हर प्रधानमंत्री चाहता है कि राष्ट्रपति सीधा-सरल व्यक्ति हो, जो अड़ंगेबाजी न करे
भारत के 15वें राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवारों की घोषणा हो चुकी है। विपक्षी दलों ने यशवंत सिन्हा को उम्मीदवार घोषित किया तो भाजपा ने द्रौपदी मुर्मू को उम्मीदवार घोषित कर दिया। जाहिर है कि वर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को डाॅ. राजेंद्र प्रसाद की तरह दूसरी बार राष्ट्रपति होने का मौका नहीं मिला, हालांकि राष्ट्रपति के तौर पर उनका और भाजपा का संबंध प्रीतिपूर्ण रहा लेकिन भाजपा का नेतृत्व इस सर्वोच्च पद के द्वारा यह संदेश देता लग रहा है कि वह उपेक्षित वर्गों को अपूर्व सम्मान देना चाहता है।
उसने अपना पहला राष्ट्रपति दलित समाज से चुना और अब दूसरा राष्ट्रपति आदिवासी समाज से चुने जाने के लिए प्रस्तुत है। इसके पहले भाजपा की ही वाजपेयी सरकार ने एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाया था। राष्ट्रपति के नाते मुर्मू भले दूसरी महिला राष्ट्रपति हों, लेकिन वे पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति होंगी। उनका महिला और आदिवासी होना उनकी उम्मीदवारी को अति विशिष्ट बनाते हैं। नीलम संजीव रेड्डी के बाद वे पहली उम्मीदवार हैं, जिनकी आयु 64 साल है।
भाजपा द्वारा प्रस्तावित उम्मीदवार का राष्ट्रपति बनना लगभग तय है और विपक्ष के बड़े से बड़े उम्मीदवार का हारना भी तय है। इसीलिए शरद पवार, फारूक अब्दुल्ला और गोपाल गांधी अपनी किरकिरी करवाने से बच निकले, लेकिन यशवंत सिन्हा ने विपक्ष के उम्मीदवार बनने के लिए स्वीकृति देकर अच्छा ही किया। वे भारत के वित्तमंत्री और विदेश मंत्री रह चुके हैं और पूर्व आईएएस भी हैं। उन्हें प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और अटलबिहारी वाजपेयी के मंत्रिमंडल में काम करने का अनुभव है।
यदि वे संयोगवश राष्ट्रपति बन गए तो उनका और मोदी सरकार का रिश्ता कुछ-कुछ वैसा ही हो सकता है, जैसा कि राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह और राजीव गांधी सरकार का था। द्रौपदी मुर्मू ओडिशा के मयूरभंज की हैं। उनका जीवन संघर्षपूर्ण रहा। झोपड़ी में पैदा होकर राष्ट्रपति भवन तक पहुंचने वाले व्यक्तित्व को देखकर कौन उत्साहित नहीं होगा? बीए के बाद वे शिक्षिका बन गईं।
राजनीति में भी पार्षद से शुरू होकर, विधायक, मंत्री पद तक पहुंचीं और अब झारखंड की राज्यपाल हैं। वे खुद 64 साल की हैं और यशवंत सिंह 84 के हैं। मोदी सरकार के लिए मुर्मू कहीं अधिक अनुकूल रहेंगी। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच संबंध मधुर या सामान्य बने रहें, यह बहुत जरूरी है। यद्यपि आपातकाल के दौरान किए गए 44वें संविधान संशोधन के द्वारा राष्ट्रपति के अधिकारों में काफी कटौती कर दी गई थी।
मंत्रिमंडल की सलाह के अनुसार काम करना राष्ट्रपति के लिए अनिवार्य बना दिया गया था, लेकिन इसके बावजूद प्रधानमंत्री को चुनने, किसी भी कानून को पुनर्विचार के लिए मंत्रिमंडल के पास भेजने, अध्यादेश जारी करने या न करने या किसी कानून पर अंतिम मुहर लगाने का अधिकार आज भी राष्ट्रपति के पास है। इसी कारण 1987 में ज्ञानी जैलसिंह राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद से मुक्त करना चाहते थे।
दिल्ली के कई विधि-विशेषज्ञों ने उन्हें वैसी सलाह भी दे दी थी, लेकिन उन्होंने अपने एक मित्र की यह बात सुनकर अपने उस विचार को त्याग दिया कि ‘ज्ञानीजी आप भारत को पाकिस्तान बनाना चाहते हैं क्या?’ इसका अर्थ यह नहीं कि भारत के राष्ट्रपति की भूमिका रबर के ठप्पे की तरह रहे। अनेक ऐसे राष्ट्रपति हुए हैं, जिन्होंने सरकारों के साथ पूरा सहयोग किया लेकिन समय-समय पर असहमति और अप्रसन्नता व्यक्त करने में कोई कोताही भी नहीं की।
भारत के राष्ट्रपति का पद कुछ-कुछ ब्रिटेन के महाराजा की तरह है। उसका मुख्य काम सरकार को सलाह देना और उसका मार्गदर्शन करना है। हर प्रधानमंत्री चाहता है कि राष्ट्रपति सीधा-सरल व्यक्ति हो, जो सरकार के काम-काज में अड़ंगेबाजी न करे। क्या ही अच्छा होता कि ऐसे किसी व्यक्ति को पक्ष और विपक्ष सर्वसम्मति से राष्ट्रपति चुन लेते।
भाजपा के नेताओं ने ऐसी कोशिश भी की, लेकिन इस समय प्रमुख विपक्षी दल इस फिराक में हैं कि भाजपा के विरुद्ध एक शक्तिशाली गठबंधन खड़ा कर सकें ताकि अगले चुनाव में उसे शिकस्त दी जा सके। राष्ट्रपति चुनाव उन्हें अवसर प्रदान कर रहा है कि चाहे वे अभी हार जाएं लेकिन 2024 के आम चुनाव में जमकर टक्कर दे सकें। यहां यह भी ध्यातव्य है कि सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने राष्ट्रपति के लिए अपने किसी उम्मीदवार का नाम पेश नहीं किया और एक ऐसे व्यक्ति के नाम पर मोहर लगाई, जो 22 साल तक भाजपा का महत्वपूर्ण सदस्य रहा है।
एनडीए प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू भले भारत की दूसरी महिला राष्ट्रपति हों, लेकिन वे पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति होंगी। उनका महिला और आदिवासी होना उनकी उम्मीदवारी को विशिष्ट बनाते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)