आज फ्री स्पीच और असंसदीय भाषा के बीच कोई स्पष्ट संधिरेखा नहीं रह गई
यूगांडा के तानाशाह ईदी अमीन का चर्चित कथन है कि बोलने की आजादी तो है, लेकिन इस बात की गारंटी नहीं दी जा सकती कि बोलने के बाद आप आजाद रह सकेंगे। 2022 का भारत 1970 के दशक का यूगांडा तो हरगिज नहीं है, लेकिन धीरे-धीरे हमारे सार्वजनिक जीवन में लोकतांत्रिक अधिनायकवाद के लक्षण जरूर दिखने लगे हैं।
महाराष्ट्र में एक अभिनेत्री को शरद पवार के बारे में एक आपत्तिजनक पोस्ट शेयर करने पर 40 दिन जेल में रहना पड़ा। एक फिल्मकार को अमित शाह का एक पुराना फोटो ट्वीट करने पर गिरफ्तार कर लिया गया, जिसमें वे भ्रष्टाचार के आरोपी एक अधिकारी के साथ दिखाई दे रहे थे। बंगाल में एक यट्यूबर को कथित रूप से ममता बनर्जी के साथ दुर्व्यवहार करने पर हिरासत में ले लिया गया।
उत्तर प्रदेश में एक 18 वर्षीय स्कूली छात्र को योगी आदित्यनाथ की एक ‘अपमानजनक’ तस्वीर पोस्ट करने पर पुलिस ने पकड़ लिया, आदि इत्यादि। इन सभी मामलों का पैटर्न एक सरीखा है- एक शक्तिशाली और द्वेषपूर्ण सत्तारूढ़ पार्टी, जो अपने नेतृत्व की अवमानना सहन नहीं कर पाती और विरोध करने वाले के विरुद्ध कानूनी शिकायत दर्ज कर बैठती है। उसके अधीन रहने वाली पुलिस जरूरत से ज्यादा फुर्ती से कार्रवाई करती है और आईपीसी की धारा 153 के तहत उसे गिरफ्तार कर लेती है।
यह धारा उन कृत्यों पर कार्रवाई करती है, जो ‘सार्वजनिक जीवन की शांति को भंग कर सकते हैं।’ उसे किसी निचली अदालत में पेश किया जाता है, जहां जज जमानत-याचिका को खारिज कर देते हैं। जल्द ही कुछ और एफआईआर दर्ज की जाती हैं, नए मुकदमे दायर होते हैं, जिससे वह व्यक्ति कानून के पेचीदा जाल में फंसता चला जाता है। जिन नेताओं की उसने कथित रूप से अवमानना की थी, वे इस दौरान चुप्पी साधे रहते हैं और इस कार्रवाई को मौन-समर्थन देते हैं।
अधिकतर मामलों में आरोप केवल दिखावटी साबित होते हैं, लेकिन जैसा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश ने हाल ही में स्वीकार किया कि, ऐसे मामलों में दंड की प्रक्रिया ही दंड के समान होती है। और जब इस बेरोकटोक पुलिस-राजनीति को धर्म का हैवी-डोज मिल जाए तो कहना ही क्या। तब तो इसमें आईपीसी की धारा 295 भी जुड़ जाती है, जो आहत धार्मिक भावनाओं के बारे में है। मोहम्मद जुबैर के ही केस को ले लीजिए। उसे दिल्ली पुलिस ने चार साल पुराने एक ट्वीट के लिए गिरफ्तार किया था।
जुबैर को यूपी के एक जिले से दूसरे जिले में घुमाया जाता रहा, क्योंकि उसके विरुद्ध एक के बाद एक एफआईआर दर्ज की जाती रही थीं। आखिरकार सर्वोच्च अदालत को हस्तक्षेप करके उसे रिहा करवाना पड़ा। अदालत ने पुलिस को अपनी शक्तियों के मनमाने और दुर्भावनापूर्ण दुरुपयोग से बचने की हिदायत भी दी। जब सर्वोच्च अदालत के द्वारा जुबैर को रिहा करवाया गया तो सोशल मीडिया और टीवी स्टूडियो में पक्षपातपूर्ण स्वर में पूछा जाने लगा कि अदालत की ही एक अन्य बेंच ने वैसा संरक्षण नूपुर शर्मा को क्यों नहीं मुहैया कराया।
यह सच है कि अपने विरुद्ध दायर की गई अनेक एफआईआर को एकीकृत करने की नूपुर की मांग को अदालत के द्वारा ठुकराने पर सवालिया निशान लगाए जा सकते हैं, लेकिन दोनों मामलों में अंतर यह है कि जहां जुबैर ने 24 दिन जेल में बिताए, वहीं नूपुर को गिरफ्तारी का सामना नहीं करना पड़ा, उलटे उन्हें सुरक्षा मुहैया करवाई गई। लेकिन सच्चाई तो यह है कि न तो जुबैर और न ही नूपुर गिरफ्तार किए जाने के हकदार हैं। जहां जुबैर का ट्वीट आपत्तिजनक लग सकता है लेकिन उसे धार्मिक नफरत को बढ़ावा देने वाला नहीं कहा जा सकता।
वहीं नूपुर ने भले ही एक टीवी बहस में सीमा लांघी हो, लेकिन ईशनिंदा के लिए गिरफ्तारी की मांग एक औपनिवेशिक कानून का इस्तेमाल व्यक्तिगत स्वतंत्रता के विरोध में करने जैसा होगा। आज जब फ्री स्पीच और असंसदीय भाषा के बीच कोई स्पष्ट संधिरेखा नहीं रह गई है तो इसका विरोध करना भी दूभर होता जा रहा है।
1988 का साल याद कीजिए, जब राजीव गांधी सरकार ने मानहानि कानून लाकर लेखन की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने की कोशिश की थी तो कैसे उसका सड़कों पर उतरकर प्रतिरोध किया गया था, और सरकार को कानून को वापस लेना पड़ा था। आज कितने सम्पादक या सिविल सोसायटी समूह वैसा करने का साहस दिखा सकेंगे?
आहत भावनाओं के गणतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी की बलि चढ़ जाती है। यह दुष्चक्र प्रतिहिंसा से भरी राजनीति, निष्पक्षता त्याग चुकी पुलिस और दुर्बल न्यायपालिका का मिला-जुला परिणाम है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)