संतान से पहले माँ-बाप अच्छे हों …?

चौंक जाएंगे आप! ….

बीज पुरुष में है, स्त्री में नहीं है। अत: पुरुष और स्त्री शरीर की निर्माण प्रक्रिया भी भिन्न होगी। पुरुष बीज स्त्री शरीर में प्रवेश करके स्वयं की सन्तान रूप में बाहर आता है। बीज के आगे का सारा कार्य-निर्माण-वृद्धि-पोषण आदि स्त्री शरीर में होते हैं। पुत्र का तंत्र बालक शरीर से ही जुडे़गा। उसका भिन्न शरीर बनेगा। बालिका शरीर के अवयव भिन्न होंगे।

काश और अंधकार युगल रूप हैं। सदा साथ रहते हैं, एक-दूसरे के पूरक हैं, किन्तु स्वभाव से भिन्न हैं। प्रकाश देवताओं का आवास है, इन्द्र के अधीन है, उष्ण है। अंधकार असुर प्रदेश है, वरुण अधिपति है- शीत प्रधान है। देवता 33 तथा असुर 99 हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में, भीतर-बाहर देवासुर संग्राम चलता ही रहता है। जो ज्ञानी हैं, वे दिव्यता का जीवन जीते हैं, अज्ञानी आसुरी भाव से ओत-प्रोत रहते हैं। देवता प्रकाश में रहते हैं, असुर अंधकार में। यही अग्नि-सोम रूप जगत का मूल स्वरूप है।

सोम बीज रूप है, अग्नि पृथ्वी है। बीज की अग्नि में आहुति से नया निर्माण होता है। अत: प्रत्येक वस्तु में अग्नि और सोम दोनों रहते हैं। जहां अग्नि की प्रधानता रहती है, वह पुरुष वाचक होता है। सोम इसके भीतर रहता है। वही आगे चलकर पुरुष का बीज रूप तैयार होता है। प्रकृति सौम्या है, स्त्रैण है, अन्दर अग्नि रूप पुरुष भी है। वही अग्नि आगे चलकर बीज की योनि बनता है। वहां अग्नि-सोमात्मक यज्ञ होता है।

जब सृष्टि नहीं थी, केवल अंधकार ही था। असुर ही थे। इनसे ही देवता/प्रकाश का प्राकट्य हुआ। असुर देवताओं से बलवान भी होते हैं। इन्हीं के कारण- ‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत’ की स्थिति पैदा होती है। इन्हीं से रक्षा करने के लिए कृष्ण घोषणा कर चुके हैं-सम्भवामि युगे-युगे। प्रत्येक युग में आसुरी प्रवृत्तियां क्रमश: वृद्धि को प्राप्त होती हैं। अन्तिम युग-चरण, कलियुग- में तो चरम पर पहुंच जाती है। प्रलय काल का आमंत्रण भी आकर्षित करता है। तब ‘विनाशाय च दुष्कृताम्’ हेतु कृष्ण अवतार लेते हैं।

जहां भी असुर आक्रमण करते हैं, अहंकार-वासनाएं चरम पर रहते हैं। देव डरकर भागते नजर आते हैं। तब माया ही रक्षा करती है। असुर भी उसके बाहर नहीं होते। माया कामना है, तो माया भ्रान्ति (भ्रान्तिरूपेण संस्थिता) भी है। यही मोहिनी बन जाती है, महिषासुर मर्दिनी भी है।

