क्या है नेट जीरो जिसके लिए PM मोदी ने दिया नया मंत्र LIFE, भारत इसके विरोध में क्यों था? जानें सब कुछ

प्रदूषण कम करने के लिए कार्बन उत्सर्जन कम करने की बात पुरानी हो गई। अब बात नेट जीरो की हो रही है। ग्लास्गो में हुई COP26 समिट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे लेकर एक नया शब्द LIFE यानी लाइफ स्टाइल फॉर एनवायर्नमेंट सामने रखा। प्रधानमंत्री मोदी ने नेट जीरो को लेकर उन्होंने इसे जनांदोलन बनाने की बात कही । उन्होंने भारत की तरफ से पांच अमृत तत्व पंचामृत रखा। इसमें भारत ने नेट जीरो को लेकर अपना पूरा प्लान बताया गया।

नेट जीरो एमिशन क्या है? कार्बन उत्सर्जन कम करने से कितना अलग है? भारत इसका विरोध क्यों कर रहा है? नेट जीरो कॉन्सेप्ट को मानने से भारत पर क्या असर पड़ेगा? 

आइये जानते हैं…

नेट जीरो एमिशन क्या है?

नेट जीरो एमिशन का मतलब ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन शून्य करना नहीं है, बल्कि ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को दूसरे कामों से बैलेंस करना। कुल मिलाकर एक ऐसी अर्थव्यवस्था तैयार करना, जिसमें फॉसिल फ्यूल का इस्तेमाल ना के बराबर हो। कार्बन उत्सर्जन करने वाली दूसरी चीजों का इस्तेमाल भी बहुत कम हो।

कुल मिलाकर ये कह सकते हैं कि आप जितना कार्बन पैदा कर रहे हैं उतना ही उसे एब्जॉर्ब करने का इंतजाम आपके पास होना चाहिए। उदाहरण के तौर पर पेड़-पौधे हवा से कार्बन डाईऑक्साइड एब्जॉर्ब करते हैं।

अगर किसी कंपनी के कारखाने से कार्बन की एक निश्चित मात्रा का उत्सर्जन होता है और कंपनी इतने पेड़ लगाती है जो उतना कार्बन एब्जॉर्ब कर सके तो उसका नेट एमिशन जीरो हो जाएगा। इसके साथ ही कंपनियां पवन एवं सौर ऊर्जा संयंत्र लगाकर भी इसी प्रकार का लाभ पा सकती हैं। यही बात देश के लिए भी लागू होती है।

अगर किसी देश में कार्बन उत्सर्जन से ज्यादा कार्बन एब्जॉर्प्शन के सोर्स हैं तो उसका नेट एमिशन निगेटिव हो जाएगा। अभी दुनिया में सिर्फ दो देश भूटान और सूरीनाम ऐसे हैं जिनका नेट एमिशन निगेटिव है। इसकी बड़ी वजह इन देशों में मौजूद हरियाली और कम आबादी है।

क्यों की जा रही है नेट जीरो की बात?

एक्सपर्ट्स का कहना है कि अगर मौजूदा तरीके से ही ग्रीन हाउस गैसों का एमिशन होता रहा, तो 2050 तक धरती का तापमान दो डिग्री बढ़ जाएगा। ऐसा होने पर कहीं भीषण सूखा पड़ेगा तो कहीं विनाशकारी बाढ़ आएगी। ग्लेशियर पिघलेंगे, सुमद्र का जल स्तर बढ़ेगा। इससे समुद्र के किनारे बसे कई शहर पानी में डूब जाएंगे और उनका नामोनिशान मिट जाएगा।

धरती का तापमान नहीं बढ़े इसीलिए ये सारी कवायद हो रही है। हाल ही में संपन्न हुए G-20 समिट में इसमें शामिल देशों में 2050 तक धरती के तापमान की इस बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री सीमित रखने पर सहमति बनी है।

कार्बन उत्सर्जन कम करने से कितना अलग है नेट जीरो एमिशन?

कुछ साल पहले तक दुनिया के अमीर देशों में कार्बन एमिशन कम करने पर जोर होता था। ये देश 2050 से 2070 तक इसे बेहद कम करने पर विचार करते थे। यही देश पिछले कई दशक से सबसे ज्यादा कार्बन एमिशन के जिम्मेदार रहे हैं। साथ ही ये देश ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु संकट के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं।

पिछले कुछ सालों में एक्सपर्ट्स का ये मत सामने आया कि सिर्फ उत्सर्जन कम करने से काम नहीं चलेगा। इसके बाद सभी देशों में कार्बन न्यूट्रलिटी की बात की जाने लगी।

तो क्या अब उत्सर्जन कम करने पर फोकस नहीं है?

नेट जीरो फॉर्मूले में किसी देश को उत्सर्जन कम करने का टारगेट नहीं दिया जाता है। इसमें सिर्फ एमिशन का लेवल जीरो पर ले जाने पर जोर दिया जाता है। विकसित देशों के लिहाज से राहत भरा बदलाव है। इस फॉर्मूले के आने के बाद हर देश पर बराबर जिम्मेदारी होगी।

भारत इसका विरोध क्यों करता रहा है?

पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने हाल ही में कहा कि नेट जीरो टारगेट समाधान नहीं है। उन्होंने कहा कि अमीर देशों को अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी लेनी होगी। हालांकि, मौजूदा दौर में भारत ग्रीन हाउस गैसों का सबसे ज्यादा उत्सर्जन करने वाले देशों में तीसरे नंबर पर है। भारत से ज्यादा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन सिर्फ चीन और अमेरिका करते हैं।

हालांकि, ऐतिहासिक तौर पर देखें तो भारत की 1850 से अब तक कार्बन उत्सर्जन में कुल हिस्सेदारी केवल 4% है। यही भारत के विरोध की बड़ी वजह है। भारत का ऐसा मानना है कि नेट जीरो पर सहमति करने पर उसकी इकोनॉमिक ग्रोथ धीमी हो जाएगी। इसके साथ ही उसका गरीबी दूर करने का प्रोग्राम भी प्रभावित होगा। भारत मानता है कि नेट जीरो कॉन्सेप्ट UN के क्लाइमेंट कन्वेंशन के भी खिलाफ है।

नेट जीरो कॉन्सेप्ट को मानने से भारत पर क्या असर पड़ेगा?

सबसे बड़ा असर तो हमारे आपके घर में जलने वाली बिजली पर ही पडे़गा। अभी देश की ऊर्जा जरूरत की 60% पूर्ति थर्मल पावर से होती है। नेट जीरो कॉन्सेप्ट लागू करने पर कोयले के इस्तेमाल पर भारी असर पड़ेगा। यही भारत के विरोध की वजह है। भारत का कहना है कि नेट जीरो तब तक नहीं संभव है जब तक क्लीन टेक्नोलॉजी का पेटेंट विकासशील और अंडर डेवलप देशों को ट्रांसफर नहीं किया जाता। ऐसा होने पर ये देश तेजी से क्लीन इकोनॉमी की ओर बढ़ेंगे।

भारत का दावा है कि 2016 में बना ग्रीन क्लाइमेट फंड भी बहुत कारगर नहीं रहा, क्योंकि अमीर देशों ने वादे के मुताबिक ग्रीन टेक्नोलॉजी और 2020 तक 100 बिलियन डॉलर की मदद नहीं की। हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐलान किया है कि 2050 तक भारतीय रेलवे नेट जीरो एमिशन का टारगेट हासिल कर लेगी। भारत के नेट जीरो से जुड़ा ये अब तक का इकलौता ऐलान है।

नेट जीरो को लेकर और क्या करेगा भारत?

भारत अब तक नेट जीरो का विरोध कर रहा था। सोमवार को पहली बार भारत ने नेट जीरो को लेकर अपना पूरा प्लान पंचामृत नाम से पेश किया। प्रधानमंत्री मोदी ने ग्लासगो में इसे पेश किया। जो ऐसा है…
पहला: भारत 2030 तक अपनी नॉन फॉसिल एनर्जी को 500 गीगा बाइट तक पहुंचाएगा।
दूसरा: भारत 2030 तक अपनी 50% ऊर्जा जरूरतों को रिन्यूएबल एनर्जी से पूरा करेगा।
तीसरा: भारत 2030 तक कुल प्रोजेक्टेडज कार्बन एमिशन का 1 बिलियन टन कम करेगा।
चौथा: भारत 2030 तक अपनी अर्थव्यवस्था की कार्बन इन्टेंसिटी को 45% तक कम करेगा।
पांचवां: 2070 तक नेट जीरो एमिशन का लक्ष्य हासिल करेगा। ये सच्चाई सभी जानते हैं कि क्लाइमेट चेंज फाइनेंसिंग को लेकर वादे खोखले साबित हुए हैं।

कितने देश नेट जीरो के समर्थन में हैं?

दुनिया के 192 देश UN क्लाइमेट कन्वेंशन का हिस्सा हैं। इनमें से 137 देश नेट जीरो का समर्थन कर रहे हैं। कुल ग्रीन हाउस एमिशन में इनकी हिस्सेदारी 80% है। इन 137 देशों में सबसे ज्यादा कार्बन एमिशन करने वाले चीन और अमेरिका भी शामिल हैं। चीन ने 2060 तक नेट जीरो एमिशन का लक्ष्य रखा है। जर्मनी और स्वीडन ने 2045 तक, ऑस्ट्रिया ने 2040 तक फिनलैंड ने 2035, उरुग्वे ने 2030 तक नेट जीरो एमिशन करने का लक्ष्य रखा है। वहीं, अमेरिका सहित ज्यादातर देशों ने 2050 तक नेट जीरो एमिशन का लक्ष्य रक्षा है।

पश्चिम के देश नेट जीरो को लेकर इतने उत्साहित क्यों हैं?

पर्यावरण विशेषज्ञ इसके पीछे दो वजहें बताते हैं। पहली- पश्चिम खासकर यूरोप के ज्यादातर देश फॉसिल फ्यूल से क्लीन और ग्रीन फ्यूल इकोनॉमी की ओर बढ़ चुके हैं। इसलिए इन देशों को नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करना आर्थिक रूप से ज्यादा भारी नहीं पडे़गा। अंतरराष्ट्रीय एनर्जी एजेंसी के मुताबिक यूरोप के देशों की फॉसिल फ्यूल पर निर्भरता 50% से भी कम हो चुकी है।

इसके साथ ही इस कॉन्सेप्ट में इन देशों को बिजनेस का बड़ा मौका दिख रहा है, क्योंकि ग्रीन और क्लीन टेक्नोलॉजी इन देशों के पास है।

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