जलती धरती को बचाना सबकी जिम्मेदारी ….?
इस साल भारत में भीषण गर्मी पड़ रही है। देश के कई हिस्सों में 122 साल का उच्चतम तापमान रेकॉर्ड किया गया। इस बीच असम और बांग्लादेश में आई बाढ़ ने लाखों लोगों को असहाय कर दिया या पलायन को मजबूर कर दिया। ये संयोगवश घटी घटनाएं नहीं हैं। जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल (आइपीसीसी) की नवीनतम रिपोर्ट भयावह तस्वीर पेश करती है। इसमें बताया गया है कि लू चलना, सूखा पड़ना या तूफान जैसी मौसम की चरम स्थितियां आम तौर पर देखने को मिलेंगी।
सवाल यह है कि हम जलवायु परिवर्तन के संकट को क्यों अनदेखा कर रहे हैं? इसके कई कारण हो सकते हैं। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव अब भी काफी दूर हैं। हिमालय के ग्लेशियर पिघलना या असम की बाढ़ का असर हमारे सुकून भरे जीवन पर पड़ता दिखाई नही देता। और अंतिम कारण है-‘साझे की त्रासदी’। हम इस सीमित संसाधन को साझा कर रहे हैं, क्योंकि यह निशुल्क है,या जिसकी लागत 7.5 बिलियन लोगों में बंट जाती है, इसलिए हमें यह निशुल्क उपलब्ध लगता है।’ इसलिए हमें लगता है कि हमारे अकेले के कुछ करने से क्या फर्क पड़ जाएगा? एक सवाल अपने आप से कीजिए कि पर्यावरण के लिए आपने अपने उपभोग और जीवनशैली में कितना परिवर्तन किया है? ईमानदारी से दिया जाए, तो इसका जवाब है-बहुत कम या न के बराबर। कम से कम तीन कारण ऐसे हैं, जिनके चलते बदलाव की शुरुआत हमसे ही होनी चाहिए। पहला, हमारे जैसे लोग ही जलवायु परिवर्तन में अत्यधिक योगदान दे रहे हैं। कार्बन उत्सर्जन का सीधा सम्बन्ध ऊर्जा और सामान के हमारे उपभोग से है। जितना सम्पन्न व्यक्ति होगा उतना ही अधिक उपभोग व उत्सर्जन में योगदान। विश्व स्तर पर सर्वाधिक सम्पन्न करीब 75 मिलियन लोग ऐसे हैं, जो निचले पायदान के 50 फीसदी लोगों के मुकाबले दोगुना उत्सर्जन का कारण हैं। भारत में भी यही हाल हैं। जापान स्थित संस्थान के एक अध्ययन के अनुसार शीर्ष 20 प्रतिशत परिवार गरीबों के मुकाबले 7 फीसदी अधिक उत्सर्जन के वाहक बनते हैं। जब तक हम उपभोग नहीं घटाएंगे, सुधार नहीं आएगा। दूसरा, जब तक संस्थान, व्यवसाय व सरकार चलाने वाले हम जैसे लोग अपनी मानसिकता, जीवनशैली नहीं बदलेंगे, ये संस्थान भी नहीं बदलेंगे।
ईएसजी,नेट जीरो और परिपत्र अर्थव्यवस्था की कितनी ही बातें कर ली जाएं, बदलाव एक बौद्धिक कवायद है। यह तभी आएगा, जब हम अपना व्यवहार बदलें। ऐसा होने पर संस्थानों का व्यवहार स्वत: बदल पाएगा। अखिरकार, हम अपने कार्यों से ही दूसरों को प्रेरित करते हैं और परिवर्तन वायरल होता चला जाता है। इसलिए इस धारणा के विपरीत कि मेरे प्रयास से वाकई में कोई फर्क नहीं पड़ता, को छोड़ कर हमें सोचना होगा कि यही एक चीज है, जो बदलाव ला सकती है।’ जैसा कि महात्मा गांधी ने कहा था कि हमें वह परिवर्तन स्वयं में करना होगा, जिसकी अपेक्षा हम दुनिया से करते हैं।’ असल समस्या है अंधाधुध उपभोग। इसलिए शुरुआत यहीं से कीजिए कि अपने उपभोग के प्रति सचेत रहें। उपभोग कर करें, किसी भी वस्तु को व्यर्थ न करें और इस्तेमाल बुद्धिमत्ता के साथ करें। हमारे माता-पिता और दादा-दादी ऐसी ही सोच रखते थे। यह वह दौर था जिसमें प्लास्टिक नहीं था, चीन का प्रभाव और ई कॉमर्स नहीं था, न ही बहुत सी सुलभ आय थी। तब हम काफी कम सामान खरीदते थे। अपनी उपकरण और कपड़े लम्बे समय तक इस्तेमाल करते थे। फाउंटेन पेन और कपड़े के थैले का इस्तेमाल करते थे। कागज की थैलियां और बोतलें रीसाइकल करते थे। मांसाहार कम करते थे। ताजा खाना, मौसमी फल व सब्जी खाते थे। एक दिन ऐसा होगा कि हम वस्तुओं की कीमतें पर्यावरण पर उनके प्रभाव के आधार पर तय करेंगे। इसलिए हम अपनी खरीदो, इस्तेमाल करो व फेंको जैसी आदतों के बारे में दो बार विचार करेंगे। एक दिन ऐसा होगा जब हमारे अत्यधिक आविष्कार हरित पैकेजिंग, हरित इस्पात व निर्माण सामग्री और नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के रूप में सामने आएंगे। तब उपभोग का दुष्प्रभाव कम होगा।
जिम्मेदारी हम सबकी है। क्या मैं हर माह का अपना बिजली का बिल कम कर सकता हूं? क्या अनावश्यक सामान खरीदना बंद कर सकता हूं? प्लास्टिक शून्यता के निकट पहुंच सकता हूं? बदलाव के लिए पर्यावरण के लिए चिंतित समान विचारधारा वाले लोगों को साथ लेकर चलें। गीला-सूखा कचरा अलग रखना, खाद बनाना और रीसाइक्लिंग साफ-सफाई के लिए रसायन मुक्त विकल्प अपनाना इसी का नतीजा है। पड़ोसियों ने ही मुझे सोलर पैनल लगाने के लिए प्रेरित किया। स्थानीय सरकारों नागरिक संगठनों के साथ मिलकर काम करके अपशिष्ट प्रबंधन में सुधार लाया जा सकता है। कार्बन ऑफसेट और हवाई यात्रा नई चुनौतियां हैं। पृथ्वी जल रही है, इसे बचाना हम सबकी जिम्मेदारी है।