कलियुग की एक पहचान यह भी कही गई है कि इसमें देव-असुर एक ही शरीर में रहते हैं। वही कभी देव होता है, कभी असुर हो जाता है। यह निर्माण भी माया के ही नियंत्रण में रहता है। यह माया कौन है? ब्रह्म की इच्छा है, अर्द्धांगिनी है। अतिसूक्ष्म है। पृथ्वीलोक तक आते-आते स्थूल हो जाती है। 84 लाख रूपों में बदल जाती है। इनमें भी मानव शरीर में इसके रूप बहुत विचित्र होते हैं। हर भू-भाग के मानव का स्वरूप भी भिन्न होता है। पूर्वी देश इन्द्र (प्रकाश-अध्यात्म) के क्षेत्र हैं, उष्ण हैं। पश्चिम वरुण (सोम-शीतल-भोग) का क्षेत्र है। दोनों के मानव भी विपरीत स्वभाव के ही होंगे। हां, ब्रह्म एक ही रहता है, प्रकृति बदलती है।

प्रकृति का आधार चन्द्रमा है। मन का स्वामी भी चन्द्रमा है। चन्द्रमा, सोम, सौम्या, शीतलता एक ही परिवार है। प्रकृति ही स्थूल (अपरा) सृष्टि है। प्रकृति बदलना जानती है, अहंकृति और आकृति नहीं बदलती। प्रकृति रूप स्त्री ही आग्नेय पुरुष में आहूत होती है। दोनों मिलकर आगे की सृष्टि का निर्माण करते हैं।

सृष्टि निर्माण एक यज्ञ है, अग्नि-सोम का यौगिक है, किन्तु निर्माण एक से नहीं हैं। बीज पुरुष में है, स्त्री में नहीं है। अत: पुरुष और स्त्री शरीर की निर्माण प्रक्रिया भी भिन्न होगी। पुरुष बीज स्त्री शरीर में प्रवेश करके स्वयं की सन्तान रूप में बाहर आता है। बीज के आगे का सारा कार्य-निर्माण-वृद्धि-पोषण आदि स्त्री शरीर में होते हैं। पुत्र का तंत्र बालक शरीर से ही जुडे़गा। उसका भिन्न शरीर बनेगा। बालिका शरीर के अवयव भिन्न होंगे। जो भी जीव माता के शरीर में आता है, वह किसी न किसी शरीर को छोड़कर ही आता है। आत्मा में उसके संचित कर्म, वर्ण, पूर्वजों के अंश तथा पिता के प्राण रहते हैं। स्त्री शरीर में वर्ण-पितरों के अंश नहीं पहुंचते।

जीव स्वेच्छा से माता-पिता का चुनाव करता है और इसका कारण भी जानता है। इसका आदान-प्रदान माता के स्वप्नों के माध्यम से माता के साथ हो जाता है। माता जीव को मानव रूप में विकसित करती है। अपने परिवार की भावी आवश्यकताओं के अनुरूप ढालती है। संस्कारित करती है। अभिमन्यु का उदाहरण जीव की ग्राह्यता को स्पष्ट करता है। यहीं से मानव संस्कृति का निर्माण शुरू हो जाता है। माता-पिता भी गर्भाधान पूर्व ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि उनके परिवार में एक शुद्ध आत्मा को भेजें। जीव और स्वप्न दोनों एक ही धरातल के हैं। मन ही जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति अवस्थाओं में रहता है। चन्द्रमा से बीज और शोणित का 28 दिनों का क्रम नियंत्रित रहता है। जीव भी चन्द्रमा से पुन: पृथ्वी पर आता है। चन्द्रमा-मन-शोणित (रज) का सूत्रात्मक नाम है जननी-मां। चन्द्रमा सूर्य पत्नी है। शोणित का अत्रि प्राण ही इसको दर्पण बनाता है। सूक्ष्म में बिम्ब-प्रतिबिम्बात्मक सृष्टि ही रहती है। पृथ्वी पर पहुंचकर हम स्थूल शरीर धारण करते हैं। इसके पहले पृथ्वी, विद्युत तथा द्युलोक की अग्नि हमारी माता होती है।

