क्यों चुनावी वादों पर बहस नहीं चाहती हमारी पार्टियां …!

पश्चिमी देशों में चुनावी वादों की ट्रैकिंग…तभी बाइडेन ने डेढ़ साल में 22% वादे पूरे किए …

चुनावी वादा…इसकी परिभाषा यही बन गई है कि वो वादा जो पूरा न किया जाए। …लेकिन क्या वाकई में ऐसा है?

चुनावों के दौरान पार्टियों के अफलातूनी वादे सही हैं या गलत…इस सवाल पर दायर एक याचिका की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच को ट्रांसफर हो चुकी है। यह सवाल ऐसा है जिस पर राजनीतिक दल भी दो खेमों में बंट गए हैं।

चुनाव आयोग ने हाल ही में यह कहा कि पार्टियों को चुनावी वादे के साथ यह ब्योरा भी देना चाहिए कि यह वादा पूरा करने के लिए पैसा कहां से आएगा। मगर कांग्रेस समेत कई राजनीतिक पार्टियां चुनाव आयोग के रुख से नाराज हैं। उनका कहना है कि वादे पूरे न हों तो फैसला जनता कर देगी…चुनाव आयोग बीच में न पड़े।

भारत में औसतन हर दो साल में किसी न किसी राज्य में विधानसभा चुनाव होता है। 5 साल में होने वाला लोकसभा चुनाव अलग…। हर चुनाव में हजारों वादे होते हैं, ये पूरे होते हैं या नहीं…इसके लिए कोई इंडिपेंडेंट ट्रैकिंग सिस्टम ही नहीं है।

जबकि, इसकी तुलना अमेरिका जैसे पश्चिमी देशों से की जाए तो स्थिति बिल्कुल उलट दिखती है। अमेरिका में औसतन हर राष्ट्रपति अपने चुनावी कैंपेन में किए वादों में से 60% से ज्यादा पूरे करता है।

अमेरिकन जर्नल ऑफ पॉलिटिकल साइंस में प्रकाशित 12 पश्चिमी देशों पर किया गया एक शोध बताता है कि चुने गए राजनीतिक दल अपने ज्यादातर वादे पूरे करते हैं। कई बार तो 80% तक चुनावी वादे पूरे होते हैं।

आइए, समझते हैं कि चुनावी वादों का गणित क्या है? भारत में इन वादों की मॉनिटरिंग क्यों नहीं होती और क्यों पश्चिमी देशों की चुनी हुई सरकारें वादे पूरे करना जरूरी समझती हैं।

पहले समझिए, वेस्टर्न वर्ल्ड में चुनावी वादों की अहमियत क्या है…

अब हम आपको बताते हैं देश और दुनिया में इलेक्शन कैंपेन के दौरान किए गए कुछ सबसे अजीबोगरीब वादे…

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