ़ाने का काम किया है। समाजिक संगठन जिस तरह से दूसरे समाज के खिलाफ बयान देते हैं, उससे भी कड़वाहट बढ़ती है। इसे एक बहुत बुरे दौर के रूप में देखता हूं। अब समाज को सोचना होगा कि इस खाई को बढ़ने से रोकना है। राजनीतिक दल इस खाई को बढ़ाने में लगे हैं। जनता को भी सोचना होगा कि देश किस दिशा में ले जाना है। उसे भी इस तरह से समाजिक संगठनों के खिलाफ बड़े आंदोलन की जरूरत है। 

विनोद अग्निहोत्री: कुछ संगठन इस तरह की बाते करते हैं। इसे पूरे समाज से जोड़ना सही नहीं है। भारत एक बहुभाषीय, बहु मतावलंबी का एक गुलदस्ता है। जिसको जो खाना है वो खाएगा। जहां जाना है, वहां जाएगा। किसी चीज के लिए फोर्स करना और धर्मों के आधार पर चीजें तय करने से तो बहुत मुश्किल हो जाएगी। मुझे लगता है कि ये कुछ निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा भारतीय जीवनपद्धति को चोट पहुंचाने की कोशिश है और सभी राजनीतिक दल इसमें अपने-अपने हिसाब से रोटियां सेंकते हैं। 

अवधेश कुमार: यह इतना सरल विषय नहीं है। छोटे से घाव होने पर बीमारी के कारणों का पता लगाना जरूरी होता है। जिस तरह की परिस्थितियां पैदा हुई हैं उसके हिसाब से प्रतिक्रिया तो होगी। सभी परिस्थितियों को देखना पड़ेगा। देश का एक विभाजन हो चुका है, आगे इस तरह की परिस्थिति न हो इसके लिए कदम तो उठाने पड़ेंगे। हमने जिसको बंधु समझा, आ गया वो प्राण लेने। क्या इसे नहीं सुना है। जो सच्चे लोग हैं, वो साथ आएं। इसे सरल चीज मत कहिए। सच्चाई को स्वीकार करके नीति बनानी होगी।

रामकृपाल सिंह: जो विश्लेषण करके हम सुझाव दे रहे हैं, किसी भी आम नागरिक से आप पूछेंगे वो यही सुझाव देगा। कोई भी नेता होगा तो वो ये देखेगा कि वोट के लिए क्या-क्या मुद्दे उठाने चाहिए। नेता देखता है कि क्या-क्या चीजें हैं, जिनसे हम वोट इकट्ठा कर सकते हैं। क्षेत्रीयता, जातीयता और धार्मिकता में से एक मुद्दा ऐसा उठाया जाता है जो बाकी को पीछे कर देता है। जब भी आप बड़े पैमाने पर एक सामाजिक परिवर्तन की सोचते हैं और आपको लगता है कि इससे वोट नहीं मिलेगा, तो आप इनमें से किसी एक मुद्दे को उठा लेते हैं।  
पूर्णिमा त्रिपाठी: आज का जो सामाजिक माहौल है, बहुत हद तक हम उसी का रूप इन मुद्दों पर देखते हैं। हम आज हर चीज में शॉर्टकट चाहते हैं। इसी तरह से बहुत से ऐसे तत्व इस समाज में हैं जो सत्ता हासिल करने के लिए अलग-अलग तरह के शॉर्टकट ढूंढ रहे हैं। इसी लिए वो हर तरह से इसका अतिदोहन करने की कोशिश कर रहे हैं। बेतुके बयान देकर लाइमलाइट में आ रहे हैं। जो लोग इस तरह की चीजें करते हैं, उन्हें राजनीतिक परश्रय भी मिल रहा है। राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए दोनों तरफ से इस तरह के विवादों को हवा देने का काम हो रहा है।

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