पिता भी स्थूल शरीर पृथ्वी पर धारण करते हैं। इससे पूर्व अग्नि (जठराग्नि), वर्षा जल (पर्जन्य) तथा सोम रूप में ब्रह्म का शुक्र यहां तक यात्रा करता है। ये सारे ही अलग-अलग लोकों में ब्रह्म यात्रा मार्ग हैं। सूक्ष्म से स्थूल होते जाने के। अन्त में भी पुरुष शरीर में प्रवेश करेगा। शुक्र स्त्री शरीर में नहीं पैदा हो सकता। स्त्री शरीर में भी मां से मां की ओर, पांच पीढ़ियों के अंश होते हैं- (यास्क)। इन अंशों के प्रभाव में परिवर्तन नहीं हो सकता। भ्रूण के लिंग का निर्णय प्रथम कलल (बुद्बुद्) अवस्था में ही हो जाता है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार यह परिणाम X-Y क्रोमोसोम के योग का होता है। यह क्रिया जीव के मां के गर्भ में प्रवेश से ही निश्चित हो जाती है। जीव के सूक्ष्म शरीर का लिंग तय होता है- कर्मफल के अनुरूप। शुक्र में व्याप्त घटकों में से भी प्रकृति ही परिवर्तनीय है। स्त्री शरीर में भी प्रकृति-कामना ही मन के आधार पर बदले जा सकते हैं। यही वह क्षेत्र है जहां रूपान्तरण घटित हो सकता है। सारा कार्य मन पर केन्द्रित हो जाता है (कर्मफल के बाद)। मां का मन और भ्रूण का मन मिलकर आगे यात्रा तय करते हैं।

मां बनना अर्थात् सन्तान पैदा करना सिखाया नहीं जाता और न वह भ्रूण की अहंकृति, प्रकृति और आकृति को बदलना जानती है। प्रशिक्षण और शिक्षण से मां भ्रूण की प्रकृति को बदल सकती है। गर्भावस्था ही मानवता के विकास का मूल स्थान है। सन्तान को यहीं तैयार किया जा सकता है। अत: बाद में बदलने से अच्छा है ‘मां’ को ही पैदा किया जाए। संतान तो हो ही जाएगी।

मां बनने के लिए स्त्री शरीर के साथ स्त्रैण मनोभाव भी होने चाहिए। उचित स्वास्थ्य, उचित शिक्षा-मातृत्व और प्रजनन प्रक्रियाओं की, नवजात के पोषण-रक्षण की। केवल शरीर से हर प्राणी की मादा मां तो बन ही जाती है। मानव समाज में भी माताएं ज्ञानशून्य-भावशून्य होने लगी हैं। कुछ परम्परा के सहारे चल रही हैं- भले ही उनका अर्थ नहीं जानती हों।

मां से ज्यादा पिता का शिक्षण और भी महत्त्वपूर्ण है। इसके बारे में किसी समाज में कोई चर्चा नहीं है। साधारण बात है- बीज अच्छा नहीं होगा तो क्या उपजाऊ जमीन अच्छे फल प्रदान कर सकती है? और साथ में मिट्टी भी बंजर निकले, बीज भी संकर या कच्चा हो तो सन्तान का भविष्य? ऐसी सन्तान की समाज और राष्ट्र निर्माण में भूमिका कैसी होगी?

आधुनिक विज्ञान ने टेस्टट्यूब बेबी पैदा कर दिए। यह तो मां का, धरती का काम है, वह भी अधूरा। मां-बच्चे के मध्य जो संवाद होता है- ध्वनि तरंगों के माध्यम से, मां जो संस्कार देती है, वातावरण का जो प्रभाव शिशु पर पड़ता है, वह प्रयोगशाला में सब श्ूान्य होता है। एक अस्थि-मांस का जीवित पिण्ड। शून्य से शुरू होने वाला रोबोट तैयार होता है। फिर भी सच्चाई तो यह है कि बीज तो वही ब्रह्म का ही होता है। विज्ञान भले ही इसको गॉडपार्टिकल मान ले, इसको पैदा नहीं कर सकता।

