फिल्मों के अश्लील दृश्यों से भी बढ़ रहे हैं यौन अपराध

समाज: फिल्मकारों को अपनी जिम्मेदारी का ध्यान रखना होगा …

पिछले कुछ दिनों से पठान फिल्म का गाना ‘बेशर्म रंग’ अनेक कारणों से चर्चा में रहा है। कुतर्कों की लंबी फेहरिस्त के बावजूद फिल्माए गए गाने की नृत्य-शैली एवं भाव-भंगिमा पर चर्चा करें, तो यह अशोभनीय थी। सितंबर 1970 को के.ए. अब्बास बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय की खंडपीठ ने कहा था ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की व्याख्या सिनेमाघरों के लिए घटिया और अश्लीलता को बढ़ावा देकर पैसा बनाने के लिए एक लाइसेंस के रूप में नहीं की जा सकती है। सिनेमा किसी भी अन्य संचार माध्यमों की तुलना में भावनाओं को अधिक गहराई से उभारने में सक्षम है, विशेष रूप से बच्चों और किशोरों पर इसका प्रभाव बहुत अधिक होता है। अपरिपक्वता के कारण वे चलचित्र में होने वाली क्रिया को याद रखते हैं और जो कुछ उन्होंने देखा उसका अनुकरण या नकल करने का प्रयास करते हैं।’

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर समाज में पनपती अनैतिकता, उच्छृंखलता का दोष फिल्मों को नहीं देने की पैरवी करने वालों को उच्चतम न्यायालय के वक्तव्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। न्यायालय ने कहा था, ‘कोई व्यक्ति किसी पुस्तक, भाषण या मूर्ति से इतनी गहराई से उत्तेजित नहीं होता जितना किसी चलचित्र को देखने से होता है’। कई यह तर्क देते हैं कि वयस्क सामग्री देखने से बच्चे प्रभावित नहीं होते, क्योंकि उनके मस्तिष्क को ऐसे दृश्यों को समझने की क्षमता नहीं है, परंतु ऐसा नहीं है। एक वयस्क के विपरीत बच्चों के पास इस तरह के दृश्यों को संशोधित करने का कोई फिल्टर नहीं है और फिल्में जो दिखाती हैं, वे उसे उसी रूप में अंगीकार कर लेते हैं। निरंतर अश्लील दृश्य देखने के बाद हमारा व्यवहार और प्रतिक्रियाएं प्रभावित होती हैं। हम यह आशा करते हैं कि बच्चों को नैतिक शिक्षा से जुड़ी पुस्तकें और महापुरुषों के बारे में पढ़ाने से वे अच्छे कार्य करने के लिए प्रेरित होंगे। उनमें सकारात्मकता दृष्टिकोण पनपेगा और वे सन्मार्ग की तरफ अग्रसर होंगे। ऐसा होता भी है। ठीक इसी तरह किशोरावस्था में फिल्में में अश्लीलता यौन संसर्ग को सामान्य करती जा रही है और बच्चों के भावनात्मक, सामाजिक या बौद्धिक रूप से तैयार होने से बहुत पूर्व ही यौन गतिविधियों को मन मस्तिष्क में स्थापित कर देती है।

शोधकर्ता डॉ. जेनिंग्स ब्रायेट ने अपने एक अध्ययन में पाया है कि 66 प्रतिशत लड़के और 40 प्रतिशत लड़कियों ने मीडिया में दिखाए गए यौन व्यवहार को आजमाने की इच्छा जताई और हाईस्कूल तक कई लोगों ने ऐसा किया भी। कैलिफोर्निया के फॉरेंसिक मनोचिकित्सक डिट्ज कहते हैं कि उन्होंने दुष्कर्म के कई मामलों को यौन हिंसा से प्रेरित देखा है। कई युवा लड़कियों का अपहरण, दुष्कर्म और खून करने वाले कुख्यात अपराधी रॉबर्ट बंडी ने अपनी फांसी से पूर्व दिए एक साक्षात्कार में यह स्वीकार किया था कि अश्लील फिल्मों ने उसकी यौन उत्तेजना को आक्रामक बना दिया था। आधुनिकता के नाम पर उच्छृंखलता को स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह जरूरी हो जाता है कि दर्शकों को मनोरंजन के नाम पर महिलाओं के वस्तुकरण और अपराध के लिए प्रवृत्त नहीं किया जाए। उल्लेखनीय है कि सितंबर 1970 के अपने निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा था कि ‘जीवन के स्तर, देश के मानकों को ध्यान में रखते हुए दर्शकों की नैतिकता से खिलवाड़ नहीं किया जाना चाहिए।’ फिल्मकारों को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि वे इसी समाज का हिस्सा हैं और समाज के प्रति उनका भी दायित्व है। सेंसर बोर्ड को अपनी भूमिका पर बड़ी ही गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है, अन्यथा विकृत किशोरावस्था के लिए वह भी दोषी माना जाएगा।

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