भारतीय संविधान, देश की महान सांस्कृतिक विरासत का जयघोष …?
सामान्य अर्थों में संविधान, साहित्य के समान सरस विषय नहीं होता। यह तो राष्ट्र के विधि-विधान, आचरण, मान-मूल्य-मर्यादा, करणीय-अकरणीय का निदर्शन करता है। इस शब्द-सत्ता में हस्तक्षेप किए बिना, उस पर भारतीय संस्कृति व सभ्यता की शीतल छाया आच्छादित करने का कार्य भारत के शीर्ष कलाविदों ने किया है। शांति निकेतन के कला-आचार्य नंदलाल वसु ने भलीभांति इस दायित्व का निर्वहन किया। उनके सुयोग्य शिष्य जबलपुर के व्यौहार राममनोहर सिन्हा इसमें सहयोगी थे। संविधान सभा के सदस्य कीर्तिशेष हरिविष्णु कामथ से प्राप्त संविधान की प्रथम मुद्रित प्रति के अवलोकन से सहज ही आभास हो जाता है कि यह साज-सज्जा का प्रकरण ही नहीं है। प्रकृति-आराधक भारत की आत्मा कलाकारों की कूचियों के माध्यम से उभरी है।
आरंभ में ही सारनाथ के अशोक स्तम्भ की छवि को उकेरा गया है। सिंह की त्रिमूर्ति और ‘सत्यमेव जयते’ के उद्घोष के साथ, जिसे भारत ने राष्ट्रीय आदर्श के रूप में अंगीकार किया है। इसे भारतीय वाङ् मय के ‘मुण्डकोपनिषद’ से लिया गया है। प्रथम पृष्ठ पर मोअन-जोदड़ो काल के वृषभ का रेखांकन सिंधु घाटी की सभ्यता का प्रतीक है। तृतीय पृष्ठ पर वैदिक काल के गुरुकुल का दृश्यांकन प्रकारांतर से भारत की महान सांस्कृतिक विरासत का जयघोष है। पृष्ठ छह पर उभरते रामायण काल में भगवान श्रीराम की लंका विजय के उपरांत सीताजी की मुक्ति का रेखांकन है। पृष्ठ-17 पर महाभारत का वह विलक्षण दृश्य है जहां कुरुक्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण किंकर्त्तव्यविमूढ़ अर्जुन को गीता का उपदेश दे रहे हैं। पृष्ठ-20 पर ध्यानमग्न तथागत बुद्ध और उनके शिष्य, तो पृष्ठ-63 के चित्रांकन में तीर्थंकर महावीर द्रष्टव्य हैं। पृष्ठ-98 पर सम्राट अशोक के काल में भारत और अन्यत्र बुद्ध धर्म के प्रचार का दृश्य है। प्रत्येक अध्याय के आरंभ मेे ऐसे रेखाचित्रों का समावेश है। इनमें संस्कृति के साथ-साथ जाग्रत इतिहास-बोध भी है। भागीरथ की तपस्या गंगावतरण (130), ज्ञान तीर्थ नालंदा विश्वविद्यालय, सम्राट विक्रमादित्य का दरबार, नृत्यरत नटराज, छत्रपति शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह (141), टीपू सुल्तान, वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई (144) का अंकन भारत की गौरव-गाथा प्रस्तुत करते हैं। उत्तुंग हिमालय (167), गहन महासागर (181) और विशाल मरुभूमि (168) के दृश्य भारत की भौगोलिक पहचान परिभाषित करते हैं।
आधुनिक काल की परिघटनाएं भी संविधान की पोथी पर उकेरी गई हैं। ये कालक्रम को अद्यतन बनाती हैं। महात्मा गांधी की दाण्डी यात्रा (149), जिसमें नमक सत्याग्रह के माध्यम से गांधीजी ने पराधीनता के अभिशाप के विरुद्ध जनमानस को झकझोरा था। देश-विभाजन से उपजे रक्तपात में बंगाल के नोआखाली में दंगे की आग को शांत करने में जुटे गांधी जी का चित्रण भी हुआ है (154)। ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का रणघोष करने वाले नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और आजाद हिन्द फौज का चित्रांकन (160) यह दर्शाता है कि भारत की आजादी भारतीयों के बहुविध संघर्षों का प्रतिफल है। नेताजी ने ही पहले पहल गांधी जी को ‘हमारे राष्ट्रपिता’ संबोधित किया था।
ऋषि मनीषा द्वारा प्रसूत वाङ् मय की सूक्तियां भारत का पथ प्रदर्शन करती हैं। समरसता, समन्वय, सामंजस्य, सह-अस्तित्व के बोध से सराबोर भारतीय संस्कृति सबके कल्याण की कामना में भरोसा रखती है। यही युगों से इन सूक्तियों की स्वीकार्यता और लोकमान्यता का आधार है। हमारी एक लोकप्रिय प्रार्थना है—
‘असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतम्गमय।’
इसमें असत् से सत् की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर प्रयाण का आह्वान है। वृहदारण्यक उपनिषद से इस सूक्ति को लिया गया है।
सर्वोच्च न्यायालय के प्रतीक चिह्न में आदर्श वाक्य अंकित है- ‘यतो धर्मस्ततो जय।’ यह सूक्ति श्रीमद्भागवद्गीता से उद्धृत है। भारत के दूरदर्शन का ध्येय वाक्य – ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ ऐसी ही अर्थपूर्ण सूक्ति है। इससे पवित्र और दोषरहित उद्घोष और क्या हो सकता है? जब भगवान बुद्ध के महाप्रयाण की बेला आई, उनके प्रिय शिष्य आनन्द ने कातर स्वर में पूछा – ‘हमें कौन राह दिखाएगा?’ भगवान बुद्ध ने उपदेश दिया – ‘अप्प दीपो भव।’ (अपना दीपक आप बनो।) उदारीकरण-संसारीकरण-बाजारीकरण और दूरसंचार क्रांति के इस युग में नारा उछला – ‘ग्लोबल विलेज’। हमारी संस्कृति का आदिकालीन संदेश है – ‘वसुधैव कुटुम्बकम्।’ समस्त वसुधा एक कुटुम्ब के समान है। तथाकथित आधुनिक सभ्यता वाले मानवता को खानों में बांटते हैं। भारतीय संस्कृति सिखाती है- ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु।’ उन्हें रास्ता ‘ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टम’ (जीपीएस) दिखाता है। भारतीय मनीषा कहती है – ‘महाजनो येन गत: स पंथ:।’
आधुनिक शिक्षालय विज्ञापनों से चलते हैं। मोटी फीस लिए बिना ज्ञान का दरवाजा खोलना स्वीकार नहीं करते। भारतीय मनीषा कहती है – ‘आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:।’ अच्छे विचार सब दिशाओं से आने दो। आधुनिक शिक्षा सर्वांगीण नहीं, किसी एक खांचे में ढालती है। भारतीय मनीषा कहती है – ‘सा विद्या या विमुक्तये।’ विद्या वह जो मुक्त करे। शुभेच्छा की इससे श्रेष्ठ कामना क्या हो सकती है – ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दु:ख भाग्वतेत।’
आवश्यकता इस बात की है कि आधुनिकता के फेर में मूल मानवीयता की अनदेखी न हो। नया ज्ञान-विज्ञान सहर्ष स्वीकार। साथ ही अपनी संस्कृति पर गर्व करें और मन-वचन-कर्म में उसका अनुसरण करें। आधुनिकता का तात्पर्य अपनी जड़ों से कटना नहीं होता।