गीता कह रही है कि हर एक के हृदय में मैं बैठा हूं (कृष्ण), तब बीज तो सम्पूर्ण सृष्टि के चेतन-जड़ पदार्थों का एक ही है- ‘अहं बीजप्रद पिता’ कह रहे हैं। क्या विज्ञान नया बीज बना पाएगा? शून्य से, निराकार से, अनन्त से, सहस्रशीर्षा से बीज तैयार करके, सातों लोकों के आवरण चढ़ाते हुए, सूर्य-चन्द्र-पृथ्वी के बिम्बों से अहंकृति, प्रकृति, आकृति तय कर पाएगा। क्या बीज में वर्णाश्रम व्यवस्था, ऋणानुबन्ध और कर्मफल का नियोजन विज्ञान तय कर सकेगा? गॉडपार्टिकल पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, जलचर, मानव-देवता-असुर सबका एक जैसा ही होता है। सारा अन्तर महद्लोक के बीजारोपण से शुरू होता है, जहां जीव का प्रथम आकार तय होता है। वही आकर केन्द्र में रहता है। उसी पर लोकों में परतें चढ़ती जाती हैं। पृथ्वी पर आकर आकार प्राप्त करता है। केन्द्र ही बीज का मूल घर है। वह कभी स्वरूप से नहीं बदलता। सारा बदलाव शरीरों में ही होता है।

बीज का अर्थ ही पिता है। इसको वसुधैव कुटुम्बकम् की दृष्टि से निर्मित करना ही मूल योग है। बीज की शुद्धता और धरती की उर्वरा ही श्रेष्ठ फल का आधार है। आज दोनों ही शुद्ध नहीं रहे। अत: सर्वप्रथम श्रेष्ठ दम्पति का निर्माण आवश्यक है। सन्तान स्वत: ठीक ही होगी। जैसा पिता, वैसा पुत्र। पिता का बीज ही मां के गर्भ में शरीर रूपी आवरण लपेटकर बाहर आता है। बीज की यात्रा निरन्तर चलती है। मां बदलती रहती है, कपड़े बदलते रहते हैं। जो कभी नहीं बदलता, उस बीज की यात्रा नियंत्रित कर पाना, उसका नया निर्माण करना बुद्धि के परे का विषय है। अभी तो बीज में सम्पूर्ण शरीर को देख पाना ही संभव नहीं। यह शरीर कब रोगग्रस्त होगा, कब दुर्घटना ग्रस्त होगा, बीज में तलाश करना कहां सहज है? असंभव! प्रत्येक बीज में कुछ तो गुण प्रकृति के कारण जुड़ते हैं- अहंकृति-प्रकृति-आकृति-वर्ण-पितरप्राण-योनियों का रूप (कर्मानुसार) आदि। कर्मफल ही भावी सुख-दु:ख, और कर्मफलों का अन्य प्राणियों के साथ भोग तय करते हैं। कर्म कभी अच्छा-बुरा नहीं होता।

प्राणी की अहंकृति सूर्य से बनती है। हम उसको नहीं बदल सकते। उसी के अनुसार चन्द्रमा और पृथ्वी प्रकृति और आकृति बनाते हैं। आकृति को प्रकृति से बदला जा सकता है। क्या विज्ञान इन तीनों में से किसी को प्रयोगशाला में बदल सकता है। बीज को बदलना पडे़गा। पिछली छह पीढ़ियों के अंश भी नहीं बदले जा सकेंगे प्रयोगशाला में। ये सारे ही बीज के आवरण भी हैं। बीज तक कैसे पहुंच पाएंगे। गीता में जीव की प्रकृति, उसका नियंत्रण, अन्न का, यज्ञ-तप-दान का स्वरूप दिया है- सम्बन्ध दिया है। हम अपनी प्रकृति को समझ सकते हैं, संयम द्वारा इन्द्रिय निग्रह करके स्थितप्रज्ञता को प्राप्त कर सकते हैं। स्वयं से बाहर, अन्य प्राणी में, न तो प्रकृति को नियंत्रण में कर सकते हैं, न बदल सकते हैं। अच्छे बीज को भावनाओं से ही बदला जा सकता है। मां ही गर्भ में यह कार्य करने में सक्षम होती है। पिता तो बीजारोपण के बाद केवल बाहरी वातावरण तथा मां के मनोभावों को स्वस्थ रखने में सहायक हो सकता है।

