तबादला उद्योग’ कमाई का सर्वोपरि स्रोत

‘तबादला उद्योग’ कमाई का सर्वोपरि 

ये नीति पिछले वर्ष मार्च में ही तैयार हो गई थी। किन्तु मंत्रीमण्डल ने आज तक इस पर मुहर नहीं लगाई। इसके विपरीत राज्यसभा चुनाव से पूर्व तबादलों पर लगा प्रतिबंध भी हटा लिया गया। इतना ही नहीं चुनाव परिणामों से पहले ही तबादले करने शुरू भी कर दिए। राज्य में अकेले शिक्षा विभाग में सवा दो लाख शिक्षक हैं। पारदर्शिता के नाम पर इनसे तबादला आवेदन तो ऑनलाइन मांगने शुरू हुए थे किन्तु तृतीय श्रेणी के एक भी शिक्षक का तबादला नहीं हुआ। लगभग 85 हजार ऐसे आवेदन लम्बित हैं। दिखावे के तौर पर कुल 18 हजार तबादले ही किए गए। होशियारी स्पष्ट झलकती है।

कौन नहीं जानता कि शिक्षा-चिकित्सा और पुलिस विभाग में ‘तबादला उद्योग’ कमाई का सर्वोपरि स्रोत है। अब जबकि सरकारी तंत्र में चारों ओर खुला भ्रष्टाचार व्याप्त है तो केवल विधायकों के परम्परागत स्रोत को बन्द करना उनके पेट पर लात मारना जैसा ही है! चुनाव सिर पर हैं। हर विधायक सोने का अंडा तो होना ही चाहिए। सरकार तो मुर्गी है ही। यह भी स्पष्ट हो चुका है कि सरकार को वेतन, पेंशन और ब्याज चुकाने में ही राजस्व कम पड़ता है। जनता वैसे भी सरकार से क्या अपेक्षा कर सकती है।

प्रश्न यह है कि क्या कोई निर्णय प्रतिष्ठित कानून की अवहेलना कर सकता है? शिक्षामंत्री की यह घोषणा कि आवेदन ऑनलाइन न लेकर पूर्व परम्परा के अनुसार, विधायकों की ‘डिजायर’ को ध्यान में रखकर ही स्वीकृत किए जाएंगे। यानी कोई तबादला नीति लागू नहीं होगी। उनका यह भी तर्क है कि प्रथम-द्वितीय श्रेणी शिक्षकों के तबादले कर दिए हैं। अब ऑनलाइन आवेदन की आवश्यकता नहीं है। जैसे-जैसे सरकार के पास परिवेदना आती रहेगी, तबादले करते जाएंगे। कहने का आशय यह हुआ कि शिक्षक स्वयं के स्तर पर डिजायर की कीमत चुकाता रहे। तबादलों में लेन-देन को लेकर स्वयं मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सार्वजनिक रूप से शिक्षकों से सवाल कर चुके हैं। वे स्वयं भी जानते हैं कि सिविल सेवाएं आचरण नियम 1971 के अनुसार तबादलों के लिए डिजायर भी नियम विरुद्ध है। तबादले के लिए दबाव नहीं डाला जा सकता। इस स्थिति में शिक्षा मंत्री की घोषणा सियासत की राह पकड़ेगी। सब खा रहे हैं, हम भी खा रहे हैं। तुम भी खाओ। हमारा खजाना तो खाली है, जनता से खाओ!

ये नीति पिछले वर्ष मार्च में ही तैयार हो गई थी। किन्तु मंत्रीमण्डल ने आज तक इस पर मुहर नहीं लगाई। इसके विपरीत राज्यसभा चुनाव से पूर्व तबादलों पर लगा प्रतिबंध भी हटा लिया गया। इतना ही नहीं चुनाव परिणामों से पहले ही तबादले करने शुरू भी कर दिए। राज्य में अकेले शिक्षा विभाग में सवा दो लाख शिक्षक हैं। पारदर्शिता के नाम पर इनसे तबादला आवेदन तो ऑनलाइन मांगने शुरू हुए थे किन्तु तृतीय श्रेणी के एक भी शिक्षक का तबादला नहीं हुआ। लगभग 85 हजार ऐसे आवेदन लम्बित हैं। दिखावे के तौर पर कुल 18 हजार तबादले ही किए गए। होशियारी स्पष्ट झलकती है।

कौन नहीं जानता कि शिक्षा-चिकित्सा और पुलिस विभाग में ‘तबादला उद्योग’ कमाई का सर्वोपरि स्रोत है। अब जबकि सरकारी तंत्र में चारों ओर खुला भ्रष्टाचार व्याप्त है तो केवल विधायकों के परम्परागत स्रोत को बन्द करना उनके पेट पर लात मारना जैसा ही है! चुनाव सिर पर हैं। हर विधायक सोने का अंडा तो होना ही चाहिए। सरकार तो मुर्गी है ही। यह भी स्पष्ट हो चुका है कि सरकार को वेतन, पेंशन और ब्याज चुकाने में ही राजस्व कम पड़ता है। जनता वैसे भी सरकार से क्या अपेक्षा कर सकती है।