मां का मन सन्तान के लिए हिलौरे लेता है। वही ईश्वर से अच्छी सन्तान मांगती है। पति भी अच्छी सन्तान की कामना से प्रजापति के निमित्त यज्ञ करता है तथा यज्ञशेष हवि को पत्नी को खिलाता है-‘अथैनां स्थालीपाकं प्राशयति प्राणैस्ते प्राणान्त्संदधाम्यस्थिभिरस्थीनि मांसैर्मांसानि त्वचा त्वचमिति।’ अर्थात् हे कन्ये! तुम्हारे प्राणों के साथ मैं अपने प्राणों को, अस्थियों के साथ अस्थियों को, मांसों के साथ मांसों को एवं त्वचा के साथ त्वचा को मिलाता हूं।’’ तब जाकर पति-पत्नी के प्राण परस्पर आदान-प्रदान को ग्रहण कर सकते हैं। स्त्री स्वयं अच्छे वर के लिए इन्द्रादि देवों से प्रार्थना करती रही है। अत: स्वेच्छा से, ग्रहण करने के भाव से ही युक्त रहती है। पति के कुल को पोषित करने के लक्ष्य को ध्यान में रखकर ही कर्म में संयुक्त होती है। अन्त में पति कहता है-‘अथास्ये दक्षिणांसमधिहृदयमालभते। यत्ते सुशीले हृदयं दिवि चन्द्रमसि श्रितम्। वेदाहं तन्मां तद्विद्यात्पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शतं शृणुयाम शरद: शतमिति। एवमत ऊर्ध्वम्।’ अर्थात्-जो तुम्हारा हृदय सूर्य और चन्द्रमा में स्थित है, उसको मैं जानूं। वह मुझे जाने। मैं उसके अनुकूल होऊं, वह मेरे अनुकूल होवे। इस प्रकार एक-दूसरे के अनुकूल हृदय होकर हम सौ शरद ऋतुओं को देखें।

यहां दाम्पत्य भाव शरीर के धरातल पर नहीं है। आत्मा का, अक्षर सृष्टि का, सूर्य का, अदृश्य सृष्टि का धरातल है। तभी बीज और धरती के प्राण एकाकार होकर नवसृजन करते हैं। पति सूर्य का प्रतिनिधि है, चन्द्रमा की प्रतिनिधि स्त्री है। दोनों को जो कुछ प्रकृति से प्राप्त होता है, उसे ब्रह्मचर्याश्रम में विस्तार से जानें, शोधन करें, अभ्यास करें। अपने स्वभाव का परिष्कार करें। मां भी यही सारा कार्य गर्भावस्था में सन्तान के लिए करती है।

यह पहली आवश्यकता है कि अच्छे-सुसंस्कारित-विवेकशील, मर्यादित जीवन वाले मां-बाप तैयार हों। संतान तो स्वत: ही ठीक हो जाएगी। भारतीय शिक्षा पद्धति में पेट भरने की शिक्षा उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं रही, जितनी व्यक्तित्व निर्माण की। राजा का पुत्र भी गुरुकुल में रहता था। आज तो समृद्ध/पदासीन लोगों की सन्तान कष्ट पाना ही नहीं चाहती। जीवन व्यवहार में सभी कच्चे रह जाते हैं। आश्रम में पुरुष अपनी भूमिका, आत्मदर्शन, परहित और लोकसंग्रह सीखता था। भीतर के ब्रह्माण्ड को जानकर बाहरी जीवन को सन्तुलित रखना सीखता था। धैर्य-सहनशीलता सत्व को आत्मसात करता था। दिव्यता प्राप्त करना उसका एकमात्र लक्ष्य होता था। आज धन ही दिव्यता का पर्यायवाची हो गया।