प्रश्न यह है कि क्या कोई निर्णय प्रतिष्ठित कानून की अवहेलना कर सकता है? शिक्षामंत्री की यह घोषणा कि आवेदन ऑनलाइन न लेकर पूर्व परम्परा के अनुसार, विधायकों की ‘डिजायर’ को ध्यान में रखकर ही स्वीकृत किए जाएंगे। यानी कोई तबादला नीति लागू नहीं होगी। उनका यह भी तर्क है कि प्रथम-द्वितीय श्रेणी शिक्षकों के तबादले कर दिए हैं। अब ऑनलाइन आवेदन की आवश्यकता नहीं है। जैसे-जैसे सरकार के पास परिवेदना आती रहेगी, तबादले करते जाएंगे। कहने का आशय यह हुआ कि शिक्षक स्वयं के स्तर पर डिजायर की कीमत चुकाता रहे। तबादलों में लेन-देन को लेकर स्वयं मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सार्वजनिक रूप से शिक्षकों से सवाल कर चुके हैं। वे स्वयं भी जानते हैं कि सिविल सेवाएं आचरण नियम 1971 के अनुसार तबादलों के लिए डिजायर भी नियम विरुद्ध है। तबादले के लिए दबाव नहीं डाला जा सकता। इस स्थिति में शिक्षा मंत्री की घोषणा सियासत की राह पकड़ेगी। सब खा रहे हैं, हम भी खा रहे हैं। तुम भी खाओ। हमारा खजाना तो खाली है, जनता से खाओ!

ये नीति पिछले वर्ष मार्च में ही तैयार हो गई थी। किन्तु मंत्रीमण्डल ने आज तक इस पर मुहर नहीं लगाई। इसके विपरीत राज्यसभा चुनाव से पूर्व तबादलों पर लगा प्रतिबंध भी हटा लिया गया। इतना ही नहीं चुनाव परिणामों से पहले ही तबादले करने शुरू भी कर दिए। राज्य में अकेले शिक्षा विभाग में सवा दो लाख शिक्षक हैं। पारदर्शिता के नाम पर इनसे तबादला आवेदन तो ऑनलाइन मांगने शुरू हुए थे किन्तु तृतीय श्रेणी के एक भी शिक्षक का तबादला नहीं हुआ। लगभग 85 हजार ऐसे आवेदन लम्बित हैं। दिखावे के तौर पर कुल 18 हजार तबादले ही किए गए। होशियारी स्पष्ट झलकती है।

कौन नहीं जानता कि शिक्षा-चिकित्सा और पुलिस विभाग में ‘तबादला उद्योग’ कमाई का सर्वोपरि स्रोत है। अब जबकि सरकारी तंत्र में चारों ओर खुला भ्रष्टाचार व्याप्त है तो केवल विधायकों के परम्परागत स्रोत को बन्द करना उनके पेट पर लात मारना जैसा ही है! चुनाव सिर पर हैं। हर विधायक सोने का अंडा तो होना ही चाहिए। सरकार तो मुर्गी है ही। यह भी स्पष्ट हो चुका है कि सरकार को वेतन, पेंशन और ब्याज चुकाने में ही राजस्व कम पड़ता है। जनता वैसे भी सरकार से क्या अपेक्षा कर सकती है।

प्रश्न यह है कि क्या कोई निर्णय प्रतिष्ठित कानून की अवहेलना कर सकता है? शिक्षामंत्री की यह घोषणा कि आवेदन ऑनलाइन न लेकर पूर्व परम्परा के अनुसार, विधायकों की ‘डिजायर’ को ध्यान में रखकर ही स्वीकृत किए जाएंगे। यानी कोई तबादला नीति लागू नहीं होगी। उनका यह भी तर्क है कि प्रथम-द्वितीय श्रेणी शिक्षकों के तबादले कर दिए हैं। अब ऑनलाइन आवेदन की आवश्यकता नहीं है। जैसे-जैसे सरकार के पास परिवेदना आती रहेगी, तबादले करते जाएंगे। कहने का आशय यह हुआ कि शिक्षक स्वयं के स्तर पर डिजायर की कीमत चुकाता रहे। तबादलों में लेन-देन को लेकर स्वयं मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सार्वजनिक रूप से शिक्षकों से सवाल कर चुके हैं। वे स्वयं भी जानते हैं कि सिविल सेवाएं आचरण नियम 1971 के अनुसार तबादलों के लिए डिजायर भी नियम विरुद्ध है। तबादले के लिए दबाव नहीं डाला जा सकता। इस स्थिति में शिक्षा मंत्री की घोषणा सियासत की राह पकड़ेगी। सब खा रहे हैं, हम भी खा रहे हैं। तुम भी खाओ। हमारा खजाना तो खाली है, जनता से खाओ!

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