स्त्री की व्यावहारिक शिक्षा-स्त्रियोचित- घर पर, संयुक्त परिवार में होती थी। प्रसव-शिशु पालन के अनुभव कई बार होते थे। स्वयं के मन में स्त्री होने के भाव सशक्त होते थे, जिनसे सर्वांग पोषण होता था। समय पर विवाह भी होता था। आज कन्या स्वयं को भी बालक की तरह ही देख रही है। उसी से मूल स्पर्धा होने लगी है। पहले पूरक बन रही थी। स्पर्धा खण्डन का ही मार्ग है। पुरुष चित्त होने से उसके स्त्रैण अंगों का विकास भी आयु के अनुरूप नहीं होता। कई के सन्तान सुख में बाधा आती है, तो कई के स्तनों से दूध अतिअल्प मात्रा में आता है। गर्भकाल पूरा करना भी कठिन हो जाता है। सात-आठ माह में ही ऑपरेशन कराना पड़ जाता है। सन्तान तो हो जाती है, मां नहीं बन पाती। प्रसव पीड़ा के अभाव में भावशून्य रहती है।

सर्वांगीण विकास के लिए शरीर-मन-बुद्धि-आत्मा चारों को संतुलित रूप से पोषित किया जाना चाहिए। माता-पिता दोनों को ही इसका ज्ञान नहीं होता। आत्मा की तो चर्चा ही नहीं होती। पिता को भी यह आभास कहां है कि वही सन्तान बनकर पैदा होता है। अत: सन्तानों के प्राण सदा उसी के साथ संयुक्त रहते हैं। उसी का बीज सन्तान शरीर में नया बीज पैदा करता है, जिसमें सर्वाधिक अंश उसी (पिता) का रहता है। बीज के अनुसार ही मां शरीर का निर्माण करती है।

माता-पिता के प्राण ही सन्तान के शरीर का मृत्यु पर्यन्त संचालन करते हैं। तभी तो देह का पोषण होता है। नए बीजों के निर्माण तक पिता के प्राण भी कार्य करते हैं। यही रहस्य है ‘मातृ देवो भव,’ ‘पितृ देवो भव’ का। व्यक्ति का आत्मा भी अदृश्य, माता-पिता के प्राण भी अदृश्य । यही व्यक्ति का विश्व भी है, ब्रह्माण्ड भी है। जो कुछ दिखाई देता है, सबकुछ आवरण है, नश्वर है। मैं भीतर हूं, ईश्वर हूं। जो माता-पिता यह ज्ञान दे सकें, वे ही संस्कारवान होंगे। वे पैदा होंगे, नया समाज पैदा होगा।

हमारे शरीर में पांच कोश होते हैं। जो आत्मा को ढके रहते हैं। जो अन्न हम खाते हैं, वह स्थूल शरीर में सप्त धातुओं का निर्माण करता है। सातवां धातु शुक्र होता है। शुक्र की व्याप्ति सम्पूर्ण पुरुष शरीर में होती है, जैसे दूध में घृत। इसका पूरक तत्त्व स्त्री शरीर में शोणित (रक्त) में ही रहता है। शुक्र एक द्रव्य है जो शुक्राणु को सुरक्षित रखता है तथा शोणित से सम्बन्ध करने के लिए काम आता है। शुक्राणु का पूरक तत्त्व अरणी मन्थन से पैदा किया जाता है। इसी में (मह:लोक) शुक्राणु का श्ुाक्र आहूत होता है।

जो आवरण बीज पर पंचाग्नि के दौरान चढ़ते हैं, प्रजनन क्रिया में वे एक-एक करके हटते जाते हैं। अन्त में पुंभ्रूण तथा स्त्री भ्रूण ही शेष रहते हैं। इसी प्रकार मृत्यु पश्चात भी पांचों कोश हटते हैं। जिस लोक में जो कोश चढ़ता है, उसी में उतरता भी है। हमें प्रत्येक आवरण के चढ़ने-उतरने का ज्ञान आवश्यक है। पंचकोश के आवरण गर्भ में प्राप्त होते हैं- स्थूल से स्थूलतम हो जाते हैं। प्रजनन काल में पुंभ्रूण के आवरण सूक्ष्म से सूक्ष्मतम हो जाते हैं। गर्भाधान-पुंसवन-सीमन्तोन्नयन जैसे संस्कारों में प्रयुक्त मंत्र प्राणों की क्रियाओं का विवरण देते हैं।

मूल में समझने के लिए हमें ब्रह्माण्ड में इन प्रक्रियाओं को समझना होगा। ‘यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे’ का अर्थ ही है कि शरीर ब्रह्माण्ड की ही प्रतिकृति है। जिस प्रक्रिया से सृष्टि की उत्पत्ति होती है, उसी प्रक्रिया से स्थूल जगत में देहधारी पैदा होते हैं। इनका भी आगे विकास इसी प्रक्रिया से होता है। आवरण के रूप में 84 लाख शरीर बनते हैं। भीतर सब में एक ही ब्रह्म है। बाहर प्रकृति है। देह माता है, आत्मा पिता है। शरीर के माध्यम से पुरुषार्थ करते हुए आत्मा का ज्ञान होता है। बाहर के साथ-साथ भीतर भी जीना मां-बाप ही सिखा सकते हैं। स्कूली शिक्षा नहीं सिखा पाती। अत: श्रेष्ठ जीवन का ज्ञान देने के लिए माता-पिता का श्रेष्ठतर होना पहली आवश्यकता है। फल एक पीढ़ी बाद मिलने शुरू होंगे।

बीज का अर्थ ही पिता है। इसको वसुधैव कुटुम्बकम् की दृष्टि से निर्मित करना ही मूल योग है। बीज की शुद्धता और धरती की उर्वरा ही श्रेष्ठ फल का आधार है। आज दोनों ही शुद्ध नहीं रहे। अत: सर्वप्रथम श्रेष्ठ दम्पति का निर्माण आवश्यक है। सन्तान स्वत: ठीक ही होगी। जैसा पिता, वैसा पुत्र। पिता का बीज ही मां के गर्भ में शरीर रूपी आवरण लपेटकर बाहर आता है। बीज की यात्रा निरन्तर चलती है। मां बदलती रहती है, कपड़े बदलते रहते हैं। जो कभी नहीं बदलता, उस बीज की यात्रा नियंत्रित कर पाना, उसका नया निर्माण करना बुद्धि के परे का विषय है।

मां से ज्यादा पिता का शिक्षण और भी महत्त्वपूर्ण है। इसके बारे में किसी समाज में कोई चर्चा नहीं है। साधारण बात है- बीज अच्छा नहीं होगा तो क्या उपजाऊ जमीन अच्छे फल प्रदान कर सकती है?
यह पहली आवश्यकता है कि अच्छे-सुसंस्कारित-विवेकशील, मर्यादित जीवन वाले मां-बाप तैयार हों। संतान तो स्वत: ही ठीक हो जाएगी। भारतीय शिक्षा पद्धति में पेट भरने की शिक्षा उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं रही, जितनी व्यक्तित्व निर्माण की।
प्रशिक्षण और शिक्षण से मां भ्रूण की प्रकृति को बदल सकती है। गर्भावस्था मानवता के विकास का मूल स्थान है। सन्तान को यहीं तैयार किया जा सकता है। अत: बाद में बदलने से अच्छा है ‘मां’ को ही पैदा किया जाए। संतान तो हो ही जाएगी।

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